श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 48-56  

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दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 48-56 का हिन्दी अनुवाद

हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने, जिनकी कीर्ति का गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्त में जो मीठी-मीठी प्रेम की बातें की है उन्हें छोड़ने का, भुलाने का उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो तो, उनकी इच्छा न होने पर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणों से लिपटी रहती हैं, एक क्षण के लिये भी उनका अंग-संग छोड़कर कहीं नहीं जातीं ।

उद्धवजी! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखर पर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिसमें वे रात्रि के समय रासलीला करते थे, और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चराने के लिये वे सुबह-शाम हम लोगों को देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशी की तान हमारे कानों में गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरों के संयोग से छेड़ा करते थे। बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने इन सभी का सेवन किया है ।

यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलों से चिन्हित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं—दिनभर यह तो करती रहती हैं—तब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दन को हमारे नेत्रों के सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ।

उनकी वह हंस की-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी! आह! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वश में नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ?

हमारे प्यारे श्रीकृष्ण! तुम्हीं हमारे जीवन के स्वामी हो, सर्वस्व हो। प्यारे! तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियों के एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द! तुम गौओं से बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं—दुःख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धवजी का सत्कार करने लगीं ।

उद्धवजी गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रज-वासियों को आनन्दित करते रहते ।

नन्दबाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ।

भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदी तट पर जाते, कभी वनों में विहरते और कभी गिरिराज की गातियों में विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियों को भगवान श्रीकृष्ण और लीला के स्मरण में तन्मय कर देते ।



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