श्रीकांत उपन्यास भाग-14  

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संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया।

असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो उस दिन की सिर्फ नकल है। उस दिन बाहर के अपरिचित ही थे मेरे परम आत्मीय-उन पर अपना भार डालने में तब किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं आई; पर वही भार आज व्यक्ति-विशेष पर एकान्त रूप से पड़ जाने से सारा का सारा भार-केन्द्र ही अन्यत्र हट गया है। इसी से आज अनजान अपरिचितों के बीच में से चलने में मेरे हर क़दम पर उत्तरोत्तर भारी होते चले जा रहे हैं। उन दिनों की उन सब सुख-दु:ख की धारणाओं से आज की धारणा में कितना भेद है, कोई ठीक है! फिर भी चलने लगा। अब तो मेरे अन्दर इस जंगल में रात बिताने का न साहस ही रहा, और न शक्ति ही बाकी रही। आज के लिए कोई आश्रय तो ढूँढ़ निकालना ही होगा।

तकदीर अच्छी थी, ज़्यादा दूर न चलना पड़ा। पेड़ के घने पत्तों में से कोई एक पक्का मकान-सा दिखाई दिया। थोड़ी दूर घूमकर मैं उस मकान के सामने पहुँच गया।

था तो पक्का मकान, पर मालूम हुआ कि अब उसमें कोई रहता नहीं। सामने लोहे का गेट था, पर टूटा हुआ- उसकी अधिकांश छड़ें लोग निकाल ले गये हैं। मैं भीतर घुस गया। खुला हुआ बरामदा है, बड़े-बड़े दो कमरे हैं, एक बन्द है, और दूसरा जो खुला है, उसके दरवाज़े के पास पहुँचते ही उसमें से एक कंकाल-सा आदमी निकलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। देखा कि उस कमरे के चारों कोनों में चार लोहे के गेट हैं, किसी दिन उसमें गद्दे बिछे रहते थे, परन्तु कालक्रम से अब उनके ऊपर का टाट तक लुप्त हो गया है। बाकी बची हैं सिर्फ नारियल की जटाएँ, सो भी बहुत कम। एक तिपाई है, कुल टीन और कलई के बरतन हैं, जिनकी शोभा और मौजूदा हालत वर्णन के बाहर पहुँच चुकी है। जो अनुमान की थी वही बात है। यह मकान अस्पताल है। यह आदमी परदेशी है। नौकरी करने आया था सो बीमार पड़ गया है। पन्द्रह दिन से वह यहाँ का इन्डोर पेशेण्ट हैं। उस भले आदमी से जो बातचीत हुई उसका एक चित्र नीचे दिया जाता है-

"बाबू साहब, चारेक पैसा देंगे?"

"क्यों, किसलिए?"

"भूख के मारे मरा जाता हूँ बाबूजी, कुछ चबेना-अवेना ख़रीद के खाना चाहता हूँ।"

मैंने पूछा, "तुम मरीज़ आदमी हो, अंट-संट खाने की तुम्हें मनाई नहीं है?"

"जी नहीं।"

"यहाँ से तुम्हें खाने को नहीं मिलता?"

उसने जो कुछ कहा, उसका सार यह है- सबेरे एक कटोरा साबू दिए गये थे, सो कभी के खा चुका। तब से वह गेट के पास बैठा रहता है- भीख में कुछ मिल जाता है तो शाम को पेट भर लेता है, नहीं तो उपास करके रात काट देता है। एक डॉक्टर भी हैं, शायद उन्हें बहुत ही थोड़ा हाथ-खर्च के लिए कुल मिला करता है। सबेरे एक बार मात्र उनके दर्शन होते हैं। और एक आदमी मुकर्रर है, उसे कम्पाउण्डरी से लेकर लालटेन में तेल भरने तक का सभी काम करना पड़ता है। पहले एक नौकर था, पर इधर छह-सात महीने से तनखा न मिलने के कारण वह भी चला गया है। अभी तक कोई नया आदमी भरती नहीं हुआ।

मैंने पूछा, "झाड़ु-आड़ु कौन लगाता है?"

उसने कहा, "आजकल तो मैं ही लगाता हूँ। मेरे चले जाने पर फिर जो नया रोगी आयेगा वह लगायगा- और कौन लगायगा?"

