श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 57 श्लोक 29-42  

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दशम स्कन्ध: सप्तपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (57) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 29-42 का हिन्दी अनुवाद

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित् के वध के लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए । परीक्षित्! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तों से बार-बार वहाँ के नागरिकों को शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय । उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा—‘एक बार काशी-नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सुखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता स्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी स्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित्! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि ‘इस उपद्रव का यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूरजी को ढूँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की । भगवान ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा— ‘चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है । आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लड़की के लड़के—उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे । इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिये उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे समाने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते । इसलिये महाभाग्यवान् अकूरजी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्र—बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोने की वेदियाँ बनती हैं’ । परीक्षित्! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी । भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास में रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूरजी को लौटा दिया ।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढता, सुनता और समरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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