श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 82 श्लोक 39-46  

दशम स्कन्ध: द्वयशीतितमोऽध्यायः(82) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितमोऽध्यायः श्लोक 39-46 का हिन्दी अनुवाद


देवि! जिस बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने माँ-बाप को देखा तक न था और उनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं। तथा आप लोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मंगल के लिये अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके माँ-बाप आप ही लोग हैं। आप लोगों की देख-रेख में इन्हें किसी की आँच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आप लोगों के अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आप लोग परम संत हैं । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं कह चुका हूँ की गोपियों के परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शन के समय नेत्रों की पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकों को बनाने वाले को ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेम की मूर्ति गोपियों को आज बहुत दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ। उनके मन में इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रों के रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को हृदय में ले जाकर गाढ़ आलिंगन किया और मन-ही-मन आलिंगन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित्! कहाँ तक कहूँ, वे उस भाव को प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करने वाले योगियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है । जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा की गोपियाँ मुझसे तादात्म्य को प्राप्त—एक हो रही हैं, तब वे एकान्त में उनके पास गये, उनको हृदय से लगाया, कुशल-मंगल पूछा और हँसते हुए यों बोले— ‘सखियों! हम लोग अपने स्वजन-सम्बन्धियों का काम करने के लिये व्रज से बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियों को छोड़कर हम शत्रुओं का विनाश करने में उलझ गये। बहुत दिन बीत गए, क्या कभी तुम लोग हमारा स्मरण भी करती हो ? । मेरी प्यासी सखियों! कहीं तुम लोगों के मन में यह आशंका तो नहीं हो गयी है की मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुम लोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो ? निस्सन्देह भगवान ही प्राणियों के संयोग और वियोग के कारण हैं । जैसे वायु बादलों, तिनकों, रुई और धूल के कणों को एक-दूसरे से मिला देती है और फिर स्वच्छन्दरुप से उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थों के निर्माता भगवान भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं । सखियों! यह बड़े सौभाग्य की बात है की तुम सब लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियों को अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करने में समर्थ है । प्यारी गोपियों! जैसे घट, पट आदि जतने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्य में, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीच में, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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