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'''कृष्ण निरंजन सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Krishna Niranjan Singh''; जन्म- [[1 सितंबर]], [[1908]], [[देहरादून]], मृत्यु- [[31 जनवरी]], [[2000]], [[देहरादून]]) [[भारतीय सिनेमा]] के खलनायक [[अभिनेता]] थे। के. एन. सिंह ने लगभग 250 फ़िल्मों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी हैं।
 
==संक्षिप्त परिचय==
 
{{main|के. एन. सिंह का जीवन परिचय}}
 
के. एन. सिंह का जन्म [[1 सितंबर]], [[1908]] को [[देहरादून]] में हुआ था। उनके पिता चंडी दास एक जाने-माने वकील (क्रिमिनल लॉएर) थे और [[देहरादून]] में कुछ प्रांत के राजा भी थे। इन्हें के. एन. सिंह के नाम से भी जाना जाता है। कृष्ण निरंजन भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र उन्हें फ़िल्मों की ओर खींच ले आया। मंजे हुए अभिनय के बल पर के. एन. सिंह एक चरित्र अभिनेता बने व विलेन के रूप में स्थापित हुए। सुनहरा संसार (1936) उनकी पहली फ़िल्म थी। बागवान (1936) में उनका नेगेटिव रोल था। जनता को यह भूमिका बहुत भायी व लंबे समय तक विलेन के रूप में उनके नाम पर मोहर लग गई।
 
== फ़िल्मी सफ़र ==
 
{{main|के. एन. सिंह का फ़िल्मी सफ़र}}
 
के. एन. सिंह  को अपने पिता द्वारा अपनी जागीर का [[ब्रिटिश सरकार]] से समझौता पसंद नहीं आया। तभी वे वकालत से मुंह मोड़कर [[खेल]] के मैदान में उतर गये। [[1936]]
 
के बर्लिन ओलंपिक्स के लिये वह जेवलिन थ्रो व शॉट पुट स्पर्धाओं के लिये भारतीय टीम के लिये चुन लिये गये थे। तभी एन मौके पर उन्हें बहिन की आंख के ऑपरेशन के लिये [[कलकत्ता]] जाना पड़ा। क्योंकि उनके जीजा [[लंदन]] गये हुए थे। कलकत्ता में उनकी मुलाकात फेमिली फ्रेंड [[पृथ्वी राज कपूर|पृथ्वी राजकपूर]] से हुई। इन्हीं ने के. एन. सिंह को देबकी बॉस से मिलाया। देबकी ने अपनी फ़िल्म सुनहरा संसार ([[1936]]) में सहायक की भूमिका दी। यहां से के. एन. सिंह फ़िल्मों में ऐसे रमें कि [[खेल]] का मैदान व सेना में भर्ती का विचार उड़न छू हो गया।
 
==प्रमुख फ़िल्में ==
 
{{main|के. एन. सिंह की प्रमुख फ़िल्में}}
 
[[1936]] से [[1982]] तक के.एन. सिंह ने लगभग 250 फ़िल्में हुमायूं ([[1944]]), बरसात ([[1949]]), सज़ा व आवारा ([[1951]]), जाल व आंधियां ([[1952]]), शिकस्त व बाज़ ([[1953]]), हाऊस नं. 44 व मेरीन ड्राईव ([[1955]]), फंटूश व सी0आई0डी0 ([[1956]]), हावड़ा ब्रिज व चलती का नाम गाड़ी ([[1958]]) आदि की।
 
==निधन==
 
के. एन. सिंह का देहांत [[31 जनवरी]], [[2000]] में हुआ था।
 
 
 
