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==प== | ==प== | ||
===प्रेम के मार्ग में चतुराई बुरी है=== | ===प्रेम के मार्ग में चतुराई बुरी है=== | ||
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* सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ- पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात | * सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ- पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात | ||
+ | ==य== | ||
+ | ===यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण=== | ||
+ | * मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात | ||
+ | * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए जो स्वयं ही नहीं अपने आसपास को भी प्रकाशित करती है। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | * सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। ~ ऋगवेद | ||
+ | * यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण। ~ रामचंद्र शुक्ल | ||
+ | * श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा-भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | ||
+ | * चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास | ||
+ | * अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेलकर | ||
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+ | ===योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता=== | ||
+ | * योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता। ~ माघ | ||
+ | * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | * मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। ~ वेदव्यास | ||
+ | * अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास | ||
+ | * साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद | ||
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+ | ===योग्यता और व्यक्तित्व=== | ||
+ | * न कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु। संसार में व्यवहार से ही लोग मित्र और शत्रु होते हैं। ~ नारायण पंडित | ||
+ | * किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू | ||
+ | * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | ||
+ | * दीपक के नीचे का अंधकार दूर करने के लिए दूसरा दीपक जलाने का प्रयत्न करना चाहिए। ~ संस्कृत लोकोक्ति | ||
+ | * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय | ||
+ | * दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस | ||
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+ | ===योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है=== | ||
+ | * व्यक्ति की पूजा की बजाय गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो गलत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | ||
+ | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | ||
+ | * अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अफल बुद्धि वाले और अज्ञानी के प्रति की गई भलाई व्यर्थ है। गुण को न समझ सकने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है। ~ अज्ञात | ||
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+ | ===ये तीन दुर्लभ हैं=== | ||
+ | * संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन, दूसरे, सत्य- शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज | ||
+ | * ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं- मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति। ~ शंकराचार्य | ||
+ | * जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है। ~ क्षेमेंद्र | ||
+ | * स्वभावत : कुटिल पुरुष द्वारा किया गया विद्या का अभ्यास दुष्टता को बढ़ाने वाला ही होता है। ~ मुरारि | ||
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+ | ===ये तो पहिए के घेरे के समान हैं=== | ||
+ | * दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास | ||
+ | * इस संसार में दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ | ||
+ | * बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास | ||
+ | * जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। ~ अज्ञात | ||
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+ | ==र== | ||
+ | ===रुपया वापस दिया जा सकता है, लेकिन=== | ||
+ | * जब हम अपने पैर की धूल से भी अधिक अपने को नम्र समझते हैं तो ईश्वर हमारी सहायता करता है। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | * किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन | ||
+ | * दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। ~ प्रेमचंद | ||
+ | * सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड | ||
+ | |||
+ | ===राज्य का अस्तित्व=== | ||
+ | * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू | ||
+ | * विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो। ~ अज्ञात | ||
+ | * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट | ||
+ | * अपनी डिगनिटी को बनाए रखने के लिए मैं सदा संतोष की धूप में खड़ा रहता हूं और स्वयं को इच्छाओं की छाया से दूर रखता हूं। ~ ब्रह्माकुमार | ||
+ | |||
+ | ===राज्य छाते के समान होता है=== | ||
+ | * भयंकर युद्ध में सैकड़ों दुर्जय शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने आप को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है। ~ उत्तराध्ययन | ||
+ | * पहले विद्वता लोगों के क्लेश को दूर करने के लिए थी। कालांतर में वह विषयी लोगों के विषय सुख की प्राप्ति के लिए हो गई। ~ भर्त्तृहरि | ||
+ | * विपत्ति में पड़े मनुष्यों का हित देखने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
+ | * युवकों की उमंगों की वृद्धों से आशा मत करो। क्योंकि नदी का प्रवाहित जल दुबारा नहीं आता। ~ शेख सादी | ||
+ | * बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। ~ प्रेमचंद | ||
+ | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | ||
+ | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
+ | * वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
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+ | ===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ||
+ | * प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। ~ चाणक्य | ||
+ | * राजलक्ष्मी तो सर्प की जिह्वा के समान चंचल होती है। ~ भास | ||
+ | * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू | ||
+ | * वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है। ~ अज्ञात | ||
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+ | ===रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता=== | ||
+ | * गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
+ | * दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात | ||
+ | * भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करनेवाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी | ||
+ | * प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | ||
+ | * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष | ||
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+ | ===रंगना है तो प्रेम-रंग में रंगो=== | ||
+ | * अगर अपने आपको किसी रंग में रंगना है तो प्रेम-रंग में रंग, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है। ~ सनाई | ||
+ | * प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम | ||
+ | * प्रेम के कारण कड़ुवी वस्तुएं मीठी हो जाती हैं। प्रेम के स्वभाव के कारण तांबा सोना बन जाता है। ~ मौलाना रूम | ||
+ | * जहां प्रीति होती है, वहां नीति नहीं ठहरती और जहां नीति होती है, वहां प्रीति नहीं रहती। ~ दयाराम | ||
+ | |||
+ | ===रुपया और भय सगे भाई हैं=== | ||
+ | * अपने उपायों से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष | ||
+ | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर | ||
+ | * पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद | ||
+ | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
+ | * रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई | ||
+ | * धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद | ||
+ | * तुम्हारी जेब में एक पैसा है, वह कहां से और कैसे आया है, वह अपने से पूछो। उस कहानी से बहुत सीखेगे। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | * धन की कमी होने पर कोमलता रहती है, पर उसके बढ़ते ही उसकी जगह कठोरता लेने लगती है। ~ अज्ञात | ||
+ | |||
+ | ==ल== | ||
+ | ===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ||
+ | * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास | ||
+ | * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | ||
+ | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | ||
+ | * ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
+ | * जो भविष्य का भय नहीं करता वही वर्तमान का आनंद ले सकता है। ~ टॉमस फुलर | ||
+ | * वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं, यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
+ | * हर स्थिति नहीं, हर क्षण अनंत मूल्य का है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतिनिधि है। ~ गेटे | ||
+ | * 'आज' निश्चित है, जो 'कल' है, वह अनिश्चित है। ~ शतपथ | ||
+ | |||
+ | ===लक्ष्मी का निवास=== | ||
+ | * उत्साही, आलस्यहीन, बहादुर और पक्की मित्रता निभाने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी निवास करने के लिए स्वयं चली आती है। ~ नारायण पंडित | ||
+ | * परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
+ | * दूसरों के धन का अपहरण करना सबसे बड़ा पाप है। ~ अज्ञात | ||
+ | * जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल | ||
+ | * कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद | ||
+ | |||
+ | ===लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता=== | ||
+ | * इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी | ||
+ | * गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास | ||
+ | * जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि | ||
+ | * मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन | ||
+ | |||
+ | ===लोभ पाप का मूल है=== | ||
+ | * दुख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। ~ हाफिज | ||
+ | * लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय | ||
+ | * हे शक्तिशाली मार्गदर्शक तेरी रक्षण शक्ति और बहु-विधि ज्ञान-शक्ति से तू हमें उत्तम शिक्षा दे। हमें अवगुण, क्षुधा और व्याधि से मुक्त कर। ~ ऋग्वेद | ||
