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श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 50 श्लोक 36-49  

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः (50) (उत्तरार्धः))

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः श्लोक 36-49 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण की सेना में किसी का बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्ध की तेईस अक्षौहिणी सेना पर, जो समुद्र के समान थी, सजह ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उन पर नन्दनवन के पुष्पों की वर्षा और उनके इस महान् कार्य का अनुमोदन—प्रशंसा कर रहे थे । जरासन्ध की सेना के पराजय से मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान श्रीकृष्ण की विजय से उनका हृदय आनन्द से भर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजय के गीत गा रहे थे । जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया, उस समय वहाँ शंख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग आदि बाजे बजने लगे थे । मथुरा की एक-एक सड़क और गली में छिड़काव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकों की चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओं से सजा दिया गया था। ब्राम्हणों की वेदध्वनि गूँज रही थी और सब और आनन्दोत्सव के सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे । जिस समय श्रीकृष्ण नगर में प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगर की नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठा से भरे हुए नेत्रों से उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलों के हार, दही, अक्षत और जौ आदि के अंकुरों की उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं । भगवान श्रीकृष्ण रणभूमि से अपार धन और वीरों के आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियों के राजा उग्रसेन के पास भेज दिया ।

परीक्षित्! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों से युद्ध किया । किन्तु यादवों ने भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति से हर बार उनकी सेना सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियों के उपेक्षापूर्वक छोड़ देने पर जरासन्ध अपनी राजधानी में लौट जाता ।

जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़ने ही वाला था, उसी समय नारदजी का भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा । युद्ध में कालयवन के सामने खड़ा होने वाला वीर संसार में दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छों की सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया ।

कालयवन की यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी के साथ मिलकर विचार किया—‘अहो! इस समय तो यदुवंशियों पर जरासन्ध और कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं । आज इस परम बलशाली यवन ने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसों में आ ही जायेगा । यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़ने में लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओं को मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगर में ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान् है । इसलिये आज हम लोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्य का प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियों को उसी किले में पहुँचाकर फिर इस यवन का वध करायेंगे’ ।



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