प्रकृति के प्रति -दिनेश सिंह  

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प्रकृति अविरल तेरा ये बिम्ब
चूमते अंबर को गिरी श्रंग
श्रंग पर छेड़े पव संगीत
गीत नव गाते विविध विहंग

स्वर्मियों उर्मिल खग दल गान
कही चातक की करुण पुकार
अरे पिक का मदमाता गीत
लग रहा लिया विश्व है जीत

श्रांखला अचलो की अवर्णित
निरुपम हिम सज्जित परिधान
सेज बंकिम विशाल विश्रांत
दे रहा अल्कापुर को मात

थिरकती लहर!सर सरित तड़ाग
बहे इठलाती सुरसरि धार
झील झरनो का स्वर्णिम राग
बहे पव मंद गंध लिए भार

व्रान्त पर उड़ उड़ करते अंक
मधुर चुम्बन ब्रन्दी और बृंद
रसातल में डूबे मकरंद
डूब ज्यों लिखे कवी कोई छंद

ललोहित नभ पर जब दिनमान
कलापी की मृदु रागारुण तान
मधुर कीटों की किंकिड ध्वनि
तरुण निशि पर मंजीर सी भान

शिथिल रजनी का नव संवाद
गगन का तेज अलौकिक शांत
पिये मद सोया जब संसार
मदभरी जगे चांदनी रात

तृप्त वसुधा को करता चाँद
विरह में जलता किसका प्राण
बीतती अपलक जिसकी रात
प्रेम विरहाकुल एक खग जात

शिथिल रजनी का मध्य पहर
सघन बन में जलता एक दीप
नाप कर मौन तिमिर उँचास
कर रहा है तम का परिहास

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