 
{{के. एन. सिंह विषय सूची}}
 
{{के. एन. सिंह सूचना बक्सा}}
 
== पृथ्वीराज कपूर से भेंट ==
 
के. एन. सिंह को अपने पिता द्वारा अपनी जागीर का ब्रिटिश सरकार से समझौता पसंद नहीं आया। तभी वे वकालत से मुंह मोड़कर खेल के मैदान में उतर गये। [[1936]] के बर्लिन ओलंपिक्स के लिये वह जेवलिन थ्रो व शॉट पुट स्पर्धाओं के लिये भारतीय टीम के लिये चुन लिये गये थे। तभी एन मौके पर उन्हें बहिन की आंख के ऑपरेशन के लिये कलकत्ता जाना पड़ा। क्योंकि उनके जीजा लंदन गये हुए थे। कलकत्ता में उनकी मुलाकात फेमिली फ्रेंड [[पृथ्वीराज कपूर]] से हुई। किन्हीं ने के. एन. सिंह को देबकी बॉस से मिलाया। देवकी ने अपनी फ़िल्म सुनहरा संसार ([[1936]]) में सहायक की भूमिका दी। यहाँ से के. एन. सिंह फ़िल्मों में ऐसे रमें कि खेल का मैदान व सेना में भर्ती का विचार उड़न छू हो गया। के. एन. सिंह अकसर चरित्र का अध्ययन कर उसे अपने [[अभिनय]] में लाते थे। इंस्पेक्टर ([[1956]]) की फ़िल्म के लिये उन्होंने घोड़ा-गाड़ी चलाना सीखा तथा हाव-भाव को बारीकी से समझा। वे उसूल व समय के बहुत पक्के थे। राजकपूर से एक बार उनके मतभेद हुए तो फिर कभी उनकी फ़िल्मों में काम नहीं किया। उन्होंने उन्नति के लिये कई निर्माता-निर्देशकों के साथ काम किया और कई स्टूडियो से संबद्ध रहे।
 
 
== फ़िल्मी सफ़र ==
 
एक दिन एक बार में उनकी एक शख़्स से मुलाकात हुई। उनकी नाम था इजरा मीर। वो उन दिनो इंद्रपुरी स्टूडियों के डायरेक्टर थे। मीर ने के. एन. सिंह को स्टूडियो में आने निमंत्रण दिया। वहां के. एन की मुलाकात उस समय की कई फ़िल्म हस्तियों से हुई। एक दिन के. एन सिंह कुंदन लाल को ढूंढते हुए एक स्टूडियो पहुंचे। वो कुंदन लाल से मिलने में झिझक रहे थे, लेकिन कुंदन लाल ने उन्हें देखते ही दौड़ कर गले लगा लिया। इसके बाद के. एन. सिंह की पृथ्वी राज कपूर से मुलाकात हुई। उन्होंने के. एन. को फ़िल्मी दुनिया में रोज़गार ढूंढने का सुझाव दिया।
 
 
पृथ्वी राज के सुझाव पर के. एन. निर्देशक देवकी बोस के असिस्टेंट बन गए। उन्हें फ़िल्मी दुनिया और वहाँ का काम बहुत दिलचस्प लगा। देवकी बोस उस समय एक फ़िल्म बना रहे थे 'सुनहरा संसार' जिसके हीरो थे गुल हमीद। के. एन. सिंह का [[हिंदी]], [[उर्दू]] और [[अंग्रेज़ी]] का शुद्ध उच्चारण देखते हु्ए इस फ़िल्म में उन्हें एक डाक्टर का रोल दिया गया। इसके बदले उन्हें मिले 300 रूपए। यह फ़िल्मों से उनकी पहली कमाई थी। के एन सिंह के काम को देवकी बोस के अलावा पूरी यूनिट के लोगों ने पसंद किया।
 
 
अब के. एन. के सामने ये साफ़ हो गया था कि उन्हें फ़िल्मी दुनिया में ही अपना भविष्य मज़बूत करना है। के. एन. सिंह के इस फ़ैसले की मदद उनकी क़िस्मत ने भी की। 'सुनहरा संसार' के बाद देवकी बोस ने 'हवाई डाकू' नाम की फ़िल्म पर काम शुरू किया। इसके हीरो भी गुल हमीद चुने गए। लेकिन शूटिंग के वक्त गुल हमीद बुरी तरह बीमार हो गए। देवकी बोस ने के. एन. सिंह से गुल हमीद का रोल करवाया। खलनायक थे मज़हर खां। फ़िल्म फ़्लॉप हो गई, लेकिन के. एन. हीरो बन गए। उनके फ़िल्मों में काम करने को लेकर उनके पिता ख़ुश नहीं हुए उस समय शरीफ घरों के लोगों का फिल्मों में काम करना ही क्या फिल्म देखना तक बुरी बात समझा जाता था लेकिन फिर भी उन्हें इस बात का संतोष था कि के. एन. सिंह कोई काम तो कर रहा है।
 
 
उन्हें इस बात की भी चिंता थी कि कहीं के. एन. सिंह फ़िल्मों में काम करने वाली किसी महिला से शादी न कर लें। इसलिए घरवालों ने के. एन. की शादी तय कर दी और उन्हें [[कोलकाता]] से बुलवा कर शादी कर दी गई। इनका सिक्का फ़िल्मों में चल निकला। शादी से पहले वे देवकी बोस की एक फ़िल्म विद्यापति में नायक बने और शादी के बाद जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो हिट साबित हुई। कई और फ़िल्मों में काम करते करते इनको फ़िल्म 'मिलाप' में काम करने का मौक़ा मिला।
 
