श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-13  

द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

राज्य, युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय—नाम संकीर्तन श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझ पर विजय प्राप्त करने के लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है—“कितने आश्चर्य की बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौत के खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं । राजाओं से यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्यर्थ में ही मुझे जीतने की कामना करते हैं। सचमुच इस कामना से अंधे होने के कारण ही वे पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर शरीर पर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं । वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मन के सहित अपनी पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करेंगे—अपने भीतरी शत्रुओं को अश में करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओं को जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रु के मन्त्रियों, अत्मात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेना को भी वश में कर लेंगे। जो भी हमारे विजय-मार्ग में काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे । इस प्रकार धीरे-धीरे क्रम से सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्य की खाईं का काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मन में अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिर पर काल सवार हैं । यही तक नहीं, जब एक द्वीप उनके वश में हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीप पर विजय करने के लिये बड़ी शक्ति और उत्साह के साथ समुद्र यात्रा करते हैं। अपने मन को, इन्द्रियों को वश में करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वश में करके भी थोडा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसयंम का यह कितना तुच्छ फल है!’’ । परीक्षित्! पृथ्वी कहती है कि कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँ से आये थे, वहीं ख़ाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्ध में जीतकर वश में करना चाहते हैं । जिनके चित्त में यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टों के राज्य में मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपस में लड़ बैठते हैं । वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजा लोग एक-दूसरे को कहते-सुनते हैं, एक-दूसरे से स्पर्द्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरे को मरते हैं और स्वयं मर मिटते हैं । पृथु, पुरुरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्त्राबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, कुकुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभी ने दिग्विजय में दूसरों को हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्यु के ग्रास बन गये। राजन्! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरण से मुझसे ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है।’ परन्तु विकराल काल ने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदि का कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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