+ | * स्वाभिमानी पुरुष मर मिटता है, पर किसी के सामने दीन नहीं बनता। ~ नारायण पंडित | ||
+ | * अतिशय सम्पन्नता को पाकर भी गर्वरहित सज्जन किसी को थोड़ा भी नहीं भूलता। ~ माघ | ||
+ | |||
+ | ===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है=== | ||
+ | * लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाली है। ~ बल्लाल कवि | ||
+ | * जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम | ||
+ | * प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | ||
+ | * शांतिमय लड़ाई लड़नेवाला जीत से कभी फूल नहीं उठता और न मर्यादा ही छोड़ता है। ~ महात्मा गांधी | ||
+ | |||
+ | ===लोकनिंदा का भय क्यों होना चाहिए और क्यों नहीं=== | ||
+ | * लघुता में प्रभुता का निवास है और प्रभुता, लघुता का भवन है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं भी नहीं पहनता। ~ दयाराम | ||
+ | * लोकनिंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद | ||
+ | * ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
+ | * प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद | ||
+ | * काम करने का इच्छुक किंतु काम पाने में असमर्थ व्यक्ति संभवत: इस विश्व में भाग्य की असमानता द्वारा प्रदर्शित करुणतम दृश्य है। ~ कार्लाइल | ||
+ | |||
+ | ===लज्जा और संकोच करने पर ही शील=== | ||
+ | * ऐसा विनय प्रवंचकों का आवरण है, जिसमें शील न हो। शील तो परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
+ | * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद | ||
+ | * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | ||
+ | * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा करनेवाला अद्भुत कवच है। ~ थेर गाथा | ||
+ | * लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | ||
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२०:०१, १० जनवरी २०१२ का अवतरण
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इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 3, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, अनमोल वचन 8, अनमोल वचन 9, अनमोल वचन 10, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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प
प्रेम के मार्ग में चतुराई बुरी है
- प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज है। ~ मौलाना रूम
- प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट
- हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि
- कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
- राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास
- किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
- वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर
- जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। - जेम्स ऐंथनी फ्राउड
- जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव
- जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी
- जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद
- जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। केवल पुन: किया हुआ पुण्य ही बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास
प्रेम में स्मृति का ही सुख है
- प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। ~ महात्मा गांधी
- जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद
- प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद
- प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल
- प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थ और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थ है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त
- प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम-भाव नहीं, प्रेम सब कुछ सहन करता और मान लेता है। ~ महात्मा गांधी
- प्रेम एक बीज है जो एक बार जम कर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद
प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं है
- हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरु जी
- जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद
- प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त
- प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद
- श्रद्धावान को कोई परास्त नहीं कर सकता। बुद्धिमान को हमेशा पराजय का डर लगा रहता है। ~ महात्मा गांधी
- संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं। ~ अचित्यानंद वर्णी
- यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ रूमी
प्रेम से दास होना, मानो मुक्त होना
- हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरुजी
- जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम
- स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र
प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए
- जितना दिखाते हो उससे अधिक तुम्हारे पास होना चाहिए, जितना जानते हो उससे कम तुम्हें बोलना चाहिए। ~ शेक्सपियर
- बंधन बहुत तरह के हैं, पर प्रेम की डोर से बंध जाना तो कुछ और ही है। ~ अज्ञात
- संसार में स्नेह के बंधनपाश लोहे से भी बढ़कर कठोर होते हैं। ~ बाणभट्ट
- अतिशय प्रेम अनेक बार परिचित वस्तु को भी नया-नया कर देता है। ~ माघ
- प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए। ~ कालिदास
प्रेम का एक कण संसार पर भारी
- नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्धत होता है। ~ नारायण पंडित
- जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद्
- प्रेम का एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार
- सबसे पहले आत्मविश्वास करना सीखो। आत्मविश्वास सरीखा दूसरा कोई मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद
प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है
- सच्ची बड़ाई उसी की है जिसकी शत्रु भी सराहना करें। ~ रहीम
- प्रेम चंद्रमा के समान है। अगर वह बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा। ~ सीगर
- जहां प्रेम और भक्ति नहीं, वहां परमात्मा नहीं। ~ गुरु रामदास
- प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है। ~ शेक्सपियर
- प्रेम वही है जो अपनी शक्ति से अरूप में रूप भर दे। ~ अमृतलाल नागर
प्रेम की शक्ति
- जगत में जो भी उन्नति वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है। दोष बता बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। ~ विवेकानंद
- प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम
- प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय। ~ बंकिमचंद्र
प्रेम के बिना पृथ्वी क़ब्र है
- बिना प्रेम किए मर जाने से ज्यादा दुखद कुछ कोई और नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जिसे आप प्रेम करते हों, उसे बिना यह बताए ही दुनिया से विदा हो जाएं, कि आप उससे प्रेम करते थे। ~ अज्ञात
- प्रेम निकाल दो तो यह पृथ्वी क़ब्र है। ~ रॉबर्ट ब्राउनिंग
- जितनी गहराई, ऊंचाई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं तुमसे प्रेम करती हूं। ~ एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग
- जे दिन गए तुम्हइं बिनु देखे, से बिरंचि मम गिनइ न लेखे। (जो दिन तुम्हें देखे बिना गए, विधाता उन्हें मेरे भाग्य में न गिने।) ~ तुलसी
- हाउ सैड ऐंड बैड ऐंड मैड इट वाज़ बट स्टिल हाउ इट वाज़ स्वीट (कितना बुरा, उदास और पागल नुमाफिर भी कितना मीठा वह एहसास) ~ कोलरिज
प्रेम से शांत होता है वैर
- संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होते। प्रेम से ही वैर शांत होता है। ~ धम्मपद
- तृण वृत्ति वाले मृग, जल वृत्ति वाले मीन और संतोष वृत्ति वाले सज्जनों के भी इस संसार में शिकारी, मछुवा और चुगलखोर बिना कारण के ही वैरी रहते हैं। ~ भर्तृहरि
- व्यंग्य वचन दूसरों का हृदय छेदने में तीर का काम करते हैं। ~ अज्ञात
प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है
- प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन
- सुरूप हो या कुरूप, जिसकी जिसमें मनोगति है, वही उसके लिए उर्वशी है। ~ अतिरात्रयाजी
- परस्पर न मिलते हुए, दूरस्थित प्राणियों में भी स्नेह देखा जाता है, जैसे सूर्य गगन तल में रहता है, परंतु नीचे पृथ्वी पर कमलिनी विकसित होती है। ~ नयनंदी
- प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है। ~ महात्मा गांधी
प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तो
- जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो, तब तुम अपने आप से, एक दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान
- सीखे गए को भूल जाने पर भी जो कुछ बच रहता है, वही शिक्षा है। ~ स्किनर
- सब कुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योग वसिष्ठ
- दूध का आश्रय लेने वाला पानी दूध हो जाता है। ~ विष्णु शर्मा
- वह वैभव, जिसका कभी पतन संभव न हो, साधुओं और फ़कीरों का ही है। ~ हाफिज
- समृद्धि शक्ति भर दुर्गुणों को खोज निकालती है। परंतु विपत्ति शक्ति भर गुणों को खोज निकालती है। ~ बेकन
प्रेमी हृदय उदार होता है
- प्रेमी हृदय उदार होता है, वह दया और क्षमा का सागर है, ईर्ष्या और दंभ के नाले उसमें मिल कर उसे विशाल बना देते हैं। ~ प्रेमचंद
- जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। ~ गांधी
- जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न पाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि
प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है
- प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है। ~ बाणभट्ट
- अतिशय संपन्नता को पाकर भी गर्वरहित लोग किसी को तनिक नहीं भूलते। ~ माघ
- यह स्त्री है, यह पुरुष है- यह निरर्थक बात है। वास्तव में तो सत्पुरुषों का चरित्र ही पूजा योग्य होता है। ~ कालिदास
- सज्जन लोग रत्न पाकर उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने प्रसन्न उस रत्न को किसी निर्लोभ पात्र को देकर होते हैं। ~ भास
- जो धर्माचरण करता है, जीव मात्र के प्रति तितिक्षा रखता है, जो अन्यों से तप्त किए जाने पर भी तप्त नहीं होता, वही मनुष्य श्रेय का पात्र है। ~ मत्स्यपुराण
प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं
- भोग ही प्रेम का प्रधान लक्षण नहीं है। उसका एक प्रधान लक्षण है कि वह आनंद से दुख को स्वीकार कर लेता है क्योंकि दुख और त्याग से ही प्रेम की सार्थकता है। ~ विमल मित्र
- प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं। वह अ-मृत है। ~ उमाशंकर जोशी
- प्रेम किसी को अपने सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने-आपके सिवा कुछ लेता है। ~ खलील जिब्रान
- प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। ~ बंकिमचंद्र
- प्रेम मन की सबसे अच्छी दुर्बलता है। ~ ड्राइडेन
प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है
- चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास
- प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन
