श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 45-55  

एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः श्लोक 45-55 का हिन्दी अनुवाद


अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे से हरिजी बोले—राजन्! आत्मस्वरूप भगवान समस्त समस्त प्राणियों में आत्मारूप से—नियन्तारूप से स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्तरूप से स्थित हैं, अर्थात् वास्तव में भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकार का जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये । जो भगवान से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुःखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान से द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भागवत है । और जो भगवान के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदि की पूजा तो श्रद्धा से करता है, परन्तु भगवान के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भगवद्भक्त है । जो श्रोत-नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द-रूप आदि विषयों का ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयों के मिलने पर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है । संसार के धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि को प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान की स्मृति में इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहने पर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है । जिसके मन में विषय-भोग की इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति आर उनके बीज वासनाओं का उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान वासुदेव में ही निवास करता है, वह उत्तम भागाद्भाक्त है । जिनका इस शरीर में न तो सत्कुल में जन्म, तपस्या आदि कर्म से तथा न वर्ण, आश्रम एवं जाति से ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान का प्यारा है । जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदि में ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकार का भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थों में समस्वरूप परमात्मा को देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है । राजन्! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरण को भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही संलग्न रहता है; यहाँ तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृति का तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तव में भगवद्भक्त वैष्णवों में अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है । रासलीला के अवसर पर नृत्य-गति से भाँति-भाँति के पाद-विन्यास करने वाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान के चरणों के अंगुलि-नख की मणि-चन्द्रिका से जिन शरणागत भक्तजनों के हृदय का विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदय में वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होने पर सूर्य का ताप नहीं लग सकता । विवशता से नामोच्चारण करने पर भी सम्पूर्ण अघ-राशि को नष्ट कर देने वाले स्वयं भगवान श्रीहरि जिसके हृदय को क्षण भर के लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेम की रस्सी से उनके चरण-कमलों को बाँध रखा है, वास्तव में ऐसा पुरुष ही भगवान के भक्तों में प्रधान है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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