श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 83 श्लोक 33-43  

दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितमोऽध्यायः(83) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितमोऽध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद


पर रानीजी! दारुक ने सोने के साज-सामान से लदे हुए रथ को सब राजाओं के सामने ही द्वारका के लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनियों के बीच से अपना भाग ले जाय । उनमें से कुछ राजाओं ने धनुष लेकर युद्ध के लिये सज-धजकर उद्देश्य से रास्ते में पीछा किया की हम भगवान को रोक लें; परन्तु रानीजी! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंह को रोकना चाहें । शारंगधनुष के छूटे हुए तीरों से किसी की बाँह कट गयी तो किसी के पैर कटे और किसी की गर्दन ही उतर गयी। बहुत-से लोग तो उस रणभूमि में ही सदा के लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए । तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान ने सूर्य की भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वी में सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरी में प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूप से सजायी गयी थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे की उनके कारण सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं आ पाता था । मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से पिताजी को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी-सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओं को बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकार की सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया । भगवान परिपूर्ण हैं—तथापि मेरे पिताजी ने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकार की सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत-से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये । रानीजी! हमने पूर्वजन्म में सबकी आसक्ति छोड़कर कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्म में आत्माराम भगवान की गृह-दासियाँ हुई हैं । सोलह हजार पत्नियों की ओर से रोहिणीजी ने कहा—भौमासुर ने दिग्विजय के समय बहुत-से राजाओं को जीतकर उनकी कन्या हम लोगों को अपने महल में बंदी बना रखा था। भगवान ने यह जानकर युद्ध में भौमासुर और उसकी सेना का संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होने पर भी उन्होंने हम लोगों को वहाँ से छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी! हम सदा-सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलों का चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसार से मुक्त करने वाले हैं । साध्वी द्रौपदीजी! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनों के भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रम्हा का पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारुप्य आदि मुक्तियाँ—कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं की अपने प्रियतम प्रभु के सुकोमल चरणकमलों की वह श्रीरज सर्वदा अपने सिर पर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजी के वक्षःस्थल पर लगी हुई केशर की सुगन्ध से युक्त है । उदारशिरोमणि भगवान के जिन चरणकमलों का स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिनके और घास लताएँ तक करना चाहतीं थीं, उन्हीं की हमें भी चाह है ।




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