श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 1-11  

दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः (60) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियों के साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं । परीक्षित्! जो सर्वशक्तिमान् भगवान खेल-खेल में ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं—वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करने के लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं। रुक्मिणीजी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिनमें मोतियों की लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे । बेला-चमेली के फूल और हार महँ-महँ महँक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौरें गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्रमा की शुभ्र किरणें कमल के भीतर छिटक रही थीं । उद्यान में पारिजात के उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों में से अगर के धूप का धुआँ बाहर निकल रहा था । ऐसे महल में दूध के फेन के समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनों से युक्त सुन्दर पलँग पर भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकी के स्वामी को पतिरूप में प्राप्त करके उसकी सेवा कर रही थीं । रुक्मिणीजी ने अपनी सखी के हाथ से वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नों की डांडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान की सेवा करने लगीं । उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणों में मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अंचल के नीचे छिपे हुए स्तनों की केशर की लालिमा से हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभाग में बहुमूल्य करधनी की लड़ियाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान के पास ही रहकर उनकी सेवा में संलग्न थीं । रुक्मिणीजी की घुँघराली अलकें, कानों के कुण्डल और गले के स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्र से मुसकराहट की अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान ने लीला के लिये मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेम से मुस्कराहते हुए उनसे कहा ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालों के समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बल में भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे । तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हीं के साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरों को, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्ति को, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया ?



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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