श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 1-13  

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एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः (31)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दारुक के चले जाने पर ब्रम्हाजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर अप्सराएँ तथा गरुड़लोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राम्हण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम-प्रस्थान को देखने के लिये बड़ी उत्सुकता से वहाँ आये। वे सभी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म और लीलाओं का गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानों से सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्ति से भगवान पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे । सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रम्हाजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओं को देखकर अपने आत्मा को स्वरूप में स्थित किया और कमल के सामन नेत्र बंद कर लिये । भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियों के समान) अग्निदेवता सम्बन्धी योग धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाम में चले गये । उस समय स्वर्ग में नगारे बजने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं । भगवान श्रीकृष्ण की गति मन और वाणी के परे है; तभी तो भगवान अपने धाम में प्रवेश करने लगे, तब ब्रम्हादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटना से उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ । जैसे बिजली मेघमण्डल को छोड़कर जब आकाश में प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्ण की गति के सम्बन्ध में कुछ न जान सके । ब्रम्हाजी और भगवान शंकर आदि देवता भगवान की यह परमयोग मयी गति देखकर बड़े विस्मय के साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोक में चले गये । परीक्षित्! जैसे नट अनेकों प्रकार के स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान का मनुष्यों के समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी माया का विलास मात्र है—अभिनय मात्र है। वे स्वयं ही इस जगत् की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्त में संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूप में ही स्थित हो जाते हैं । सान्दीपनि गुरु का पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीर के साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रम्हास्त्र से जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तव में उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालों के महाकाल भगवान शंकर को भी युद्ध में जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीर पर ही प्रहार करने वाले व्याध को भी सदेह स्वर्ग भेद दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थिति में क्या वे अपने शरीर को सदा के लिये यहाँ नहीं रख सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहार के निरपेक्ष कारण है और सम्पूर्ण शक्तियों के धारण करने वाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीर को इस संसार में बचा रखने की इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीर से मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषों के लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखने की चेष्टा न करें ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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