श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 40 श्लोक 13-24  

दशम स्कन्ध: चत्वारिंशोऽध्यायः (40) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद

अग्नि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकश नाभि है। दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेद्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्ति के रूप में उपासना के लिये कल्पित हुई है । वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं। मेघ सिर के केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकों का खोलना और नीचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ।

अविनाशी भगवन्! जैसे जल में बहुत-से जलचर जीव और गूलर के फलों में नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासना के लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूप में अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं । प्रभो! आप क्रीडा करने के लिये पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह को धो-बहा देते हैं; और फिर सब लोग बड़े आनन्द से आपके निर्मल यश का गान करते हैं।

प्रभो! आपने वेदों, ऋषियों, औषधियों और सत्यव्रत आदि की रक्षा-दीक्षा के लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलय के समुद्र में स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों का संहार करने के लिये हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को भी मैं नमस्कार करता हूँ ।

आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचल को धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वी के उद्धार की लीला करने के लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरा बार-बार नमस्कार । प्रह्लाद-जैसे साधुजनों का भय मिटाने वाले प्रभो! आप के उस अलौकिक नृसिंह-रूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरुप ग्रहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ । धर्म का उल्लंघन करने वाले घमंडी क्षत्रियों के वन का छेदन देने के लिये आपने भृगुपति परशुराम रूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को नमस्कार करता हूँ। रावण का नाश करने के लिये आपने रघुवंश में भगवान राम के रूप में अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ । वैष्णवजनों तथा यदु-वंशियों का पालन-पोषण करने के लिये आपने ही अपने को वासुदेव, संकर्षण, प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध-इस चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिये आप शुद्ध अहिंसा-मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वी के क्षत्रिय जब मलेच्छप्राय हो जायँगे तब उनका नाश करने के लिये आप ही कल्कि के रूप में अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।

भगवन्! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोहित हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ इस झूठे दुराग्रह में फँसकर कर्म के मार्गों में भटक रहे हैं । मेरे स्वामी! इसी प्रकार मैं भी स्वपन में दीखने वाले पदार्थों के समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदि को सत्य समझकर उन्हीं के मोह में फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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