मैंने कहा, "अच्छा इन्तज़ाम है! अस्पताल यह है किसका, जानते हो?"

वह भला आदमी मुझे उस तरफ के बरामदे में ले गया। छत की कड़ी में लगे हुए तार से एक टीन की लालटेन लटक रही थी। कम्पाउण्डर साहब उस सिदौसे ही जलाकर काम खत्म करके अपने घर चले गये हैं। दीवार में एक बड़ा भारी पत्थर जड़ा हुआ है, जिसपर सुनहरी अंगरेजी हरूफों में ऊपर से नीचे तक सन् अंगरेजी तारीख आदि खुदे हुए हैं- यानी पूरा शिलालेख है। ज़िले के जिन साहब मजिस्ट्रेट ने अपरिसीम दया से प्रेरित होकर इसका शिलारोपण या द्वारोद्धाटन सम्पन्न किया था, सबसे पहले उनका नाम-धाम है, और सबसे नीचे है प्रशस्ति-पाठ। किसी एक राव बहादुर ने अपनी रत्नगर्भा माता की स्मृति-रक्षार्थ जननी-जन्मभूमि पर इस अस्पताल की प्रतिष्ठा कराई है। इसमें सिर्फ माता-पुत्र का ही वर्णन नहीं बल्कि ऊधर्वतन तीन-चार पीढ़ियों का भी पूरा विवरण है। अगर इसे छोटी कुल-कारिका कहा जाय, तो शायद अत्युक्ति न होगी। इसके प्रतिष्ठाता महोदय राज-सरकार की रायबहादुरी के योग्य पुरुष थे, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं। कारण रुपये बरबाद करने की ओर से उन्होंने कोई त्रुटि नहीं की। ईंट और काठ तथा विलायती लोहे के बिल चुकाने के बाद अगर कुछ बाकी बचा होगा, तो वह साहब-शिल्पकारों के हाथ से वंग-गौरव लिखवाने में ही समाप्त हो गया होगा। डॉक्टर और मरीजों के औषधि‍-पथ्यादि की व्यवस्था करने के लिए शायद रुपये भी न बचे होंगे और फुरसत भी न हुई होगी।

मैंने पूछा, "रायबहादुर रहते कहाँ हैं?"

उसने कहा, "ज़्यादा दूर नहीं, पास ही रहते हैं।"

"अभी जाने से मुलाकात होगी?"

"जी नहीं, घर पर ताला लगा होगा, घर के सबके सब कलकत्ते रहते हैं।"

मैंने पूछा, "कब आया करते हैं, जानते हो?"

असल में वह परदेशी है, ठीक-ठीक हाल नहीं बता सका। फिर भी बोला कि तीनेक साल पहले एक बार आए थे- डॉक्टर के मुँह सुना था उसने। सर्वत्र एक ही दशा है, अतएव दु:खित होने की कोई ख़ास बात नहीं थी।

इधर अपरिचित स्थान में संध्याी बीती जा रही थी और अंधेरा बढ़ रहा था; लिहाज़ा, रायबहादुर के कार्य-कलापों की पर्यालोचना करने की अपेक्षा और भी ज़रूरी काम करना बाकी था। उस आदमी को कुछ पैसे देकर मालूम किया कि पास ही चक्रवर्तियों का एक घर मौजूद है। वे अत्यन्त दयालु हैं, उनके यहाँ कम-से-कम रात भर के लिए आश्रय तो मिल ही जायेगा। वह खुद ही राजी होकर मुझे अपने साथ वहाँ ले चला; बोला, "मुझे मोदी की दुकान पर तो जाना ही है, जरा-सा घूमकर आपको पहुँचा दूँगा, कोई बात नहीं।"

चलते-चलते बातचीत से समझ गया कि उक्त दयालु ब्राह्मण-परिवार से उसने भी कितनी ही शाम पथ्यापथ्य संग्रह करके गुप्तरूप से पेट भरा है।

दसेक मिनट पैदल चलकर चक्रवर्ती की बाहर वाली बैठक में पहुँच गया। मेरे पथ-प्रदर्शक ने आवाज़ दी, "पण्डितजी घर पर हैं?"