- प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी
- जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर
- साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन
पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है
- दूसरों पर दोषारोपण नहीं करोगे तो तुम पर भी दोषारोपण नहीं किया जाएगा। दूसरों पर क्रोध नहीं करोगे तो तुम पर भी क्रोध नहीं किया जाएगा। और दूसरों को क्षमा करोगे तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा। ~ नवविधान
- यदि किसी को दूध नहीं दे सकते, तो मत दो। मगर छाछ देने में क्या हर्ज़ है? यदि किसी भूखे को अन्न देने में समर्थ नहीं हो तो कोई बात नहीं, पर प्यासे को पानी तो पिला सकते हो। ~ तुकाराम
- पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसको स्वीकार कर लिया जाता है। ~ स्वामी विवेकानंद
- असंयमी विद्वान अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी
- यदि तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते, तो जितने हो सकते हो, उतने ही हो जाओ। ~ एमर्सन
पहले जैसी स्थिति
- हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख फरीद
- पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ है। ~ लल्लेश्वरी
- कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन: ये एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते। ~ लोकोक्ति
- राम नाम के बल पर अधर्म मत करो। राम नाम स्मरण के साथ-साथ शुद्ध कर्म भी करना आवश्यक है। ~ एकनाथ
प्रतिभा धैर्य की महान क्षमता मात्र है
- असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा
- जब प्रकृति को कोई महान कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन
- प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ
- प्रतिभा धैर्य की महान क्षमता मात्र है। ~ बफां
- प्रतिभा स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त सांस ले सकती है। ~ जॉन स्टुअर्ट मिल्स
प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता
- प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ
- उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात
- असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा
- प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता। ~ कार्लाइल
प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती
- उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ वल्लभदेव
- प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती। जो परिश्रमी है, वही सब कुछ प्राप्त करता है। ~ महादेवी वर्मा
- वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर स्तुति के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर
- सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात
- जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन
प्रीति नहीं प्रयोजन ने किया बेड़ा गर्क
- आप दूसरों को तभी ऊपर उठा सकते हैं, जब आप स्वयं भी ऊपर उठ चुके हों। ~ शिवानंद
- दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
- प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र
- मानव स्वभाव है, वह अपने सुख को विस्तृत करना चाहता है। और भी, केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है। ~ जयशंकर प्रसाद
'प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय'
- इंद्रिय-जय से विनय प्राप्त होती है, विनय से प्रकृष्ट गुण प्राप्त होते हैं, प्रकृष्ट गुणों से लोकप्रियता प्राप्त होती है और लोकप्रियता से मनुष्य संपत्ति प्राप्त करता है। ~ अलंकारसर्वस्व
- आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत
- 'प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय' है। तप और निश्चय के संयोग से 'प्रायश्चित' होता है। ~ आंगिरसस्मृति
- आरंभ न करना अच्छा है, पर आरंभ करके छोड़ना ठीक नहीं। ~ बोधिचर्यावतार
परोपकार संतों का सहज स्वभाव
- दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते हैं। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर होते रहते हैं। ~ कालिदास
- सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
- परोपकार संतों का सहज स्वभाव है। वे वृक्ष के समान हैं जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ
- दूध से जला हुआ बालक दही को भी फूंक-फूंककर खाता है। ~ अज्ञात
परोपकार से पुण्य होता है
- जिनका मन कपटरहित है, वे ही प्राणिमात्र पर दया करते हैं। ~ क्षेमेंद्र
- दयालु लोगों का शरीर परोपकार से सुशोभित होता है, चंदन से नहीं। ~ भर्तृहरि
- परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। ~ पंचतंत्र
- वृक्ष अपने सिर पर सूर्य की प्रचंड धूप सहता है, किंतु अपने आश्रितों की गर्मी अपनी छाया से दूर करता है। ~ कालिदास
- त्याग ही एकमात्र प्रशंसायोग्य गुण है। अन्य गुणों के समुदाय से क्या प्रयोजन। ~ आचार्य नारायण राम
परोपकार का आचरण मत त्यागो
- मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण
- विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद
- किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे
- परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य
- तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव
- मनुष्य सुख और दुख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। ~ भगवतीचरण वर्मा
- अधिक धनसंपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित रहने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष
- संगीत गले से ही निकलता है, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी
- शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ अज्ञात
परोपकार ही धर्म है
- परोपकार ही धर्म है, परपीड़न ही पाप। ~ विवेकानंद
- छिपाने के द्वारा पाप का पोषण किया जाता है और उसे जीवित रखा जाता है। ~ वर्जिल
- भय और दंड से पाप कभी बंद नहीं होते। ~ रामतीर्थ
- दूसरों के पाप गिनाने से पहले अपने पाप गिनो। ~ काजी नजरुल इस्लाम
परंपरा और विद्रोह
- अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, परायी बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उड़िया लोकोक्ति
- जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर
- जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड
- परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर
- किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी जरूरत पड़ती है। ~ गेटे
परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है
- परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही असली प्रगति है। ~ दिनकर
- परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। ~ राधाकृष्णन
- परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है। ~ विद्यानिवास मिश्र
- आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। ~ धम्मपद
पत्नी और पति
- पति होने की तुलना में प्रेमी होना कहीं आसान है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि हर दिन अक्लमंदी की बात कहना समय-समय पर कुछ प्यारी-प्यारी बातें कहते रहने की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल होता है। ~ बाल्जाक
- हर किसी को देखकर मुस्कराओ। अपनी पत्नी को देखकर, बच्चे को देखकर, एक-दूसरे को देखकर मुस्कराओ, चाहे सामने कोई भी क्यों न हो। इससे आप सभी में एक-दूसरे के प्रति प्यार बढ़ेगा। ~ मदर टेरेसा
- अपनी सर्वोच्च स्थिति में यदि हमें अपनी पत्नी या पति को खोना पड़ता है तो इसमें एक अप्रसन्न विवाह के सिवाय खोने को और कुछ भी नहीं होता। उसे खोकर हम स्वयं को प्राप्त करते हैं। लेकिन कोई विवाह यदि दो ऐसे लोगों के बीच होता है, जो खुद को खोज चुके हैं तो यहां से एक प्यारे से एडवेंचर की शुरुआत होती है, जिसमें हरीकेन वगैरह भी शामिल होते हैं। ~ रिचर्ड बाख
- जब एक स्त्री दूसरा विवाह करती है तो ऐसा वह अपने पहले पति से नफरत की वजह से करती है। जब एक पुरुष दूसरा विवाह करता है तो ऐसा वह अपनी पहली पत्नी को दिलोजान से चाहने की वजह से करता है। स्त्रियां अपनी किस्मत आजमाती हैं, पुरुष अपनी किस्मत दांव पर लगाते हैं। ~ ऑस्कर वाइल्ड
- पति वह है जो प्रेमी के सारे स्नायु निचुड़ जाने के बाद बचा रह जाता है। ~ हेलन रौलां
परिवर्तन ही सृष्टि है
- परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। ~ जयशंकर प्रसाद
- पुरुषार्थ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में है। ~ महात्मा गांधी
- परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद
पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं
- इस संसार को व्यापार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी है। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता हैं। ~ विद्यापति
- सज्जन लोग स्वाभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट
- मेरी भक्तिपूर्ण खोज ने मुझे 'ईश्वर सत्य है' के प्रचलित मंत्र की बजाय 'सत्य ही ईश्वर है' का अधिक गहरा मंत्र दिया है। ~ महात्मा गांधी
- यह सच है कि पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहनेवाले नहीं। मगर ऐसे लोग तैरना भी नहीं सीखते। ~ सरदार पटेल
पढ़ना सीखने का एक तरीका है
- आयु की चिन्ता विद्या नहीं करती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
- पढ़ना सीखने का एक तरीका है, लेकिन व्यवहार करना भी सीखने का एक तरीका है और यह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। ~ माओ त्से तुंग
- जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि
- झूठ से जो पाऊंगा, वह पाना नहीं खोना है और सत्य से जो खोता है, वह खोना नहीं पाना है। ~ विमल मित्र
- यह सच है कि पानी में तैरने वाले ही डूबते हैं, किनारे पर रहने वाले नहीं। मगर यह भी सच है कि किनारे पर रहने वाले कभी तैरना नहीं सीख पाते। ~ वल्लभभाई पटेल
पूजा हमेशा गुण की होती है
- गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं। ठीक वैसे ही जैसे पूर्ण चंद्रमा उतना वंदनीय नहीं है जितना निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। ~ चाणक्य
- जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। ~ भगवान महावीर
- सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले जाते हैं। ~ अज्ञात
प्राप्त धन का उपयोग करने में दो भूलें
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
- मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह गलती कर सकता है। और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी
- मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान
- जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड
पतित होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है
- बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे। ~ जयशंकर प्रसाद
- सद्बुद्धि वाले पुरुष को अल्प सुख एवं अधिक क्लेश वाला कार्य नहीं करना चाहिए। ~ अचिन्त्यानन्द वर्णी
- मरुस्थल की मरीचिका जैसी लक्ष्मी बुद्धिमान को मोहित नहीं कर पाती। ~ सोमदेव
- बुद्धिमान वे हैं, जिनकी दृष्टि में कांच कांच है और मणि मणि। ~ भल्लट भट्ट
