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श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 17-35  

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द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

शौनकादि ऋषियों! छठे स्कन्ध में ये विषय आये हैं—प्रचेताओं से दक्ष की उत्पत्ति; दक्ष-पुत्रियों की सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियों का जन्म-कर्म; वृत्रासुर की उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्ध के विषय बतलाये जाते हैं—) इस स्कन्ध में मुख्यतः दैत्यराज्य हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लाद के उत्कृष्ट चरित्र का निरूपण है । आठवें स्कन्ध में मन्वन्तरों की कथा, गजेन्द्र मोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरों में होने वाले जगदीश्वर भगवान विष्णु के अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्यों का समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयों का वर्णन है। नवें स्कन्ध में मुख्यतः राजवंशों का वर्णन है। इक्ष्वाकु के जन्म-कर्म, वंशविस्तार, महात्मा सुद्दुम्न, इला एवं तारा के उपाख्यान—इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्य वंश का वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओं का वर्णन, सुकन्या का चरित्र, शर्याति, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान कुकुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान राम के सर्वपापहारी चरित्र वर्णन भी इसी स्कन्ध में है। तदनन्तर निमि का देह त्याग—और जनकों की उत्पत्ति का वर्णन है । भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजी का क्षत्रिय संहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरुरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदि की संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्ध में ही हैं। सबके अन्त में ययाति के बड़े लड़के यदु का वंशविस्तार कहा गया है । शौनकादि ऋषियों! इसी यदुवंश में जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्ध में उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से उनका जन्म हुआ। गोकुल में नन्दबाबा के घर जाकर बढ़े। पूतना के प्राणों को दूध के साथ पी लिया। बचपन में ही छकड़े को उलट दिया । तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुर को पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुर को मार डाला । दावानल से घिरे गोपों की रक्षा की। कालिय नाग का दमन किया। अजगर से नन्दबाबा को छुड़ाया । इसके बाद गोपियों ने भगवान को पतिरूप से प्राप्त करने के लिये व्रत किया और भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान ने यज्ञपत्नियों पर कृपा की। उनके पत्नियों—ब्राम्हणों को बड़ा पश्चात् हुआ । गोवर्द्धन धारण की लीला करने पर इन्द्र और कामधेनु ने आकर भगवान का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतु की रात्रियों में व्रजसुन्दरियों के साथ रास-क्रीड़ा की । दुष्ट शंखचूड, अरिष्ट, और केशी के वध की लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरा से वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी ने मथुरा के लिये प्रस्थान किया । उस प्रसंग पर व्रजसुन्दरियों ने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्याम ने मथुरा में जाकर वहाँ की सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदि का संहार किया । सान्दीपनि गुरु के यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्र को लौटा लाये। शौनकादि ऋषियों! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजी के साथ यदुवंशियों का सब प्रकार से प्रिय और हित किया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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