प्रयोग:प्रिया3  

गंगा पुनीततम नदी है और इसके तटों पर हरिद्वार, कनखल, प्रयाग एवं काशी जैसे परम प्रसिद्ध तीर्थ अवस्थित हैं। अत: गंगा से ही आरम्भ करके विभिन्न तीर्थों का पृथक-पृथक वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रसिद्ध नदीसूक्त [१] में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद [२] में ‘गंगय’ शब्द आया है जिसका सम्भवत: अर्थ है ‘गंगा पर वृद्धि करता हुआ।’[३] शतपथ ब्राह्मण (13|5|4|11 एवं 13) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (13|5|4|11 एवं 13) में एक प्राचीन गाथा का उल्लेख है-‘नाडपित् पर अप्सरा शकुन्तला ने भरत को गर्भ में धारण किया, जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के उपरान्त इन्द्र के पास यज्ञ के लिए एक सहस्र से अधिक अश्व भेजे।’ महाभारत (अनुशासन. 26|26-103) एवं पुराणों (नारदीय, उत्तरार्ध, अध्याय 38-45 एवं 51|1-48; पद्म. 5|60|1-127; अग्नित्र अध्याय 110; मत्स्य., अध्याय 180-185; पद्म., आदिखण्ड, अध्याय 33-37) में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं। स्कन्द. (काशीखण्ड, अध्याय 33-37) में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है। यहाँ पर उपर्युक्त ग्रन्थों में दिये गये वर्णनों का थोड़ा अंश भी देना सम्भव नहीं है। अधिकांश भारतीयों के मन में गंगा जैसी नदियों एवं हिमालय जैसे पर्वतों के दो स्वरूप घर कर बैठे हैं-भौतिक एवं आध्यात्मिक। विशाल नदियों के साथ दैवी जीवन की प्रगाढ़ता संलग्न हो ही जाती है। टेलर ने अपने ग्रन्थ ‘प्रिमिटिव कल्चर’ (द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 477) में लिखा है-‘जिन्हें हम निर्जीव पदार्थ कहते हैं, यथा नदियाँ, पत्थर, वृक्ष, अस्त्र-शस्त्र आदि। वे जीवित, बुद्धिशाली हो उठते हैं, उनसे बातें की जाती हैं, उन्हें प्रसन्न किया जाता है और यदि वे हानि पहुँचाते हैं तो उन्हें दण्डित भी किया जाता है।’ गंगा के महात्म्य एवं उसकी तीर्थयात्रा के विषय में पृथक-पृथक ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। यथा गणेश्वर (1350 ई.) का गंगापत्तलक, मिथिला के राजा पद्मसिंह की रानी विश्वासदेवी की गंगावाक्यावली, गणपति की गंगाभक्ति-तरंगिणी एवं वर्धमान की गंगाकृत्यविवेक। इन ग्रन्थों की तिथियाँ इस महाग्रन्थ के अन्त में दी हुई हैं।

वनपर्व (अध्याय 85) ने गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक (88-97) दिये हैं, जिनमें से कुछ का अनुवाद यों है-"जहाँ भी कहीं स्नान किया जाए, गंगा कुरुक्षेत्र के बराबर है। किन्तु कनखल की अपनी विशेषता है और प्रयाग में इसकी परम महत्ता है। यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगा जल का अवसिंचन करता है तो गंगा जल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईधन को जला देती है। कृत युग में सभी स्थल पवित्र थे, त्रेता में पुश्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर में कुरुक्षेत्र एवं कलियुग में गंगा। नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और केशन के समान कोई देव। वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।" अनुशासनपर्व (36|26, 30-31) में आया है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत एवं आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, पुण्य का फल देने में महान हैं। वे लोग, जो जीवन के प्रथम भाग में पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है। वे पवित्रात्मा हो जाते हैं और ऐसा पुण्यफल पाते हैं जो सैकड़ों वैदिक यज्ञों के सम्पादन से भी नहीं प्राप्त होता।

भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ (स्रोतसामस्मि जाह्नवी, 10|31)। मनु (8|92) ने साक्षी को सत्योच्चारण के लिए जो कहा है उससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरुक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे।[४] कुछ पुराणों ने गंगा को मन्दाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथ्वी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है (पद्म. 6|267|47)। विष्णु आदि पुराणों ने गंगा को विष्णु के बायें पैर के अँगूठे के नख से प्रवाहित माना है।[५] कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई (मत्स्य. 121|38-41; ब्रह्माण्ड. 2|18|39-41 एवं 1|3|65-66)। कूर्म. (1|46|30-31) एवं वराह. (अध्याय 82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों में होकर समुद्र में गिरती है।[६] ब्रह्मा. (73|68-69) में गंगा को विष्णु के पाँव से एवं शिव के जटाजूट में अवस्थित माना गया है।

विष्णुपुराण (2|8|120-121) ने गंगा की प्रशस्ति यों की है-जब इसका नाम श्रवण किया जाता है, जब कोई इसके दर्शन की अभिलाषा करता है, जब यह देखी जाती है या स्पर्श की जाती है या जब इसका जल ग्रहण किया जाता है या जब कोई उसमें डुबकी लगाता है या जब इसका नाम लिया जाता है (या इसकी स्तुति की जाती है) तो गंगा दिन-प्रतिदिन प्राणियों को पवित्र करती है। जब सहस्रों योजन दूर रहने वाले लोग गंगा नाम का उच्चारण करते हैं, तो तीन जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।[७] भविष्यपुराण में भी ऐसा ही आया है।[८] मत्स्य., कूर्म., गरुड़. एवं पद्म. का कहना है कि गंगा में पहुँचना सब स्थानों में सरल है, केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं वहाँ जहाँ यह समुद्र में मिलती है, पहुँचना कठिन है। जो लोग यहाँ पर स्नान करते हैं, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जो लोग यहाँ पर मर जाते हैं, वे पुन: जन्म नहीं पाते हैं।[९] नारदीय पुराण का कथन है कि गंगा सभी स्थानों में दुर्लभ है, किन्तु तीन स्थानों पर अत्यधिक दुर्लभ है। वह व्यक्ति जो चाहे या अनचाहे गंगा के पास पहुँच जाता है और मर जाता है, स्वर्ग जाता है और नरक नहीं देखता (मत्स्य. 107|4)। कूर्म. का कथन है कि गंगा वायुपुराण द्वारा घोषित स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी में स्थित 35 करोड़े पवित्र स्थलों के बराबर है और वह उनका प्रतिनिधित्व करती है।[१०] पद्मपुराण ने प्रश्न किया है-‘बहुत धन के व्यय वाले यज्ञों एवं कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होने वाली एवं स्वर्ग मोक्ष देने वाली गंगा उपस्थित है!’ नारदीय पुराणों में भी आया है-‘आठ अंगों वाले योग, तपों एवं यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है।’[११] मत्स्य. (104|14-15) के दो श्लोक यहाँ वर्णन के योग्य हैं-"पाप करने वाला व्यक्ति भी सहस्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम-स्मरण एवं उसके दर्शन से व्यक्ति क्रम से पापमुक्त हो जाता है एवं सुख पाता है। उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढ़ियों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है।" काशीखण्ड (27|69) में ऐसा आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण करने के योग्य हैं।