- पतित अथवा पथभ्रष्ट होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है। ~ क्षेमेंद्र
प्रसन्न देवता सद्बुद्धि देते हैं
- जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि
- कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, कर्म ही उसे हेय या पूजनीय बनाता है। ~ चाणक्य
- राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू
- देवता प्रसन्न होने पर कुछ नहीं देते, केवल सद्बुद्धि ही प्रदान करते हैं। ~ श्री हर्ष
- राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास
पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए
- ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते। न वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं। इन्हीं लोगों के हाथों ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आंखों से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान बिखेरता है। ~ खलील जिब्रान
- दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं। ~ एडिसन
- यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ-त्से
- दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा गुण है। ~ तुकाराम
- तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर
पाना है, तो देना सीखो
- जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी
- सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। ~ रामचंद्र शुक्ल
- यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ - त्से
प्रतीक्षा भी सेवा
- जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन
- काया के पिंजरे चाहे जितने रंगों के हों, पर मन का पंछी तो सबमें एक ही जैसा है। ~ अमृतलाल नागर
- यदि मन में प्रपंच हो तो मन में भगवान का वास नहीं हो सकता, और यदि मन में भगवान हों तो प्रपंच हो नहीं सकता। ~ दयाराम
- जब तक अन्त:करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। ~ प्रेमचंद
पृथ्वी पर तीन चीजें व्यर्थ हैं
- सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट
- शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि
- वैराग्य के बिना कोई भी अपने संपूर्ण अंत:करण को परोपकार के काम में नहीं लगा सकता। ~ विवेकानंद
- पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं - प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं
- यह संपत्ति क्या है? केवल कुछ चीजें, जिन्हें तुम इस भय से कि इनकी कल तुम्हें जरूरत पड़ सकती है, संचित करते हो और जिनकी रखवाली करते हो। ~ खलील जिब्रान
- मेरे विचार से जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है, वह चिंतन और कर्म द्वारा कदापि महान नहीं बन सकता। ~ सुभाषचंद बोस
- छोटी वस्तुओं का समूह कार्यसाधक होता है। तिनकों से बनी रस्सी से मतवाले हाथी बांध लिए जाते हैं। ~ नारायण पंडित
- कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या
- पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोग ही पाषाण खंडों को रत्नों का नाम देते हैं। ~ चाणक्यनीति
- जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी
पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है
- समय बीतने पर उपार्जित विद्या भी नष्ट हो जाती है, मजबूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर जाते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। लेकिन सत्पात्र दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है। ~ भास
- मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद
- दूसरों की प्राण रक्षा से बढ़कर संसार में कोई पुण्य नहीं है। ~ बाणभट्ट
- पुण्य रूपी वृक्ष में तत्काल ही अचिंतनीय फल उत्पन्न होते हैं। ~ सोमदेव
- पीड़ा का सीमातीत हो जाना ही उसकी चिकित्सा है। जैसे बिंदु का समुद्र में विलीन होना ही उसका सुख व विश्राम पा जाना है। ~ गालिब
पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें
- तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठ पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिजाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम
- तपस्या से लोगों को विस्मित न करें। यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति
- युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडल होम्स
- संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण
- कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा
पीड़ितों की सेवा
- जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे। ~ गौतम बुद्ध
- सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र करती है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, और यही जीवन का लक्ष्य है। ~ स्वामी शिवानंद
- सेवा उसकी करो जिसे सेवा की जरूरत है। जिसे सेवा की जरूरत नहीं उसकी सेवा करना ढोंग है, दंभ है। ~ महात्मा गांधी
- निष्ठावंत और निष्काम सेवा ज्यादा दिन एकाकी नहीं रहने पाती। ~ विनोबा
परिचय के पीछे स्वार्थ न हो
- प्रियतम की स्मृति भक्तों का परम धन है जो ज्ञान उन्हें इस धन से वंचित करता हुआ रस शून्य बनाने की प्रेरणा देता है उनकी दृष्टि में वह सर्वथा घातक है। ~ राम किंकर उपाध्याय
- पराजय से सत्याग्रही और अहिंसक की आत्मा को निराशा नहीं होती। उससे तो कार्य-क्षमता और लगन बढ़ती है और सत्य से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत होकर उसका मार्ग-दर्शन करती है। ~ महात्मा गांधी
- किसी को अपना परिचय देना बुरा नहीं है, बुरा तभी है जब वह किसी स्वार्थ या अहंकार से दिया जाता है। ~ अज्ञात
पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो
- संगीत सिर्फ गले से ही निकलता हो, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी
- पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो। ~ मैथिलीशरण गुप्त
- एक बुराई दूसरी बुराई से उत्पन्न होती है। ~ टेरेंस
- कभी न लौटने वाला समय जा रहा है। ~ अज्ञात
- जितने में पेट भर जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत
- बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी अपने वर्तमान दुखों के लिए रोया नहीं करते, अपितु वर्तमान में दुख के कारणों को रोका करते हैं। ~ शेक्सपियर
पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है
- मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नए-नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद
- जहां किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर तुम कोई पाप करने पर उतारू होते हो, वहीं ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करो। ~ स्वामी रामतीर्थ
- जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वही पाप है। ~ महात्मा गांधी
- पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है। ~ सुदर्शन
पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं
- पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं। ~ अथर्ववेद
- जहां पवित्र बुद्धि होती है, वहां सारी कामनाएं सिद्ध होती हैं। ~ ऋग्वेद
- तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति
पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य बढ़ता है
- भविष्यवाणी करने का एकमात्र मार्ग भविष्य को ढालने की शक्ति से संपन्न होना है। ~ ऐरिक हॉफर
- उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात
- पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास
- धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप
प्रार्थना
- प्रार्थना तभी प्रार्थना है जब वह अपने आप हृदय से निकलती है। ~ महात्मा गांधी
- दान तो वही श्रेष्ठ है जो किसी को दीन नहीं बनाता। दया या मेहरबानी से जो हम देते हैं उसके कारण दूसरे की गर्दन नीचे झुकाते हैं। ~ विनोबा
- क्रोध न करके क्रोध को, भलाई करके बुराई को, दान करके कृपण को और सत्य बोलकर असत्य को जीतना चाहिए। ~ वेदव्यास
- गलती कोई भी मनुष्य कर सकता है परंतु मूर्ख के सिवा कोई उसे जारी नहीं रख सकता। ~ सिसरो
- जिन्हें कहीं से प्रशंसा नहीं मिलती, वे आत्म प्रशंसा करते हैं। ~ अज्ञात
प्रार्थना धर्म का निचोड़ है
- प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। प्रार्थना दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति है, यह हृदय के भीतर चलने वाले अनुसंधानों का नाम है। ~ महात्मा गांधी
- मैं भगवान से अष्टसिद्धि या मोक्ष की कामना नहीं करता। मेरी यही एक प्रार्थना है कि समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित होकर मैं ही उनके समस्त दुखों को सहूं। ~ श्रीमद्भागवत
- बारिश का परिणाम शरीर पर और उसके द्वारा मन पर होता है तो प्रार्थना का परिणाम हृदय के द्वारा आत्मा पर होता है। ~ विनोबा
प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है
- सब जगह पुरुष ही पंडित (बुद्धिमान)नहीं होता। जिस-तिस विषय में विलक्षण स्त्रियां भी पंडित होती हैं। ~ जातक
- निरंतर परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर
- वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गायें परोपकार के लिए दूध देती हैं, यह शरीर परोपकार के लिए ही है। ~ अज्ञात
- जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे दिन हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड
- प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं, हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी
- हमारे भीतर जो प्राण शक्ति है, उसी का नाम अमृत है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल
- जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुसार लक्ष्मी आती है, त्याग के अनुसार कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुसार विद्या प्राप्त होती है और कर्म के अनुसार बुद्धि बनती है। ~ अज्ञात
- वही अच्छी प्रार्थना है जो महान और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ईश्वर ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कॉलरिज
प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है
- मन को विषाद ग्रस्त नहीं बनाना चाहिए। विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ सांप बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद व्यक्ति का नाश कर डालता है। ~ वाल्मीकि
- वृक्ष अपने सिर पर गर्मी सह लेता है लेकिन अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता है। ~ कालिदास
- विपत्ति आती है और चली जाती है, वीर वही है जो धीर रहे और न्याय, सचाई का त्याग न करे। ~ सुदर्शन
- प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है। ~ जयशंकर प्रसाद
प्रत्येक सत्य, ईश्वरीय सत्य है
- जितेंद्रिय पुरुष के मन में विघ्नकर वस्तुएं थोड़ा भी क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकती हैं। ~ कालिदास
- प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ सेंट एम्ब्रोस
- दुराग्रह से ग्रस्त चित्त वालों के लिए सुभाषित व्यर्थ हो जाते हैं। ~ माघ
- जो जाति जितनी ही अधिक सौंदर्य प्रेमी है, उसमें मनुष्यता भी उतनी ही अधिक होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
