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श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 71 श्लोक 14-25  

दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः(71) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलों की बड़ी भारी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदंग, नगारे, ढोल, शंख और नरसिंगों की ऊँची ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं

सती शिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्त्रों श्रीकृष्ण पत्नियाँ अपनी सन्तानों के साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण चन्दन, अंगराग और पुष्पों के हार आदि से सज-धजकर डोलियों, रथों और सोने की बनी हुई पालकियों में चढ़कर अपने पतिदेव भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे । इसी प्रकार अनुचरों की स्त्रियाँ और वारांगनाएँ भलीभाँति श्रृंगार करके खस आदि की झोपड़ियों, भाँति-भाँति के तबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढ़ने-बिछाने आदि की सामग्रियों को बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरों पर लादकर तथा पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियों पर सवार होकर चलीं । जैसे मगरमच्छों और लहरों की उछल-कूद से क्षुब्ध समुद्र की शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहल से परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूणों, मुकुटों, कवचों और दिन के समय उन पर पड़ती हुई सूर्य की किरणों से भगवान श्रीकृष्ण की सेना अत्यन्त शोभायमान हुई । देवर्षि नारदजी भगवान श्रीकृष्ण से सम्मानित होकर और उनके निश्चय को सुनकर प्रसन्न हुए। भगवान के दर्शन से उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्द में मग्न हो गयीं। विदा होने के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनका नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजन किया। अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण करके आकाश-मार्ग से प्रस्थान किया । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियों के दूत को अपनी मधुर वाणी से आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत! तुम अपने राजाओं से जाकर कहना—डरो मत! तुम लोगो का कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा’ । भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियों को भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटने के लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान के शुभ दर्शन की बाट जोहने लगे ।

परीक्षित्! अब भगवान श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरू, कुरुक्षेत्र और उनके बीच में पड़ने वाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरों की बस्तियाँ तथा खानों को पार करते हुए आगे बढ़ने लगे ।

भगवान मुकुन्द मार्ग में दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पांचाल और मत्स्य देशों में होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला कि भगवान श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियों के साथ भगवान की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर आये । मंगल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वरसे वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदर से हृषीकेश भगवान का स्वागत करने के लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राण से मिलने जा रही हों । भगवान श्रीकृष्ण को देखकर राजा युधिष्ठिर का हदय स्नेहातिरेक से गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनों पर अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण को देखऩे का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदय से लगाने लगे ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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