श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 12-26  

एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद


वसुदेवजी! यह भागवत धर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानों से सुनने, वाणी से उचारण करने, चित्त से स्मरण करने, हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करने से ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान का एवं सारे संसार का द्रोही ही क्यों न हो । जिनके गुण, लीला और नाम आदि का श्रवण तथा कीर्तन पतितों को भी पावन करने वाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान नारायण का तुमने आज मुझे स्मरण कराया है । वसुदेवजी! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनु के एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत के आग्नीरध्र, आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ । शास्त्रों ने उन्हें भगवान वासुदेव का अंश कहा है। मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदों के पारदर्शी विद्वान थे । उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान नारायण के परम प्रेमी भक्त थे। उन्हीं के नाम से यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है। राजर्षि भरत ने सारी पृथ्वी का राज्य-भोग किया, परन्तु अन्त में इसे छोड़कर वन में चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्या के द्वारा भगवान की उपासना की और तीन जन्मों में वे भगवान को प्राप्त हुए । भगवान ऋषभदेवजी के शेष निन्यानबे पुत्रों में नौ पुत्र तो इस भारतवर्ष के सब ओर स्थित नौ द्वीपों के अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राम्हण हो गये । शेष नौ सन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्या के सम्पादन में बड़ा परिश्रम किया था और वास्तव में वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को परमार्थ-वस्तु का उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और कर-भाजन । वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद् रूप जगत् को अपने आत्मा से अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते थे । उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागों के लोकों में तथा मुनि, चरण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राम्हण और गौओं के स्थानों में वे स्वच्छन्द विचरते थे। वसुदेवजी! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे । एक बार की बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्ष में विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञ में जा पहुँचे । वसुदेवजी! वे योगीश्वर भगवान के परम प्रेमी भक्त और सूर्य के समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मुर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राम्हण सब-के-सब उनके स्वागत में खड़े हो गये । विदेहराज निमि ने उन्हें भगवान के परम प्रेमी भक्त जानकार यथायोग्य आसनों पर बैठाया और प्रेम तथा आनन्द से भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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