श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 23-35  

दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद

एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथों से मुँह ढ़ककर भय की नक़ल करने लगी।

परीक्षित्! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिन्ह देखे । वे आपस में कहने लगीं—अवश्य ही ये चरणचिन्ह उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिन्ह स्पष्ट ही दीख रहे हैं’। उन चरणचिन्हों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगें बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिन्ह दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं— ‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिन्ह हैं ? अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं । प्यारी सखियों! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रम्हा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं’ ‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो—यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हहुए चरणचिन्ह तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं’। यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा । सखियों! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्ण के चरणचिन्ह अधिक गहरे—बालू में धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तु को उठाकर हेल हैं, उसी के बोझ से उनके पैर जमीन में धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामी ने अपनी प्रियतमा को अवश्य कंधे पर चढ़ाया होगा । देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी वल्लभ ने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसी को नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपनी प्रयसी के लिये फूल चुने हैं। उचक-उचक कर फूल तोड़ने के कारण यहाँ उनके पंजे तो धरती में गड़े हुए हैं और एड़ी का पता ही नहीं है । परम प्रेमी श्रीकृष्ण ने कामी पुरुष के समान यहाँ अपनी प्रेयसी के केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलों को प्रेयसी की चोटी में गूँथने के लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है ? फिर भी उन्होंने कामियों की दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियों की कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपी के साथ एकान्त में क्रीडा की थी—एक खेल रचा था ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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