वराहपुराण (अध्याय 82) में गंगा की व्युत्पत्ति ‘गां गता’ (जो पृथ्वी की ओर गई हो) है। पद्म. (सृष्टि खण्ड, 60|64-65) ने गंगा के विषय में निम्न मूलमंत्र दिया है-‘ओं नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:।’ पद्म. (सृष्टि. 60|65) में आया है कि विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का। इसमें गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की गई है-‘पिताओं, पतियों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरुघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियाँ, मित्र एवं सम्बन्धि उनका त्याग कर देते हैं, किन्तु गंगा उन्हें परित्यक्त नहीं करती (पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, 60|25-26)।’

कुछ पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल के विस्तार के विषय में व्यवस्था दी हुई है। नारदीय. (उत्तर, 43|119-120) में आया है-गंगा के तीर से एक गव्यूति तक क्षेत्र कहलाता है, इसी क्षेत्र सीमा के भीतर रहना चाहिए, किन्तु तीर पर नहीं, गंगातीर का वास ठीक नहीं है। क्षेत्र सीमा दोनों तीरों से एक योजन की होती है अर्थात् प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र का विस्तार होता है।[१२] यम ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि वनों, पर्वतों, पवित्र नदियों एवं तीर्थों के स्वामी नहीं होते, इन पर किसी का भी प्रभुत्व (स्वामी रूप से) नहीं हो सकता। ब्रह्मपुराण का कथन है कि नदियों से चार हाथ की दूरी तक नारायण का स्वामित्व होता है और मरते समय भी (कण्ठगत प्राण होने पर भी) किसी को भी उस क्षेत्र में दान नहीं लेना चाहिए। गंगाक्षेत्र के गर्भ (अन्तर्वत्त), तीर एवं क्षेत्र में अन्तर प्रकट किया गया है। गर्भ वहाँ तक विस्तृत हो जाता है, जहाँ तक भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक धारा पहुँच जाती है और उसके आगे तीर होता है, जो गर्भ से 150 हाथ तक फैला हुआ रहता है तथा प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र विस्तृत रहता है।

अब गंगा के पास पहुँचने पर स्नान करने की पद्धति पर विचार किया जाएगा। गंगा स्नान के लिए संकल्प करने के विषय में निबन्धों ने कई विकल्प दिये हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 497-498) में विस्तृत संकल्प दिया हुआ है। गंगावाक्यावली के संकल्प के लिए देखिए नीचे की टिप्पणी।[१३] मत्स्य. (102) में जो स्नान विधि दी हुई है वह सभी वर्णों एवं वेद के विभिन्न शाखानुयायियों के लिए समान है। मत्स्यपुराण (अध्याय 102) के वर्णन का निष्कर्ष यों है- बिना स्नान और शरीर की शुद्धि एवं शुद्ध विचारों का अस्तित्व नहीं होता। इसी से मन को शुद्ध करने के लिए सर्वप्रथम स्नान की व्याख्या होती है। कोई किसी कूप या धारा से पात्र में जल लेकर स्नान कर सकता है या बिना इस विधि से भी स्नान कर सकता है। ‘नमो नारायणाय’ मंत्र के साथ बुद्धिमान लोगों को तीर्थस्थल का ध्यान करना चाहिए। हाथ में दर्भ (कुश) लेकर, पवित्र एवं शुद्ध होकर आचमन करना चाहिए। चार वर्गहस्त स्थल को चुनना चाहिए और निम्न मंत्र के साथ गंगा का आवाहन करना चाहिए; "तुम विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई हो, तुम विष्णु से भक्ति रखती हो, तुम विष्णु की पूजा करती हो, अत: जन्म से मरण तक किये गए पापों से मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी में 35 करोड़ तीर्थ हैं; है जाह्नवी गंगा, ये सभी देव तुम्हारे हैं। देवों में तुम्हारा नाम नन्दिनी (आनन्द देने वाली) और नलिनी भी है तथा तुम्हारे अन्य नाम भी हैं, यथा-दक्षा, पृथ्वी, विहगा, विश्वकाया, अमृता, शिवा, विद्याधरी, सुप्रशान्ता, शान्तिप्रदायिनी।"[१४] स्नान करते समय इन नामों का उच्चारण करना चाहिए। तब तीन लोकों में बहने वाली गंगा पास में चली आयेगी (भले ही व्यक्ति घर पर ही स्नान कर रहा हो)। व्यक्ति को उस जल को, जिस पर सात बार मंत्र पढ़ा गया हो, तीन या चार या पाँच या सात बार सिर पर छिड़कना चाहिए। नदी के नीचे की मिट्टी का मंत्र पाठ के साथ लेप करना चाहिए। इस प्रकार स्नान एवं आचमन करके व्यक्ति को बाहर आना चाहिए और दो श्वेत एवं पवित्र वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके उपरान्त उसे तीन लोकों के सन्तोष के लिए देवों, ऋषियों एवं पितरों का यथाविधि तर्पण करना चाहिए।[१५]

यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मत्स्य. (102|2-31) के श्लोक, जिनका निष्कर्ष ऊपर दिया गया है, कुछ अन्तरों के साथ पद्म. (पातालखण्ड 81|12-42 एवं सृष्टिखण्ड 20|145-176) में भी पाये जाते हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 502) में गंगा स्नान के समय के मंत्र दिये हुए हैं।[१६]

हमनें इस ग्रन्थ के इस खण्ड के अध्याय 7 में देख लिया है कि विष्णुधर्मसूत्र आदि ग्रन्थों ने अस्थि-भस्म या जली हुई अस्थियों का प्रयाग या काशी या अन्य तीर्थों में प्रवाह करने की व्यवस्था दी है। हमने अस्थि प्रवाह की विधि का वर्णन वहाँ कर दिया है, दो एक बातें यहाँ पर जोड़ दी जा रही हैं। इस विषय में एक ही श्लोक कुछ अन्तरों के साथ कई ग्रन्थों में आया है।[१७] अग्निपुराण में आया है-‘मृत व्यक्ति का कल्याण होता है, जबकि उसकी अस्थियाँ गंगा में डाली जाती हैं। जब तक गंगा के जल में अस्थि का एक टुकड़ा भी रहता है, तब तक व्यक्ति स्वर्ग में निवास करता है।’ आत्मघातियों एवं पतितों की अन्येंष्टि क्रिया नहीं की जाती, किन्तु यदि उनकी अस्थियाँ भी गंगा में रहती हैं तो इनका भी कल्याण होता है। तीर्थचि. एवं तीर्थप्र. ने ब्रह्म. के ढाई श्लोक उद्धृत किये हैं जो अस्थि-प्रवाह के कृत्य को निर्णय सिन्धु की अपेक्षा संक्षेप में देते हैं।[१८] श्लोकों का अर्थ यह है-‘अस्थियों को ले जाने वाले को स्नान करना चाहिए; अस्थियों पर पंचगव्य छिड़कना चाहिए, उन पर सोने का एक टुकड़ा, मधु एवं तिल रखना चाहिए तथा यह कहना चाहिए कि "धर्म को नमस्कार"। इसके उपरान्त गंगा में प्रवेश कर यह कहना चाहिए ‘धर्म (या विष्णु) मुझसे प्रसन्न हों’ और अस्थियों को जल में बहा देना चाहिए। इसके उपरान्त उसे स्नान करना चाहिए। बाहर निकलकर सूर्य को देखना चाहिए और किसी ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो मृत की स्थिति इन्द्र के समान हो जाती है।’ और देखिए स्कन्द. (काशीखण्ड, 30|42-46) जहाँ यह विधि कुछ विशद रूप में वर्णित है। गंगा में अस्थि प्रवाह की परम्परा सम्भवत: सगर पुत्रों की गाथा से उत्पन्न हुई है। सगर के पुत्र कपिल ऋषि के क्रोध से भस्म हो गए थे और भगीरथ के प्रयत्न से स्वर्ग से नीचे लाई गई गंगा के जल से उनकी भस्म बहा दी गई तब उन्हें रक्षा मिली। इस कथा के लिए देखिए वनपर्व (अध्याय 107-109) एवं विष्णुपुराण (2|8-10)। नारदीय. के मत से न केवल भस्म हुई अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से मृत को कल्याण प्राप्त होता है, प्रत्युत नख एवं केश डाल देने से भी कल्याण होता है। स्कन्द. (काशीखण्ड, 27|80) में आया है कि जो लोग गंगा के तट पर खड़े होकर दूसरे तीर्थ की प्रशंसा करते हैं या गंगा की प्रशंसा करने या महत्ता गाने में नहीं संलग्न रहते वे नरक में जाते हैं।[१९] काशीखण्ड ने आगे व्यवस्था दी है कि विशिष्ट दिनों में गंगास्नान से विशिष्ट एवं अधिक पुण्यफल प्राप्त होते हैं, यथा-साधारण दिनों की अपेक्षा अमावस पर स्नान करने से सौ गुना फल प्राप्त होता है। संक्रान्ति पर स्नान करने से सहस्र गुना, सूर्य या चन्द्र ग्रहण पर स्नान करने से सौ लाख गुना और सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण पर या रविवार के दिन सूर्य-ग्रहण पर स्नान करने से असंख्य फल प्राप्त होता है।[२०]

  1. (ऋग्वेद 10|75|5-6)
  2. ऋग्वेद (6|45|31)
  3. अधि बृबु: पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात्। उरु:कक्षो न गाङग्य:।। ऋग्वेद (6|45|31)। अन्तिम पद का अर्थ है ‘गंगा के तटों पर उगी हुई घास या झाड़ी के समान।’
  4. यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थित:। तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून्गम:।। मनु (8|92)।
  5. वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम्। विष्णोर्बभर्ति यां भक्त्या शिरसाहनिंशं ध्रुव:।। विष्णुपुराण (2|8|109); कल्पतरु (तीर्थ, पृष्ठ 161) ने ‘शिव:’ पाठान्तर दिया है। ‘नदी सा वैष्णवी प्रोक्ता विष्णुपादसमुदभवा।’ पद्म. (5|25|188)।
  6. तथैवालकनंदा च दक्षिणादेत्य भारतम्। प्रयाति सागरं भित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तम:।। कूर्म. (1|46|31)।
  7. श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता। या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने।। गंगा गंगेति यैनमि योजनानां शतेष्वपि। स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम्।। विष्णुपु. (2|8|120-121); गंगा वाक्यावली (पृष्ठ 110), तीर्थचि. (पृष्ठ 202), गंगाभक्ति. (पृष्ठ 9)। दूसरा श्लोक पद्म. (6|21|8 एवं 23|12) एवं ब्रह्मा. (175|82) में कई प्रकार से पढ़ा गया है, यथा-गंगा........यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।। पद्य. (1|31|77) में आया है......शतैरपि। नरो न नरकं याति किं तया सदृशं भवेत्।।
  8. दर्शनार्त्स्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात्। स्मरणदेव गंगाया: सद्य: पापै: प्रमुच्यते।। भविष्य. (तीर्थचि. पृष्ठ 198; गंगावा पृष्ठ 12 एवं गंगाभक्ति पृष्ठ 9)। प्रथम पाद अनुशासन. (26|64) एवं अग्नि. (110|6) में आया है। गच्छंस्तिष्ठञ् जपन्ध्यायन् भुञ्जञ् जाग्रत स्वपन् वदन्। य: स्मरेत् सततं गंगां सोऽपि मुच्येत बन्धनात्।। स्कन्द. (काशीखण्ड, पूर्वार्ध 27|37) एवं नारदीय. (उत्तर, 39|16-17)।
  9. सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवा:।। मत्स्य. (106|54); कूर्म. (1|37|34); गरुड़. (पूर्वार्ध, 81|1-2); पद्म. (5|60|120)। नारदीय. (40|26-27) में ऐसा पाठान्तर है-‘सर्वत्र दुर्लभा गंगा त्रिषु स्थानेषु चाधिका। गंगाद्वारे.......संगमे।। एषु स्नाता दिवं.......र्भवा:।।’