 
इस फ़िल्म का निर्देशन ए. आर. कारदार कर रहे थे। यह कारदार की पहली फ़िल्म थी। 'मिलाप' हिट ही नहीं सुपर हिट हुई। तब तक [[मुंबई]] फ़िल्म निर्माण के बड़े केंद्र के रूप में उभर रही थी। कोलकाता में कई फ़िल्म कंपनियां आर्थिक संकट से जूझ रही थीं। कारादार ने के. एन. के सामने मुंबई चलने का प्रस्ताव रखा। के . एन. ने दोस्तों से सलाह की और [[देहरादून]] हो कर [[मुंबई]] पहुंचे। कारदार को मुंबई जाते ही बाग़बान फ़िल्म के निर्देशन की ज़िम्मेदारी मिल गई, उन्होंने के. एन. को फ़िल्म में एक रोल ऑफ़र किया, लेकिन ये रोल खलनायक का था।
 
 
कारदार का मानना था कि डील डौल के मुताबिक भी के. एन. सिंह खलनायक के रेल के लिए फ़िट रहेंगे। अब के. एन. सिंह को फ़ैसला करना था कि वो खलनायक बने या नहीं। उस समय के सबसे चर्चित खलनायक मज़हर खां इनके दोस्त थे, उन्होंने के. एन. सिंह को राय दी कि उन्हें खलनायक या चरित्र अभिनेता जिसका भी रोल मिले करना चाहिए क्योंकि किसी हीरो की दो फिल्में फ्लॉप होने के बाद उसकी मांग घट जाती है। लेकिन खलनायक या चरित्र अभिनेता पर फिल्म फ्लॉप होने का सीधा असर नहीं पड़ता।
 
 
खुद मज़हर खां भी हीरो थे और अपनी मर्ज़ी से खलनायक के किरदार करने लगे। के. एन. सिंह ने 'बाग़बान' में खलनायक का रोल किया। फ़िल्म सुपर हिट रही और इसी के साथ फ़िल्मी दुनिया को 6 फुट दो इंच उंचा एक ऐसा खलनायक मिला जिसकी रहस्यमयी मुस्कान उसका अचूक हथियार था जो सिर्फ़ आंखों को खास अंदाज़ में हरकत दे कर सिहरन पैदा कर देता था। के. एन. के खलनायक रूप से उस समय के प्रसिद्ध खलनायक याकूब इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने खलनायक के रोल लेने बंद कर दिए और वे हास्य [[अभिनेता]] बन गए। इनका खलनायकी का सफ़र शुरू हो चुका था एक के बाद एक फ़िल्में वो करते गए। उस दौर में पौराणिक फ़िल्में बड़ी संख्या में बनती थीं। अपने डील डौल और सधे हुए अंदाज़ में संवाद आदायगी की वजह से वे प्रोड्यूसर डायरेक्टर के मनपसंद दुर्योधन साबित हुए।
 
 
[[1951]] में बनी राजकपूर की फ़िल्म 'आवारा' में के. एन. ने एक डाकू की भूमिका निभाई फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद के. एन. के रोल की जमकर प्रशंसा हुई। बरसों तक उनके प्रशंसक उन्हें जग्गा डाकू के नाम से याद करते रहे। मगर यह के. एन. सिंह का बड़प्पन था कि उन्होंने अपनी इस उपलब्धी का श्रेय अकेले ही नहीं लिया। उन्होंने हमेशा कहा कि ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जग्गा डाकू का रोल इतना असरदार लिखा था कि वह यादगार बन गया।
 
 
शक्ति सामंत को लगता था कि के. एन. के बिना उनकी फ़िल्म अधूरी रहेगी इसलिए उन्होंने अपनी फ़िल्मों इंस्पेक्टर, [[हावड़ा ब्रिज]], इवनिंग इन पेरिस में के. एन. को दोहराया। धीरे-धीरे पर्दे पर प्राण, कन्हैयालाल और जीवन जैसे खलनायक उभरे, लेकिन के. एन. ने खलनायकी में अपना जो अंदाज़ और स्थान बनाया था वह हमेशा बना रहा। यहाँ तक की [[प्रेम चोपड़ा]], रंजीत, अजित, [[अमजद खान]], डैनी और [[अमरीश पुरी|अमरीशपुरी]] जैसे खलनायकों के दौर में भी के. एन. की मांग बना रही।
 