कोई जवाब नहीं मिला। सोच रहा था, किसी सम्पन्न ब्राह्मण के घर आतिथ्य ग्रहण करने जा रहा हूँ; परन्तु, घर-द्वार की शोभा देखकर मेरा मन बैठ-सा गया। उधर से कोई जवाब नहीं, और इधर से मेरे साथी के अपराजेय अध्‍यवसाय का कोई अन्त नहीं। अन्यथा यह गाँव और यह अस्पताल बहुत दिन पहले ही उसकी रुग्ण आत्मा को स्वर्गीय बनाकर छोड़ता। वह आवाज़ पर आवाज़ लगाता ही रहा।

सहसा जवाब आया, "जा जा, आज जा। जा, कहता हूँ।"

मेरा साथी किसी भी तरह विचलित नहीं हुआ, बोला, "कौन आये हैं, निकल के देखिए तो सही।"

परन्तु मैं विचलित हो उठा। मानो चक्रवर्ती का परम-पूज्य गुरुदेव घर पवित्र करने अकस्मात् आविर्भूत हुआ हो।

नेपथ्य का कण्ठ-स्वर क्षण में मुलायम हो उठा, "कौन है रे भीमा?"

यह कहते हुए घर-मालिक दरवाज़े के पास आये दिखाई दिये। मैली धोती पहने हुए थे, सो भी बहुत छोटी। अन्धकारप्राय संध्यां की छाया में उनकी उमर मैं न कूत सका, मगर बहुत ज़्यादा तो नहीं मालूम हुई। फिर उन्होंने पूछा, "कौन है रे भीमा?"

समझ गया कि मेरे संगी का नाम भीम है। भीम ने कहा, "भले आदमी हैं, ब्राह्मण महाराज हैं। रास्ता भूलकर अस्पताल में पहुँच गये थे। मैंने कहा, "डरते क्यों हैं, चलिए, मैं पण्डितजी के यहाँ पहुँचाए देता हूँ, गुरु की सी खातिरदारी में रहिएगा।"

वास्तव में भीम ने अतिशयोक्ति नहीं की, चक्रवर्ती महाशय ने मुझे परम समादर के साथ ग्रहण किया। अपने हाथ से चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा, और तमाखू पीता हूँ या नहीं, पूछकर भीतर जाकर वे खुद ही हुक़्क़ा भर लाये।

बोले, "नौकर-चाकर सब बुखार में पड़े हैं- क्या किया जाय!"

सुनकर मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा। सोचा, एक चक्रवर्ती के घर से निकलकर दूसरे चक्रवर्ती के घर आ फँसा। कौन जानें, यहाँ का आतिथ्य कैसा रूप धारण करेगा। फिर भी हुक़्क़ा हाथ में पाकर पीने की तैयारी कर ही रहा था कि इतने में सहसा भीतर से एक तीक्ष्ण कण्ठ का प्रश्न आया, "क्यों जी, कौन आदमी आया है?"

अनुमान किया कि यही घर की गृहिणी हैं। जवाब देने में सिर्फ चक्रवर्ती का ही गला नहीं काँपा, मेरा हृदय भी काँप उठा।

उन्होंने झटपट कहा, "बड़े भारी आदमी हैं जी, बड़े भारी आदमी। ब्राह्मण हैं- नारायण। रास्ता भूलकर आ पड़े हैं- सिर्फ रातभर रहेंगे- भोर होने के पहले, तड़के ही चले जाँयगे।"

भीतर से जवाब आया, "हाँ हाँ, सभी कोई आते हैं रास्ता भूलकर। मुँहजले अतिथियों का तो नागा ही नहीं। घर में न तो एक मुट्ठी चावल है, न दाल-खिलाऊँगी क्या चूल्हे की भूभड़?"

मेरे हाथ का हुक़्क़ा हाथ में ही रह गया। चक्रवर्तीजी ने कहा, "ओहो, तुम यह सब क्या बका करती हो! मेरे घर में दाल-चावल की कमी! चलो चलो, भीतर चलो, सब ठीक किये देता हूँ।"

चक्रवर्ती-गृहिणी भीतर चलने के लिए बाहर नहीं आई थीं। बोलीं, "क्या ठीक कर दोगे, सुनूँ तो सही? सिर्फ मुट्ठीभर चावल है, सो बच्चों के पेट में भी तो राँधकर डालना है। उन बेचारों को उपास रखकर मैं उसे लीलने दूँगी? इसका खयाल भी न लाना।"

