श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 37-42  

एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः श्लोक 37-42 का हिन्दी अनुवाद


जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टि का निरूपण करने के लिये उसी को त्रिगुण (सत्व-रज-तम)-मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसी को ज्ञान प्रधान होने से महतत्त्व, क्रिया प्रधान होने से सूत्रात्मा और जीव की उपाधि होने से अहंकार के रूप में वर्णन किया गया। वास्तव में जितनी भी शक्तियाँ हैं—चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों—सब-का-सब वह ब्रम्ह ही है; क्योंकि ब्रम्ह की शक्ति अनन्त है। कहाँ तक कहूँ ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है—सब कुछ ब्रम्ह है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रम्ह ही है । वह ब्रम्हस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी पर्तिवर्तनशील पदार्थ हैं—चाहे वे क्रिया, संकल्प और उनके अभाव के रूप में ही क्यों न हों—सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ता का वह साक्षी है। सबमें है। देश, काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है। वह उपलब्धि करने वाला अथवा उपलब्धि का विषय नहीं है। केवल उपलब्धिस्वरूप—ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थान भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होने पर भी इन्द्रियों के सहयोग से उसमें अनेकता की कल्पना हो जाती है । जगत् में चार प्रकार के जीव होते हैं—अंडा फोड़कर पैदा होने वाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होने वाले पशु-मनुष्य, धरती फोड़कर निकलने वाले वृक्ष-वनस्पति और पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीर में प्राणशक्ति जीव के पीछे लगी रहती है। शरीरों के भिन्न-भिन्न होने पर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्था में जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहंकार भी सो जाता है—लीन हो जाता है, अर्थात् लिंग शरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बात की पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था। पीछे होने वाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है । जब भगवान कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्नि की भाँति गुण और कर्मों से उत्पन्न हुए चित्त के सारे मलों को जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है—जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है । राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरों! अब आप लोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल की निवृत्ति करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है । एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रम्हाजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होने पर भी मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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