 
लेकिन सत्तर के दशक में के. एन. महसूस करने लगे थे कि अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा। हीरो और हिरोइन का इतना दबदबा बढ़ चुका था कि निर्देशक और प्रोड्यूसर भी उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहने लगे। इन्होंने जब फ़िल्मों में क़दम रखा था तब सभी लोग किसी कंपनी या स्टूडियो के वेतन भोगी कर्मचारी होते थे वहाँ निर्देशक का हुक्म अंतिम होता था। फिर आगे के दौर में स्टूडियो परंपरा टूटी और कलाकार फ्री लांस के तौर पर किसी भी बैनर में काम करने लगे तब भी फ़िल्म में निर्देशक का स्थान सर्वोपरी होता था। उस समय सेट पर एक परिवार जैसा माहौल होता था। साथी कालाकर एक दूसरे के साथ समय बिताया करते थे, लेकिन स्टार सिस्टम के उदय ये बाद सब कुछ ध्वस्त होने लगे। उसूल और आदर के अर्थ बदलने लगे। के. एन ने कभी रोल को पसंद या नापसंद करना नहीं सीखा खलनायकी के साथ साथ उन्होंने यादगार चरित्र [[अभिनय]] भी किया। इसलिए उन्हें काम तो मिलता रहा फिर भी उन्हें लगने लगा कि अब उनकी या उनके दौर के लोगों को वह आदर सम्मान नहीं मिल पाएगा जिसके वे हक़दार थे।
 
 
अपने साथी कलाकारों [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वी राज]], [[कुंदनलाल सहगल]], मजहर खान, जयराज, मोती लाल आदि के साथ परिवार की तरह रहने वाले के. एन. ने अभिनेता पी जयराज और लेखक निर्देशक पी. एल. संतोषी की शादी खुद करवायी। कई साथियों के बच्चे जब फ़िल्म निर्माण में उतरे तो के. एन. ने उन्हें हर तरह का सहयोग दिया, लेकिन फिर के. एन. को महसूस हुआ कि यह युवा नस्ल अंकल कह कर उनसे काम तो करवा लेती थी, लेकिन पैसे देने के नाम पर चुप्पी साध लेते थे। के. एन. को कई फ़िल्मों में काम करने के एवज़ में कभी कुछ नहीं मिला।
 
 
फ़िल्मों में कई पीढ़ियां उनके सामने जवान हुईं। उन्होंने पृथ्वी राज कपूर के साथ काम किया फिर राजकपूर के साथ और [[1975]] में राजकपूर के बेटे ऋषी कपूर की फ़िल्म 'रफ्फूक्कर' में भी के. एन. सिंह ने काम किया। सहगल और मोती लाल से लेकर [[दिलीप कुमार|दिलीप]], [[राजकपूर]], देवानंद त्रयी सहित गुरूदत्त, [[सुनील दत्त]], [[मनोज कुमार]], [[धर्मेंद्र]] और [[राजेश खन्ना]] से लेकर [[अमिताभ बच्चन]] तक फ़िल्मों के हर दौर के नायकों के मुक़ाबले में के. एन. सिंह अकेले खड़े नजर आते हैं।
 
 
 
 
{{के. एन. सिंह विषय सूची}}
 
{{के. एन. सिंह सूचना बक्सा}}
 
के. एन. सिंह का जन्म [[1 सितंबर]], [[1908]] को [[देहरादून]] ([[उत्तराखंड]]) में हुआ था। यह [[भारतीय सिनेमा]] के जाने-माने [[अभिनेता]] थे। ये हर भूमिका का अच्छा अध्ययन करते थे। इनका पूरा नाम कृष्ण निरंजन सिंह था। इनके पिता चंडी दास एक जाने-माने वकील (क्रिमिनल लॉएर) थे और [[देहरादून]] में कुछ प्रांत के राजा भी थे। ये भी उनकी तरह वकील बनना चाहते थे लेकिन अप्रत्याशित घटना चक्र उन्हें फ़िल्मों की ओर खींच ले आया। मंजे हुए [[अभिनय]] के बल पर के. एन. सिंह एक चरित्र [[अभिनेता]] बने व विलेन के रूप में स्थापित हुए। के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र [[अभिनेत्री]] थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर [[अंग्रेज़ी]] पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था। ये अपने 6 भाई-बहिनों में सबसे बड़े थे।
 