पड़ोसी भाई से कहीं उत्तम है
- प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
- वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर
- जीवन एक कहानी के सदृश है- वह कितनी लंबी है नहीं, वरन कितनी अच्छी है, यह विचारणीय विषय है। ~ सेनेका
परिश्रमी भाग्य को भी कर देता है परास्त
- शास्त्र को जानने वाला भी जो पुरुष लोक व्यवहार में पटु नहीं होता, वह मूर्ख के समान है। ~ चाणक्यसूत्राणि
- विद्वान तो बहुत होते हैं, पर विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले बहुत कम होते हैं। ~ सरदार वल्लभ भाई पटेल
- संसार में दो ही व्यक्ति दुर्लभ हैं- उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय
- निरंतर अथक परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर
- प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय है। ~ बेकन
परिश्रम के स्वार्जित भोजन से सबसे मधुर
- चाहे सूखी रोटी ही क्यों न हो, परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता। ~ तिरुवल्लुवर
- करुणा करने वालों का शरीर परोपकारों से शोभा पाता है, चंदन से नहीं। ~ भतृहरि
- वृक्ष फल लगने पर झुक जाते हैं। मेघ नए जलों से भरने पर नीचे दूर तक लटक जाते हैं। सत्पुरुष समृद्धियां पाने पर विनम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का यही स्वभाव है। ~ कालिदास
- परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। ~ भारवि
- मनुष्य परिस्थितियों के लिए सृष्टि नहीं है, बल्कि परिस्थितियां मनुष्य के लिए सृष्टि हैं। ~ डिजरायली
- पागल बने बिना कोई महान नहीं हो सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक पागल व्यक्ति महान होता है। ~ सुभाषचंद्र बोस
- उद्यमी व्यक्ति योग्य न हो, तो भी सफलता प्राप्त कर लेता है। ~ अज्ञात
पश्चाताप करने पर पाप मिट जाता है
- पापकर्म हो जाने पर जो सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह मनुष्य उस पाप से छूट जाता है। क्योंकि वह उसे नहीं दोहराने का निश्चय कर लेता है। ~ वेदव्यास
- मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त
- तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे। ~ मनुस्मृति
- निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक
- नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित
फ
फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा
- इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि पाप प्रारब्ध से होते हैं। पाप होते हैं मनुष्य की आसक्ति से। और उनका फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार
- शरीर से तभी पाप होते हैं जब वे मन में होते हैं। छोटे बच्चे के मन में काम नहीं होता। वह युवतियों के वक्ष पर खेलता है, उसके शरीर में कोई विकार नहीं होता। ~ अज्ञात
- संसार में प्राणी स्वतंत्र और स्वाभाविक जीवन व्यतीत करने के लिए आए हैं। उनको स्वार्थ के लिए कष्ट पहुंचाना महान पाप है। ~ लोकमान्य तिलक
- मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंस जाता है, तब वह उसी में और लिपटता जाता है। उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की एक श्रृंखला बन जाती है। फिर उसी के नए - नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद
ब
बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं है
- बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं, उम्र के कारण मिले हुए ज्ञान और चतुराई में भी है। - महात्मा गांधी
- बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है, जिसकी आत्मा पवित्र है वही बड़ा है। - प्रेमचंद
- किसी आदमी की बुराई-भलाई उस समय तक मालूम नहीं होती जब तक कि वह बातचीत न करे। - बालकृष्ण भट्ट
- जो मनुष्य तौल कर बात नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। - शेख सादी
बुराई के बीज
- बुराई के बीज चाहे गुप्त से गुप्त स्थान में बोओ, वह स्थान किले की तरह चाहे सुरक्षित ही क्यों न हो, पर प्रकृति के अत्यंत कठोर, निर्दय, अमोघ, अपरिहार्य क़ानून के अनुसार तुम्हें ब्याज सहित कर्मों का मूल्य चुकाना होगा। ~ स्वामी रामतीर्थ
- सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ~ रामचन्द्र शुक्ल
- मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव समाज पर एक लांछन है। ~ विवेकानंद
- जिस आदमी का मान उसके अपने ख्याल से मर चुका है, वह जितनी हानि अपने को पहुंचा सकता है उतनी दूसरा कोई और नहीं पहुंचा सकता। ~ महात्मा गांधी
बिना विनय के विजय नहीं टिकती
- अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान
- बिना विनय के विजय नहीं टिकती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
- राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास
- मधुर वचन बोलने वालों के पास दारिद्रय कभी नहीं फटकता। ~ तिरुवल्लुवर
- विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह
बिना त्याग के धन की शोभा नहीं
- बिना त्याग के धन की शोभा नहीं होती। ~ अग्नि पुराण
- रक्षा का पहला साधन तो अपने हृदय में पड़ा है। वह है ईश्वर में सरल श्रद्धा, दूसरा है पड़ोसियों की सद्भावना। ~ महात्मा गांधी
- दुखती आंखों वाले को सामने रखी दीपशिखा अच्छी नहीं लगती है। ~ कालिदास
- लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। ~ इतिवुत्तक
- राग मिलाने वाला वासना है और द्वेष अलग करने वाली। ~ रामचंद्र शुक्ल
- मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष
बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है
- दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना। ~ वेदव्यास
- 99 फीसदी अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य खुद को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उसकी कितनी ही भयंकर भूल क्यों न हो। ~ डिजरायली
- बुरा आदमी तब और भी बुरा है जब वह साधु बनने का स्वांग रचता है। ~ बेकन
- शरीर जल से पवित्र होता है, मन सत्य से, आत्मा धर्म से और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है। ~ मनुस्मृति
- परोपकार के लिए कुछ छल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद
बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत करें
- दो बैर करने वालों के बीच में बात ऐसे कहें कि यदि वे मित्र बन जाएं तो आपको लज्जित न होना पड़े। ~ शेख सादी
- कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, पर कटु वचन रूपी बाण नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है। ~ वेदव्यास
- हितकर किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि
- जैसे सत्तू को सूप से परिष्कृत करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपनी बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत कर प्रस्तुत करते हैं। ~ ऋग्वेद
बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है
- जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संगृहित किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं- वहां मानो लक्ष्मी स्वयंमेव आई हुई है। ~ चाणक्यनीति
- बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है। संस्कृति का लक्ष्य पूर्णता है। ज्ञान का लक्ष्य प्रेम है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है। ~ सत्य साईं बाबा
- मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष
- लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य-मार्ग में बाधक है तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद
- वचन का पालन करने वाला कंजूस की भांति तोल कर अपने मुख से शब्द निकालता है। ~ महात्मा गांधी
बुद्धिमान के पास ही बल है
- जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा
- वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र
- जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल
- संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण
- कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
बुद्धिमानों की गलतियां अधिक मार्गदर्शक
- मनुष्य को कभी अपना अनादर नहीं करना चाहिए। जो स्वयं अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास
- जिस प्रकार दीवाल पर फेंकी गेंद अपने ऊपर आ गिरती है उसी प्रकार दूसरे के लिए चाही हुई हानि अपने ऊपर आ पड़ती है। ~ सोमदेव
- भीतर से कुटिल और बाहर से क्षमा-युक्त व्यक्ति निश्चय ही सर्व अनर्थकारी होता है। ~ नारायण पंडित
- जल और अग्नि के समान धर्म और क्रोध का एक स्थान पर रहना स्वभाव-विरुद्ध है। ~ बाणभट्ट
- प्रेम संयम और तप से उत्पन्न होता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की जरूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
- मूर्ख की सफलताओं की अपेक्षा बुद्धिमानों की गलतियां अधिक मार्गदर्शक होती हैं। ~ विलियम ब्लेक
- जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन
बलवान का बल उसकी विनयशीलता
- बलवान का बल उसकी विनयशीलता में है। शत्रुओं को परिवतिर्त करने के लिए बुद्धिमान का शस्त्र यही है। ~ तिरुवल्लुवर
- विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक
- दयालुता से दयालुता का और विश्वास से विश्वास का जन्म होता है। ~ सैमुअल स्माइल्स
- पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल
- समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना व्यर्थ है, धनाढ्यों को दान देना और दिन के समय दीये को जला देना निरर्थक है। ~ चाणक्यनीति
बेवकूफी से अश्रद्धा अच्छी
- अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेकर
- चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ हैं। ~ समर्थ रामदास
- मनुष्य की श्रद्धा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वह मनुष्य की बुद्धि को पैनी और प्रखर बनाती है। जब श्रद्धा अंधी हो जाती है, तब वह मर जाती है। ~ महात्मा गांधी
- मन में प्रसन्नता और बड़ी आकांक्षा पैदा कर देना श्रद्धा की पहचान है। ~ मिलिंदप्रश्न
बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं
- कामों में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, शीघ्रता कार्यविनाशिनी होती है। ~ अज्ञात
- शील की सदृशता पहले कभी न देखे हुए व्यक्ति को भी हृदय के समीप कर देती है। ~ बाणभट्ट
- दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
- बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं। वास्तव में विद्वान वही हैं जो क्रियावान हैं। ~ नारायण पंडित
भ
भलाई का जीवन
- दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम
- नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद
- भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्टल नारायण दासु
- अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना
- जिससे बहुत लोग भयभीत रहते हैं, वह स्वयं भी बहुतों से भयभीत रहता है। ~ पब्लिलियस साइरस
भलाई करने वाला भलाई सिखाता है
- चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास
- प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन
- प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी
- जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर
- साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन
भलाई करो इसी में कल्याण है
- भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्ल नारायण दासु
- अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना
- नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद
- जो मेरे साथ भलाई करता हे वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर
- दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम
भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं
- भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। ~ बाल्मीकि
- भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद
- यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाजा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ
- जो आदर्श हमने सच्चे अंत:करण से बनाया है, मन वचन और काया एक करके जिस आदर्श की सृष्टि की है, वह अवश्य ही हमारे सामने सत्य के रूप में प्रकट होगा। ~ स्वेट मार्डेन
भीतर शांति हो तो संसार शांत दिखाई देता है
- अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवाशिष्ट
- मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ
- संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोष एक के भी होने पर सभी साथियों के हो सकते हैं। ~ भागवत
- जिनके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुखी ही है। ~ वेदव्यास
भूखा मनुष्य
- जो निषिद्ध कर्म का आचरण करते हैं, वे हीनतर होते जाते हैं। ~ तांड्य महाब्राह्मण
- केवल अपनी प्रशंसा करने से मूर्ख जगत में ख्याति नहीं पा सकता। गुफा में छिपे रहने पर भी विद्वान की सर्वत्र प्रसिद्धि होती है। ~ महाभारत
- संपत्ति और विपत्ति में महापुरुषों का व्यवहार एक सा रहता है। सूर्य उदय के समय रक्त वर्ण का होता है और अस्त के समय भी रक्त वर्ण का ही होता है। ~ पंचतंत्र
- अवस्था के अनुरूप ही वेष होना चाहिए। ~ चाणक्यनीति
- भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर सकता? ~ हितोपदेश
भाग्य केवल कल्पना है
- सफलता का पहला सिद्धांत है अनवरत काम। ~ रामतीर्थ
- भाग्य कुछ भी नहीं करता है, यह तो केवल कल्पना है। ~ योग वाशिष्ठ
- जिस वृक्ष की छाया में बैठें अथवा लेटें, उसकी शाखा तक न तोडें। मित्र द्रोह पाप है। ~ जातक
- भाग्य भी वीरों की ही सहायता करता है। ~ टैरेन्स
- जब द्वार पर पूछताछ की मनाही होती है तो खिड़की पर शंका आ खड़ी होती है। ~ बेंजामिन जोवेट
भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं
- भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं। बुद्धिमान तो पुरुषार्थ के द्वारा उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं। ~ योगवासिष्ठ
- मेधावी पुरुष, थोड़ी सी भी आग को फूंक मार कर बढ़ा लेने की भांति, थोड़े से मूल धन से अपने को उन्नत कर लेता है। ~ जातक
- अपने उपाय से ही उपकारी का उपाय करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष
- प्राणी अकेले जन्म लेता है और अकेले मरता है। वह अकेले ही पुण्य और पाप का फल भोगता है। ~ भागवत
- ठीक समय पर प्रारंभ की गई नीतियां अवश्य ही फल प्रदान करती हैं। ~ कालिदास
भाग्य साथ है तो थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल
- भय से तब तक डरना चाहिए जब तक भय नहीं आया। भय उत्पन्न हो जाने पर निर्भीक के समान रहना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार
- भाग्य की कल्पना मूढ़ लो ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवशिष्ठ
- जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी तरह पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। ~ वेदव्यास
- जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति
भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है
- जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी
- हम ऐसा मानने की गलती कभी न करें कि गुनाह में कोई छोटा-बड़ा होता है। ~ महात्मा गांधी
- भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है। ~ जॉनसन
- दूसरे को चुप करने के लिए पहले खुद चुप हो जाओ। ~ सेनेका
- प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त
भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां?
- आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन को गहराइयों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। ~ विवेकानंद
- भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां? ~ माघ
- मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान
- अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित
- न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। ~ चाणक्य नीति
भूतकाल स्वप्न और भविष्यकाल अनुमान
- जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है। ~ वेदव्यास
- जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। ~ आचारांग
- भूतकाल स्वप्न है और भविष्य काल अनुमान है और वह समय जो वर्तमान है, उसे गनीमत समझ। ~ फारसी लोकोक्ति
- सभ्यताओं का जन्म असाधारण रूप से कठिन परिवेशों में होता है, न कि असाधारण रूप से सरल परिवेशों में। ~ आर्नोल्ड टायनबी
- दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग
भगवान तुम्हारे सामने है
- मनुष्य के अंतर में शुभ और अशुभ दोनों तरह की वृत्तियां हैं। लेकिन अंतरतम में तो शुभ ही भरा है। प्रार्थना से उस अंतरतम में प्रवेश होता है। ~ विनोबा
- भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद
- भगवान तुम्हारे सामने है। संसार से पीठ मोड़ो, वह तुम्हें अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। ~ सत्य साईं बाबा
- यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाजा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्र
- जो भलाई से प्रेम करता है वह देवताओं की पूजा करता है। जो आदरणीयों का सम्मान करता है वह ईश्वर की नजदीक रहता है। ~ इमर्सन
भोलेपन के बिना बनावटी है सौंदर्य
- मैं हर बार हारा हूं, फिर भी मैं विजय के लिए जन्मा हूं। ~ एमर्सन
- डूबते सूरज के प्रति लोग अपने द्वार बंद कर लेते हैं। ~ शेक्सपियर
- जिस सौंदर्य में भोलेपन की झलक नहीं, वह बनावटी सौंदर्य है। ~ बालकृष्ण भट्ट
- अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास
- मंगलमयी कोमल वाणी वाला मनुष्य प्राणियों को आनंदित करता है। ~ अज्ञात
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मनुष्य की चाहत
- एकाएक बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए। सम्यक विचार न करना परम आपत्ति का उत्पादक होता है। गुण के ऊपर अपने आप को समर्पण करने वाली संपत्तियां विचारवान पुरुष को स्वयं मनोनीत करती हैं। ~ भारवि
- मनुष्य जितना चाहता है, उतनी ही उसकी प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती जाती है। अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार कर के उसकी गुलामी करना ही कायरपन है। ~ शरतचंद्र
- जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं करता उसकी चित्त-शुद्धि होती जाती है। उसका काम सहज ही परमशक्ति को अर्पण हो जाता है। ~ विनाबा भावे
- कार्य उसी का सिद्ध होता है जो समय को विचार कर कार्य करता है। वह खिलाड़ी कभी नहीं हारता जो दांव पर विचार कर खेलता है। ~ वृंद
मनुष्य परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर
- ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि
- प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद
- मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद
- मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है। ~ वेदव्यास
मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देने वाले से भी प्रेम करे
- कोई भीतरी कारण ही पदा को परस्पर मिलाता है, बाहरी गुणों पर प्रीति आश्रित नहीं होती। ~ भवभूति
- ऐच्छिक प्रेम उत्तम है, परंतु बिना याचना के दिया हुआ प्यार बेहतर है। ~ शेक्सपियर
- प्रेम हमें अपने पड़ोसी या मित्र पर ही नहीं बल्कि जो हमारे शत्रु हों, उन पर भी रखना है। ~ महात्मा गांधी
- मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देनेवाले से भी प्रेम करे। ~ मारकस आंटोनियस
- जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय
मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है
- जो वस्तु अपनी रक्षा के लिए (उपयोगी) समझी जाती है, भाग्यवश उसी से व्यक्ति का नाश भी होता है। ~ कल्हण
- संकटों से घृणा की जाए, तो वे बड़े हो जाते हैं। ~ एडमंड बर्क
- शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन:-पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार
- मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर
- सहयोग प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है। ~ रामतीर्थ
मनुष्य अकेला आता है
- मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण
- परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य
- तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव
- किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे
- विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेम चंद
मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है
- जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास
- हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। ~ वाल्मीकि
- मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं
- मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह गलती कर सकता है और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी
- मेरी सम्मति में इंसान 3 प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान
- जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड
- जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत
मनुष्य गोत्र और धन से शुद्ध नहीं होता
- सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि
- शांति की अपनी विजयें होती हैं, जो युद्ध की अपेक्षा कम कीर्तिमयी नहीं होतीं। ~ मिल्टन
- कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय
- किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद्
मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए
- जो दूसरों में दोष निकालते हैं, वे अपने दोषों से अनभिज्ञ रहते हैं। ~ वेमना
- धन तो असमय के मेघ के समान अकस्मात आता है और चला जाता है। ~ सोमदेव
- किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे
- यदि पर्वत भी वृक्ष के समान आंधी में हिल उठे, तो उन दोनों में अंतर ही क्या रहा? ~ कालिदास
- यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल
- जहां धन होता है, वहां त्याग-बुद्धि नहीं होती है। जहां शौर्य होता है, वहां विवेक शून्य होता है। ~ पानुगंटि
मनुष्य के दुख से दुखी होना ही सच्चा सुख है
- पार्थिव सुख ही एक मात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद
- निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निभर्य होकर रहना- ये मनुष्य के सुख हैं। ~ वेदव्यास
- दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दुख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग
- मनुष्य के दुख से दुखी होना ही सच्चा सुख है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता
- मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्पन्न हुआ है, उसका अनुसरण करने के लिए नहीं। ~ विवेकानंद
- मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता, अपितु विश्वास, प्रशंसा व सहानुभूति से जीता है। ~ एमर्सन
- उचित पाबंदी को निभाकर चलना उतना ही कल्याणकारी है, जितना अनुचित पाबंदी को तोड़कर चलना। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
- धूल अपमानित की जाती है किंतु बदले में वह अपने फूलों की ही भेंट देती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
मन नहीं मरता तो माया नहीं मरती
- जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक
- जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। ~ टेनिसन
- अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव
- जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
मन से सत्य शुद्ध होता है
- जल से शरीर शुद्ध होता है, मन से सत्य शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति
- कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय
- शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार
- शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता हे और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेदव्यास
मन को शुभ संकल्प बनाओ
- आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार बिना चाहे प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत
- इंद्रियों पर विजय पाने से विनय प्राप्त होता है, विनय से गुण, गुणों से लोकप्रियता और लोकप्रियता से धन की प्राप्ति होती है। ~ अलंकारसर्वस्व
- जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुरूप धन की प्राप्ति होती है। त्याग के अनुरूप ही कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुरूप विद्या की प्राप्ति होती है और कर्म के अनुरूप बुद्धि। ~ अज्ञात
- हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋगवेद
- विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात
- सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष
- वही मनुष्य महान है जो भीड़ की प्रशंसा की उपेक्षा कर सकता है और उसकी कृपा से स्वतंत्र रहकर प्रसन्न रहता है। ~ एडीसन
- हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के कागज की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम
मान-बड़ाई मीठी छुरी है
- प्रशंसा कीजिए जब हम दौड़ें, सांत्वना दीजिए जब हम गिरें, प्रोत्साहित कीजिए जब हमारा पुनरुत्थान हो, किंतु भगवान के लिए हमें बढ़ने दीजिए। ~ एडमंड बर्क
- देते हुए पुरुषों का धन क्षीण नहीं होता। दान न देने वाले पुरुष को अपने प्रति दया करने वाला नहीं मिलता। ~ ऋग्वेद
- तुम्हें जो दिया वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर
- ईश्वर के सामने सिर झुकाने से ही क्या बनता है, जब हृदय अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक
- मान-बड़ाई मीठी छुरी है। विष भरा सोने का घड़ा है। ~ शिव
- अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उडि़या लोकोक्ति
मुहब्बत रूह की खुराक
- मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह जिंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। ~ प्रेमचंद
- प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है। न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है। ~ महात्मा गांधी
- प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद
- प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद शुक्ल
- कैसा अचरज है कि मैं न जान पाया कभी/ मेरे चित्त में ही छिपा मेरा चित चोर है। ~ ठाकुर गोपालशरण सिंह
महान कार्य के लिए शत्रुओं से भी संधि कर लें
- विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी
- दूसरों को दुख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात
- किसी महान कार्य को करने के प्रसंग में शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। ~ भागवत
- विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण
महान वह है, जो गलत रास्ते से लौट सके
- जो प्रकृति से ही महान हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। ~ चाणक्य
- संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा
- विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक
- मैं महान उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त
महानता जिस क्षुद्रता में पलती है
- महत्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है। ~ जयशंकर प्रसाद
- महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव
- यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से
- ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ महान उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योगवशिष्ठ
मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं
- निरंतर अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर
- परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ सोमदेव
- परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
- जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ बिशप रिचर्ड कंबरलैंड
मनोरम बात दुर्लभ होती है
- हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद
- हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
- शील ही विद्वानों का धन है। ~ सोमदेव
- खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र
माया नहीं मरती
- अच्छी संतान इस लोक और परलोक, दोनों में सुख देती है। ~ कालिदास
- मेरे मन के संकल्प पूर्ण हों। मेरी वाणी सत्य व्यवहार वाली हो। ~ यजुर्वेद
- अपने अहंकार पर विजय पाना ही प्रभु की सेवा है। ~ गांधी
- किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे
- जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक
मित्र और शत्रु तो बनाने से बनते हैं
- न कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। संसार में व्यवहार से ही लोग मित्र और शत्रु होते रहते हैं। ~ नारायण पंडित
- यदि मैं अपनी चिंता न करूं, तो और कौन करेगा? किंतु यदि मैं केवल अपनी ही चिंता करूं तो मेरा अस्तित्व ही किसलिए है? ~ मैक्सिम गोर्की
- विवेकहीन बल काल के समुद्र में डोंगी की भांति डूब जाता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
- प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र
मिल गया उस पर संतोष करो
- संतुष्ट मन वाले के लिए सभी दिशाएं सदा सुखमयी हैं, जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और कांटे आदि से दुख नहीं होता। ~ भागवत
- जो कुछ तुम्हें मिल गया है, उस पर संतोष करो और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करो। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज
- जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है। ~ उदान
मेरा मुकुट मेरे हृदय में है
- दिन बीत जाने पर रात्रि की प्रतीक्षा की जाती है। कुशलपूर्वक प्रभात होने पर फिर दिन की चिंता होती है। भविष्य के अनिष्टों की चिंता करने वालों को शांति तो बीते समय का स्मरण करके ही मिलती है। ~ भास
- राजन, यद्यपि कहीं-कहीं शीलहीन मनुष्य भी राज्य लक्ष्मी प्राप्त कर लेते हैं, तथापि वे चिरकाल तक उसका उपभोग नहीं कर पाते और मूल सहित नष्ट हो जाते हैं। ~ वेदव्यास
- इस संसार में दो तरह के व्यक्ति दुर्लभ हैं, कौन से दो? उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय
- मेरा मुकुट मेरे हृदय में है, न कि मेरे सिर पर। मेरा मुकुट न तो हीरों से जटित है और न ही रत्नों से। मेरा मुकुट दिखाई भी नहीं देता है। मेरे मुकुट का नाम है 'संतोष' और राजा लोग कदाचित ही इसे धारण करते हैं। ~ शेक्सपियर
- देखादेखी करत सब, नाहिंन तत्व बिचारि। याकौ यह अनुमान है, भेड़ चाल संसार।। ~ वृन्द
मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है
- भाग्य पर भरोसा रखकर बैठने वाले आलसी मनुष्यों को त्याग कर लक्ष्मी सदा परिश्रम करने में तत्पर लोगों को खोज कर उनका वरण कर लेती है। ~ मत्स्यपुराण
- उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है, मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण
- यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल
- पहले स्वयं पुरुषार्थ करो, फिर भगवान को पुकारो। ~ यूरोपिडीज
- सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूं। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है। ~ जयशंकर प्रसाद
मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है
- मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य
- जिस देह से श्रम नहीं होता, पसीना नहीं निकलता, सौंदर्य उस देह को छोड़ देता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
- दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी
- यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान
- समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि
मुक्ति शून्यता में नहीं, पूर्णता में है
- धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर
- मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान- यही सज्जनों का धर्म है। ~ वेदव्यास
- पहले स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए, भगवान भी तभी मददगार होते हैं। ~ यूरीपिडीज़
- मुक्ति शून्यता में नहीं, पूर्णता में है। पूर्णता सृष्टि करती है, ध्वंस नहीं। ~ रवीन्द्रनाथ टैगोर
मोह, लोभ का मूल है
- मोह, लोभ का मूल है। लोभ, द्वेष का मूल है, और द्वेष पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय
- जिस विचार का सही समय आ जाता है, उसकी ताकत के आगे कोई सेना नहीं ठहर सकती। ~ विक्टर ह्यूगो
- लोगों की धर्म तथा अधर्म की प्रवृत्ति में कारण राजा ही होता है। ~ शुक्रनीति
- समय रूपी अमृत बहता जा रहा है, संभव है प्यास बुझाने का अवसर तुम्हें फिर न मिले। ~ शंकर कुरुप
- गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। ~ भगिनी निवेदिता
मोह प्रतिदान चाहता है
- प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त
- विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी
- माया सबको मोहित करती है, परंतु भगवान के भक्त से वह हारी हुई है। ~ अज्ञात
- शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किसके लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेद व्यास
- जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद
मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है
- प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी
- वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कालरिज
- जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति
- मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास
- यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन नहीं हुई है तो तुम कदापि दूसरों के हृदय प्रभावित नहीं कर सकते। ~ गेटे
- प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता। ~ जयशंकर प्रसाद
- मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास
- बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर स्तुति के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर
- सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ- पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात
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यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण
- मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात
- हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए जो स्वयं ही नहीं अपने आसपास को भी प्रकाशित करती है। ~ महात्मा गांधी
- सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। ~ ऋगवेद
- यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण। ~ रामचंद्र शुक्ल
- श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा-भर बन सकता है। ~ अज्ञेय
- चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास
- अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेलकर
योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता
- योग्य व्यक्ति से किसका काम पूरा नहीं होता। ~ माघ
- शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ महात्मा गांधी
- मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। ~ वेदव्यास
- अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास
- साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद
योग्यता और व्यक्तित्व
- न कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु। संसार में व्यवहार से ही लोग मित्र और शत्रु होते हैं। ~ नारायण पंडित
- किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू
- योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
- दीपक के नीचे का अंधकार दूर करने के लिए दूसरा दीपक जलाने का प्रयत्न करना चाहिए। ~ संस्कृत लोकोक्ति
- किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय
- दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस
योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है
- व्यक्ति की पूजा की बजाय गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो गलत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी
- योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
- पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल
- अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अफल बुद्धि वाले और अज्ञानी के प्रति की गई भलाई व्यर्थ है। गुण को न समझ सकने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है। ~ अज्ञात
ये तीन दुर्लभ हैं
- संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन, दूसरे, सत्य- शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज
- ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं- मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति। ~ शंकराचार्य
- जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है। ~ क्षेमेंद्र
- स्वभावत : कुटिल पुरुष द्वारा किया गया विद्या का अभ्यास दुष्टता को बढ़ाने वाला ही होता है। ~ मुरारि
ये तो पहिए के घेरे के समान हैं
- दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास
- इस संसार में दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ
- बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास
- जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। ~ अज्ञात
र
रुपया वापस दिया जा सकता है, लेकिन
- जब हम अपने पैर की धूल से भी अधिक अपने को नम्र समझते हैं तो ईश्वर हमारी सहायता करता है। ~ महात्मा गांधी
- किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन
- दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। ~ प्रेमचंद
- सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड
राज्य का अस्तित्व
- राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू
- विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो। ~ अज्ञात
- जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
- अपनी डिगनिटी को बनाए रखने के लिए मैं सदा संतोष की धूप में खड़ा रहता हूं और स्वयं को इच्छाओं की छाया से दूर रखता हूं। ~ ब्रह्माकुमार
राज्य छाते के समान होता है
- भयंकर युद्ध में सैकड़ों दुर्जय शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने आप को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है। ~ उत्तराध्ययन
- पहले विद्वता लोगों के क्लेश को दूर करने के लिए थी। कालांतर में वह विषयी लोगों के विषय सुख की प्राप्ति के लिए हो गई। ~ भर्त्तृहरि
- विपत्ति में पड़े मनुष्यों का हित देखने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक
- युवकों की उमंगों की वृद्धों से आशा मत करो। क्योंकि नदी का प्रवाहित जल दुबारा नहीं आता। ~ शेख सादी
- बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। ~ प्रेमचंद
- राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास
- विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह
- वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति
राजलक्ष्मी तो चंचल होती है
- प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। ~ चाणक्य
- राजलक्ष्मी तो सर्प की जिह्वा के समान चंचल होती है। ~ भास
- राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू
- वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है। ~ अज्ञात
रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता
- गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष
- दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात
- भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करनेवाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी
- प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास
- शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष
रंगना है तो प्रेम-रंग में रंगो
- अगर अपने आपको किसी रंग में रंगना है तो प्रेम-रंग में रंग, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है। ~ सनाई
- प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम
- प्रेम के कारण कड़ुवी वस्तुएं मीठी हो जाती हैं। प्रेम के स्वभाव के कारण तांबा सोना बन जाता है। ~ मौलाना रूम
- जहां प्रीति होती है, वहां नीति नहीं ठहरती और जहां नीति होती है, वहां प्रीति नहीं रहती। ~ दयाराम
रुपया और भय सगे भाई हैं
- अपने उपायों से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष
- धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर
- पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद
- मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद
- रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई
- धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद
- तुम्हारी जेब में एक पैसा है, वह कहां से और कैसे आया है, वह अपने से पूछो। उस कहानी से बहुत सीखेगे। ~ महात्मा गांधी
- धन की कमी होने पर कोमलता रहती है, पर उसके बढ़ते ही उसकी जगह कठोरता लेने लगती है। ~ अज्ञात
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लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है
- मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास
- आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति
- वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली
- ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन
- जो भविष्य का भय नहीं करता वही वर्तमान का आनंद ले सकता है। ~ टॉमस फुलर
- वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं, यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी
- हर स्थिति नहीं, हर क्षण अनंत मूल्य का है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतिनिधि है। ~ गेटे
- 'आज' निश्चित है, जो 'कल' है, वह अनिश्चित है। ~ शतपथ
लक्ष्मी का निवास
- उत्साही, आलस्यहीन, बहादुर और पक्की मित्रता निभाने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी निवास करने के लिए स्वयं चली आती है। ~ नारायण पंडित
- परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी
- दूसरों के धन का अपहरण करना सबसे बड़ा पाप है। ~ अज्ञात
- जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल
- कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद
लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता
- इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी
- गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास
- जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि
- मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन
लोभ पाप का मूल है
- दुख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। ~ हाफिज
- लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय
- हे शक्तिशाली मार्गदर्शक तेरी रक्षण शक्ति और बहु-विधि ज्ञान-शक्ति से तू हमें उत्तम शिक्षा दे। हमें अवगुण, क्षुधा और व्याधि से मुक्त कर। ~ ऋग्वेद
- स्वाभिमानी पुरुष मर मिटता है, पर किसी के सामने दीन नहीं बनता। ~ नारायण पंडित
- अतिशय सम्पन्नता को पाकर भी गर्वरहित सज्जन किसी को थोड़ा भी नहीं भूलता। ~ माघ
लोभ ही पाप की जन्मस्थली है
- लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाली है। ~ बल्लाल कवि
- जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम
- प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण
- शांतिमय लड़ाई लड़नेवाला जीत से कभी फूल नहीं उठता और न मर्यादा ही छोड़ता है। ~ महात्मा गांधी
लोकनिंदा का भय क्यों होना चाहिए और क्यों नहीं
- लघुता में प्रभुता का निवास है और प्रभुता, लघुता का भवन है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं भी नहीं पहनता। ~ दयाराम
- लोकनिंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद
- ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन
- प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद
- काम करने का इच्छुक किंतु काम पाने में असमर्थ व्यक्ति संभवत: इस विश्व में भाग्य की असमानता द्वारा प्रदर्शित करुणतम दृश्य है। ~ कार्लाइल
लज्जा और संकोच करने पर ही शील
- ऐसा विनय प्रवंचकों का आवरण है, जिसमें शील न हो। शील तो परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। ~ जयशंकर प्रसाद
- वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद
- जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति
- शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा करनेवाला अद्भुत कवच है। ~ थेर गाथा
- लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग
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टीका टिप्पणी और संदर्भ