श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 13-26  

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दशम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः (18) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद

कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथ में लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरे की आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछे से ढूँढता—इस प्रकार आँख मिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरे को छूने के लिये बहुत दूर-दूर तक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियों की चेष्टाओं का अनुकरण करते । कहीं मेढ़कों की तरह फुदक-फुदककर चलते तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरे की हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियों से वृक्षों पर झूला डालकर झूलते तो कभी दो बालकों को खड़ा कराकर उनकी बाँहों के बल-पर ही लटकने लगते। कभी किसी राजा की नक़ल करने लगते ।इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुंज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते हैं ।

एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएँ चरा रहे थे तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उनकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ । भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये । ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलों के आचार्य श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालों को बुलाकर कहा—मेरे प्यारे मित्रों! आज हम लोग अपने को उचित रीति से दो दलों में बाँट लें और फिर आनन्द से खेलें । उस खेल में ग्वालबालों ने बलराम और श्रीकृष्ण को नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्ण के साथी बन गये और कुछ बलराम के । फिर उन लोगों ने तरह-तरह से ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दल के लोग दूसरे दल के लोगों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थान पर ले जाते थे। जीतने वाला दल चढ़ता था और हारने वाला दल ढोता था । इस प्रकार एक-दूसरे की पीठ पर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वट के पास पहुँच गये ।

परीक्षित्! एक बार बलरामजी के दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेल में बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर ढ़ोने लगे । हारे हुए श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपनी पीठ पर चढ़ाया, भद्रसेन ने वृषभ को प्रलम्ब ने बलरामजी को । दानवपुंगव प्रलम्ब ने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा। अतः वह उन्हीं के पक्ष में हो गया और बलरामजी को लेकर फुर्ती से भाग चला, और पीठ पर से उतारने के लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया । बलरामजी बड़े भारी पर्वत के समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूर तक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीर पर सोने के गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलरामजी को धारण करने के कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली से युक्त काला बादल चन्द्रमा को धारण किये हुए हो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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