== कुंदन लाल सहगल से भेंट ==
 
के. एन. सिंह की दोस्ती [[लखनऊ]] में ही अपने एक हम उम्र कुंदन लाल सहगल से हुई। आगे चल कर इस दोस्ती ने कई पड़ाव तय किये। पढ़ाई खत्म कर के. एन. [[देहरादून]] आ गए उनके [[पिता]] चाहते थे कि के. एन. जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़े हों। उन्होंने कई काम किए कभी लाहौर जा कर प्रिंटिग प्रेस स्थापित की कभी राजों रजवाड़ों को पालने के लिये जंगली जानवर स्पलाई किये तो कभी चाय बागान में काम करने वालों के लिये ख़ास तरह के जूते बनवाए, तो कभी फ़ौज में खुखरी की सप्लाई की हर धंधा शुरू में चला लेकिन के. एन. सिंह का स्वभाव व्यवसायिकता के लिए बना ही नहीं था। पिता परेशान थे और के. एन. का खुद का आत्मविश्वास भी लगातार असफलताओं से डिगने लगा था। उन्हें लग रहा था कि इससे बेहतर तो [[लंदन]] जाकर बैरिस्टर की पढ़ाई ही कर ली होती। पिता को लगने लगा कि बेटे को जीवन की कठोरताओं से मुक़ाबला करवाने के लिये उस पर ज़िम्मेदारी लादनी ही होगी। [[1930]] में [[मेरठ]] के फ़ौलादा गांव की आनंद देवी से के. एन. का [[विवाह]] करवा दिया गया। इनकी ऊँचाई 6 फुट दो इंच थी।
 
 
के. एन. सिंह ने 'बाग़बान' में खलनायक का रोल किया। फ़िल्म सुपर हिट रही और इसी के साथ फ़िल्मी दुनिया को उंचा एक ऐसा खलनायक मिला
 
विवाह के कुछ दिनों बाद के. एन. सिंह ने ज़ाफ़रान की सप्लाई का काम शुरू किया। धंधा फूलने फलने लगा तो के. एन. का आत्मविश्वास भी लौटा और घरवालों का उन पर भरोसा भी बढ़ा इसी दौरान के. एन. की पत्नी बीमार पड़ गयीं।
 
 
उस दौर में जब इंजेक्शन की पहुंच आम आदमी तक नहीं हुई थी और ऑपरेशन को मौत का दूसरा नाम समझा जाता था इलाज की व्यापक सुविधाएं नहीं थीं। जब तक पत्नी की बीमारी की सही वजह पता चलता उनका निधन हो गया। उधर बीमारी की वजह से उलझे के. एन. सिंह अपने धंधे पर भी ध्यान नहीं दे पाए और उनके व्यवसाय पर उनके भागीदारों ने कब्ज़ा जमा लिया। इस हादसे के कुछ दिनों बाद के. एन. की मुलाक़ात एक अंग्रेज़ लड़की से हुई जिसके साथ मिल कर उन्होंने रूढ़की में एक स्कूल खोला, लेकिन साल भर में ही स्कूल ठप हो गया। इससे पहले उन्होंने होटलों में बासमती चावल की सप्लाई की धंधा भी किया, लेकिन जल्द ही वो खत्म हो गया।
 
 
के. एन. सिंह की एक बहन की शादी [[कोलकाता]] में हुई थी। उनकी अचानक तबियत खराब हो गयी। उनकी देखभाल के लिए किसी को जाना था। के. एन. सिंह खाली थे उन्हें ही यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। उनके कोलकाता जाने की बात सुनकर [[देहरादून]] में उनके एक दोस्त नित्यानंन्द खन्ना ने उन्हें [[पृथ्वी राज कपूर]] के नाम एक पत्र दिया। पृथ्वी राज उन दिनों कोलकाता में रह कर फ़िल्मों में व्यस्त थे और नित्यानंद उनके फुफेरे भाई थे। कोलकाता सफ़र के दौरान के. एन. सिंह को याद आया कि उनका लड़कपन का दोस्त कुंदन लाल तो फ़िल्मों में स्टार हो गया है शायद मिलने पर वह पहचान ले।
 
 
सहगल भी उन दिनों कोलकाता में ही थे क्योंकि उस समय कोलकाता फ़िल्म निर्माण का सबसे प्रमुख केंद्र था। कोलकाता में के. एन. दिन भर तो बहन के पास अस्पताल में रहते और शाम को कुछ समय किसी पब या बार में बिताते थे।
 
 
 
 
 