  10. तिस्र: कोट्योर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता।। कूर्म. (1|39|8); पद्म. (1|47|7 एवं 5|60|59); मत्स्य. (102|5, तानि ते सन्ति जाह्नवि)।
  11. किं यज्ञैर्बहुवित्ताढ्यै: किं तपोभि: सुदुष्करै:। स्वर्ग्मोक्षप्रदा गंगा सुखसौभाग्यपूजिता।। पद्म. (5|60|39); किमष्टांगेन योगेन किं तपोभि: किमध्वरै:। वास एव हि गंगायां सर्वतोपि विशिष्यते।। नारदीय. (उत्तर, 38|38); तीर्थचि. (पृष्ठ 194, गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम्); प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 494)।
  12. तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। तीरं वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते।। एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात्। नारदीय. (उत्तर, 43|119-120)। प्रथम को तीर्थचि. (पृष्ठ 266) ने स्कन्दपुराण से उदधृत किया है और व्याख्या की है-‘उभयतटे प्रत्येकं कोशदयं क्षेत्रम्।’ अन्तिम पाद को तीर्थचि. (पृष्ठ 267) एवं गंगावा. (पृष्ठ 136) ने भविष्य. से उदधृत किया है। ‘गव्यूति’ दूरी या लम्बाई की माप है जो सामान्यत: दो क्रोश (कोस) के बराबर है। लम्बाई के मापों के विषय में कुछ अन्तर है। अमरकोश के अनुसार ‘गव्यूति’ दो क्रोश के बराबर है, यथा-‘गव्यूति: स्त्री क्रोशयुगम्।’ वायु. (8|105 एवं 101|122-123) एवं ब्रह्माण्ड. (2|7|96-101) के अनुसार 24 अंगुल=एक हस्त, 96 अंगुल=एक धनु (अर्थात् ‘दण्ड’, ‘युग’ या ‘नाली’); 2000 धनु (या दण्ड या युग या नालिका)=गव्यूति एवं 8000 धनु=योजन। मार्कण्डेय. (46|37-40) के अनुसार 4 हस्त=धनु या दण्ड या युग या नालिका; 2000 धनु=क्रोश, 4 क्रोश=गव्यूति (जो योजन के बराबर है)। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 3, अध्याय 5।
  13. अद्यामुके मासि अमुकपक्षे अमुकतिथौ सद्य:पापप्रणाशपूर्वकं सर्वपुण्यप्राप्तिकामोगंगाया स्नानमहं करिष्ये। गंगावा. (पृष्ठ 141)। और देखिए तीर्थचि. (पृष्ठ 206-207), जहाँ गंगास्नान के पूर्वक लिंक संकल्पों के कई विकल्प दिये हुए हैं।
  14. स्मृतिचन्द्रिका (1, पृष्ठ 182) ने मत्स्य. (102) के श्लोक (1-8) उदधृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने वहीं गंगा के 12 विभिन्न नाम दिए हैं। पद्म. (4|81|17-19) में मत्स्य. के नाम पाये जाते हैं। इस अध्याय के आरम्भ में गंगा के सहस्र नामों की ओर संकेत किया जा चुका है।
  15. तर्पण के दो प्रकार हैं-प्रधान एवं गौण। प्रथम विद्याध्ययन समाप्त किये हुए द्विजों द्वारा देवों, ऋषियों एवं पितरों के लिए प्रतिदिन किया जाता है। दूसरा स्नान के अंग के रूप में किया जाता है। नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं स्नानमुच्यते। तर्पणं तु भवेत्तस्य अंगत्त्वेन प्रकीर्तितम्।। ब्रह्म. (गंगाभक्ति., 162)। तर्पण स्नान एवं ब्रह्मयज्ञ दोनों का अंग है। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 17। तर्पण अपनी वेद शाखा के अनुसार होता है। दूसरा नियम यह है कि तर्पण तिलयुक्त जल से किसी तीर्थस्थ्ल, गया में, पितृपक्ष (आश्विन के कृष्णपक्ष) में किया जाता है। विधवा भी किसी तीर्थ में अपने पति या सम्बन्धी के लिए तर्पण कर सकती है। संन्यासी ऐसा नहीं करता। पिता वाला व्यक्ति भी तर्पण नहीं करता। किन्तु विष्णुपुराण के मत से वह तीन अंजिली देवों, तीन ऋषियों को एवं एक प्रजापति (‘देवास्तुप्यन्ताम्’ के रूप में) को देता है। एक अन्य नियम यह हे कि एक हाथ (दाहिने) से श्राद्ध में या अग्नि में आहुति दी जाती है, किन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल स्नान करने वाली नदी में डाला जाता है या फिर भूमि पर छोड़ा जाता है-‘श्राद्धे हवनकाले च पाणिनैकेन दीयते। तर्पणे तूभयं कुर्यादिष एव विधि:स्मृत।। नारदीय. (उत्तर, 57|62-63)’ यदि कोई विस्तृत विधि से तर्पण न कर सके तो वह निम्न मंत्रों के साथ (जो वायुपुराण, 110|21-22 में दिये हुए हैं) तिल एवं कुश से मिश्रित जल की तीन अंजलियाँ दे सकता है-‘आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त देवर्षिपितृमानवा:। तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:।। अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मयुभ-नाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्।।’
  16. विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनि। धर्मव्रतेति विख्याते पापं में हर जाह्नवी।। श्रद्धया भक्तिसम्पन्ने श्रीमातर्देवि जाह्नवि। अमृतेनाम्बुना देवि भागीरथी पुनीह माम्।। स्मृति. (1|131); प्रा. तत्त्व. (502); त्वं देव सरितां नाथ त्वं देवि सरितां वरे। उभयो: संगमे स्नात्वा मुञ्चामि दुरितानि वै।। वही। और देखिए पद्मत्र (सृष्टिखण्ड, 60|60)
  17. वाचदस्थि मनुष्यस्य गंगाया: स्पृशते जलम्। तावत्स पुरुषो राजन स्वर्गलोके महीयते।। वनपर्व (85|94=पद्म. 1|39|87); अनुशासन पर्व (36|32) में आया है-‘यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति हि शरीरिण:। तावद्वर्षसहस्राणि......महीयते।।’ यही बात मत्स्य. (106|52) में भी है। कूर्म. (1|37|32) ने ‘पुरुषस्य तु’ पढ़ा है। नारद. (43|101) में आया है-‘यावन्त्यस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य’ वै। तावद्वर्ष....महीयते।’ पुन: नारद. (उत्तर, 62|51) में आया है-यावन्ति नखलोमानि गंगातोये पतन्ति वै। तावद्वर्ष सहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।। नारदीय. (पूर्वार्ध, 15|163)-केशास्थिनखदन्ताश्च भस्मापि नृपसत्तम। नयन्ति विष्णुसदनं स्पृष्टा गांगेन आरिणा।।
  18. स्नात्वा तत: पंचगवेन सिक्त्वा हिरण्यमध्वाज्यतिलेन योज्यम्। ततस्तु मृत्पिण्डपुटे निधाय पश्यन दिशं प्रेतगणोक्गूढाम्।। नमोऽस्तु धर्माय वदन् प्रविश्य जलं स मे प्रीत इति क्षिपेच्च। स्नात्वा तथोत्तीर्य च भास्करं च दृष्ट्वा प्र.... दक्षिणां तु।। एवं कृते प्रेतपुरस्थितस्य स्वर्गे गति: स्यात्तु महेन्द्रतुल्या। ब्रह्म. (तीर्थचि., पृष्ठ 265-266 एवं तीर्थप्र., पृष्ठ 374)। गंगावा. (पृष्ठ 272) ने कुछ अन्तर के साथ इसे ब्रह्माण्ड. से उदधृत किया है, यथा-‘यस्तु सर्वहितो विष्णु: स मे प्रीत इति क्षिपेत्।’ और देखिए नारद. (उत्तर, 43|113-115)
  19. तीर्थमन्यत्प्रशंसन्ति गंगातीरे स्थिताश्च ये। गंगां न बहु मन्यन्ते ते स्युर्निरयगामिन:।। स्कन्द. (काशीखण्ड, 27|80)।
  20. दर्शे शतगुणं पुण्यं संक्रान्तौ च सहस्रकम्। चन्द्रसूर्यग्रहेलक्षं व्यतीपाते त्वनन्तकम्।।.....सोमग्रह: सोमदिने रविवारे रवेग्रह:। तच्चूडामणिपर्वाख्यं तत्र स्नानमसंख्यकम्।। स्कन्द. (काशीखण्ड, 27129-131)।
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