{{के. एन. सिंह विषय सूची}}
 
{{के. एन. सिंह सूचना बक्सा}}
 
 
के. एन. ने कभी रोल को पसंद या नापसंद करना नहीं सीखा खलनायकी के साथ साथ उन्होंने यादगार चरित्र अभिनय भी किया। इसलिए उन्हें काम तो मिलता रहा फिर भी उन्हें लगने लगा कि अब उनकी या उनके दौर के लोगों को वह आदर सम्मान नहीं मिल पाएगा जिसके वे हक़दार थे।
 
 
बरसात की रात (1960), वो कौन थी (1964), मेरा साया (1966), मेरे हुज़ूर (1968), दुश्मन , हाथी मेरे साथी (1971) लोफ़र, कच्चे धागे (1973) बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) जैसी भारतीय सिनेमा की यादगार फ़िल्मों का एक लंबी सूची है, जिनमें एक बात सामान्य है और वह है इन फ़िल्मों में केएन सिंह का अभिनय।
 
 
{| class="wikitable"
 
|-
 
!वर्ष!! फ़िल्में
 
|-
 
| [[1981]]||कालिया
 
|-
 
| [[1981]]||श्रद्धांजली
 
|-
 
| [[1980]]||दो प्रेमी
 
|-
 
| [[1980]]||दोस्तानाजज
 
|-
 
| [[1977]]||साहेब बहादुर
 
|-
 
| 1976]]||अदालत
 
|-
 
| 1975||प्रेम कहानी
 
|-
 
| 1975||रफ़ू चक्कर
 
|-
 
| 1975||कैद
 
|-
 
| 1974 ||बढ़ती का नाम दाढ़ी
 
|-
 
| 1973 ||कच्चे धागे
 
|-
 
| 1973 ||लोफ़र
 
|-
 
| 1972 ||दो चोर
 
|-
 
| 1972 ||मेरे जीवन साथी
 
|-
 
| 1971 ||हाथी मेरे साथी
 
|-
 
| 1971 ||जाने अनजाने
 
|-
 
| 1971 ||हम तुम और वो
 
|-
 
| 1971 ||दुश्मन
 
|-
 
| 1970 ||पगला कहीं का
 
|-
 
| 1970 ||दीदार
 
|-
 
| 1970 ||हिम्मत
 
|-
 
| 1969 ||जिगरी दोस्त
 
|-
 
| 1968 ||दिल और मोहब्बत
 
|-
 
| 1968 ||मेरे हुज़ूर
 
|-
 
| 1967 ||रात और दिन
 
|-
 
| 1966 ||मेरा साया
 
|-
 
| 1966 ||आम्रपाली
 
|-
 
| 1964 ||दूल्हा दुल्हन
 
|-
 
| 1964 ||वो कौन थी
 
|-
 
| 1962 ||सूरत और सीरत
 
|-
 
| 1962 ||नकली नवाब
 
|-
 
| 1961 ||पासपोर्ट
 
|-
 
| 1961 ||रेशमी रूमाल
 
|-
 
| 1961 ||सपने सुहाने
 
|-
 
| 1961 ||डार्क स्ट्रीट
 
|-
 
| 1960 ||मंज़िल
 
|-
 
| 1960 ||बरसात की रात
 
|-
 
| 1960 ||महलों के ख़्वाब
 
|-
 
| 1958 ||हावड़ा ब्रिज
 
|-
 
| 1958 ||चलती का नाम गाड़ी
 
|-
 
| 1957 ||उस्ताद
 
|-
 
| 1956 ||फंटूश
 
|-
 
| 1956 ||सी आई डी
 
|-
 
| 1956 ||इंस्पेक्टर
 
|-
 
| 1955 ||हाउस नम्बर 44
 
|-
 
| 1955 ||मैरीन ड्राइव
 
|-
 
| 1953 ||अरमान
 
|-
 
| 1953 ||शिकस्त
 
|-
 
| 1952 ||घुंघरू
 
|-
 
| 1952 ||जाल
 
|-
 
| 1952 ||आँधियां
 
|-
 
| 1951 ||सनम
 
|-
 
| 1951 ||सज़ा
 
|-
 
| 1951 ||आवारा
 
|-
 
| 1951 ||बाज़ी
 
|-
 
| 1949 ||बरसात
 
|-
 
| 1949 ||सिंगार
 
|-
 
| 1949 ||पारस
 
|-
 
| 1945 ||हुमायूँ
 
|}
 

११:३९, २० सितम्बर २०१७ का अवतरण

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