माता धारित्री, फट जा, फट जा! 'नहीं-नहीं' कहके न-जाने क्या कहना चाहता था परन्तु चक्रवर्ती जी के विपुल क्रोध में वह न जाने कहाँ बह गया। उन्होंने 'तुम' छोड़कर फिर 'तू' कहना शुरू किया। और अतिथि-सत्कार के विषय को लेकर पति-पत्नी में जो वार्तालाप शुरू हुआ, उसकी भाषा जैसी थी, गम्भीरता भी वैसी ही थी- उसकी उपमा नहीं मिल सकती। मैं रुपये लेकर नहीं निकला था- जेब में जो थोड़े-से पैसे पड़े थे, वे भी खर्च हो चुके थे। कुरते में सोने के बटन अलबत्ता थे। पर वहाँ कौन किसकी सुनता है! व्याकुल होकर एक बार उठके खड़े होने की कोशिश करने पर चक्रवर्तीजी ने ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, "आप अतिथि-नारायण हैं। विमुख होकर चले जाँयगे तो मैं गले में फाँसी लगा लूँगा।"

गृहिणी इससे रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुई, उसी वक्त चैलेद्बज एक्सेप्ट करके बोलीं, "तब तो जी जाऊँ। भीख माँग-मूँगकर अपने बच्चों का पेट भर सकूँगी।"

इधर मेरी लगभग हिताहित-ज्ञान-शून्य होने की नौबत आ पहुँची थी; मैं सहसा कह बैठा, "चक्रवर्तीजी, से न हो तो और किसी दिन सोच-विचार कर धीरे सुस्ते लगाइएगा- लगाना ही अच्छा है- मगर, फिलहाल या तो मुझे छोड़ दीजिए, और न हो तो मुझे भी एक फाँसी की रस्सी दे दीजिए, उसमें लटककर आपको इस आतिथ्य-दाय से मुक्त कर दूँ।"

चक्रवर्तीजी ने अन्त:पुर की तरफ लक्ष्य करके ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "अब कुछ शिक्षा हुई? पूछता हूँ, सीखा कुछ?"

जवाब आया, "हाँ।"

और कुछ ही क्षण बाद भीतर से सिर्फ एक हाथ बाहर निकल आया। उसने धम्म से एक पीतल का कलसा ज़मीन पर धर दिया, और साथ-ही-साथ आदेश दिया, "जाओ, श्रीमन्त की दुकान से, इसे रखकर, दाल-चावल-घी-नामक ले आओ। जाओ। देखना कहीं वह हाथ में पाकर सब पैसे न काट ले।"

चक्रवर्ती खुश हो उठे। बोले, "अरे, नहीं, नहीं, यह क्या बच्चे के हाथ का लडुआ है?"

चट से हुक़्क़ा उठाकर दो-चार बार धुऑं खींचने के बाद वे बोले, "आग बुझ गयी। सुनती हो जी, जरा चिलम तो बदल दो, एक बार पीकर ही जाऊँ। गया और आया, देर न होगी।"

यह कहते हुए उन्होंने चिलम हाथ में लेकर भीतर की ओर बढ़ा दी।

बस, पति-पत्नी में सन्धि हो गयी। गृहिणी ने चिलम भर दी, और पतिदेव ने जी भरके हुक़्क़ा पिया। फिर वे प्रसन्न चित्त से हुक़्क़ा मेरे हाथ में थमाकर कलसा लेकर बाहर चले गये।

चावल आयी, दाल आयी, घी आया, नमक आया, और यथासमय रसोईघर में मेरी पुकार हुई। भोजन में रंचमात्र भी रुचि नहीं थी, फिर भी चुपचाप उठकर उस ओर चल दिया। कारण, आपत्ति करना सिर्फ निष्फल ही नहीं बल्कि 'ना' कहने में खतरे की भी आशंका हुई। इस जीवन में बहुत बार बहुत जगह मुझे बिन-माँगे आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है। सर्वत्र ही मेरा समादर हुआ है यह कहना तो झूठ होगा; परन्तु, ऐसा स्वागत भी कभी मेरे भाग्य में नहीं जुटा था। मगर अभी तो बहुत सीखना बाकी था। जाकर देखा कि चूल्हा जल रहा है, और वहाँ भोजन के बदले केले के पत्तों पर चावल-दाल-आलू और एक पीतल की हँड़िया रक्खी है।

चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह के साथ कहा, "बस चढ़ा दीजिए हँड़िया, चटपट हो जायेगा सब। मसूर की खिचड़ी, आलू-भात है ही, मजे की होगी खाने में। घी है ही, गरम-गरम।"

चक्रवर्ती महाशय की रसना सरस हो उठी। परन्तु मेरे लिए यह घटना और भी जटिल हो गयी। मैंने, इस डर से कि मेरी किसी बात या काम से फिर कहीं कोई प्रलय-काण्ड न उठ खड़ा हो, तुरन्त ही उनके निर्देशानुसार हँड़िया चढ़ा दी। चक्रवर्ती-गृहिणी नेपथ्य में छिपी खड़ी थीं। स्त्री की ऑंखों से मेरे अपटु हाथों का परिचय छिपा न रहा। अब तो उन्होंने मुझे ही लक्ष्य करके कहना शुरू किया। उनमें और चाहे जो भी दोष हो, संकोच या ऑंखों का लिहाज़ आदि का अतिबाहुल्य-दोष नहीं था, इस बात को शायद बड़े से बड़ा निन्दाकारी भी स्वीकार किये बिना न रह सकेगा। उन्होंने कहा, "तुम तो बेटा, राँधना जानते ही नहीं।"

मैंने उसी वक्त उनकी बात मान ली, और कहा, "जी नहीं।"

उन्होंने कहा, "वे कह रहे थे, परदेसी आदमी हैं, कौन जानेगा कि किसने राँधा और किसने खाया! मैंने कहा, सो नहीं हो सकता, एक रात के लिए मुट्ठीभर भात खिलाकर मैं आदमी की जात नहीं बिगाड़ सकती। मेरे बाप अग्रदानी ब्राह्मण हैं।"

मेरी हिम्मत ही न हुई कि कह दूँ कि मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े पाप मैं इसके पहले ही कर चुका हूँ- क्योंकि डर था कि इससे भी कहीं कोई उपद्रव न उठ खड़ा हो। मन में सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि किस तरह रात बीतेगी और कैसे इस घर के नागपाश से छुटकारा मिलेगा। लिहाज़ा, उनके निर्देशानुसार खिचड़ी भी बनाई और उसका पिण्ड-सा बनाकर घी डालकर- उस तोहफे को लीलने की कोशिश भी की। इस असाध्यर को मैंने किस तरह साध्ये या सम्पन्न किया, सो आज भी मुझसे छिपा नहीं है। बार-बार यही मालूम होने लगा कि वह चावल-दाल का पिण्डाकार तोहफा पेट के भीतर जाकर पत्थर का पिण्ड बन गया है।

अध्‍यवसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ़ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। ऑंखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, "चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ़ कर दूँगा।"

सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, "तुम क्यों साफ़ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट रहो।"

'ना' कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर ऑंख मींचकर पड़ रहा।

बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे ज़ोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी ऑंखों से ऑंसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी ऑंखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में ऑंख मींचकर पड़ रहा।

आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दु:ख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा।

मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, "नींद खुली बेटा?"

मैंने ऑंखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज़्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-ऑंख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है।

उन्होंने फिर पूछा, "अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।"

इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, "बुखार तो अब भी खूब है।"

मैंने ऑंखें मींच ली थीं। ऑंखें मींचे ही मींचे कहा, "कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज़्यादा दूर थोड़े ही है।"

मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, "दु:ख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?" इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, "रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?"

मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं।

अतएव, वहीं रह गया। कुल मिलाकर शायद चारेक दिन रहा। फिर भी उन चार दिनों की स्मृति सहज में भूलने की नहीं। बुखार एक ही दिन में उतर गया, पर बाकी दिनों में, कमज़ोर होने के कारण, उन्होंने मुझे वहाँ से हिलने भी न दिया। कैसे भयानक दारिद्रय में इस ब्राह्मण-परिवार के दिन कट रहे हैं, और उस दुर्गति को बिना किसी कुसूर के हजार-गुना कड़घआ कर रक्खा है समाज के अर्थहीन पीड़न ने। चक्रवर्ती-गृहिणी अपनी अविश्रान्त मेहनत के भीतर से भी जरा सी फुरसत पाने पर, मेरे पास आकर बैठ जाती थीं। सिर और माथे पर हाथ फेर देती थीं। तैयारियों के साथ रोग का पथ्य न जुटा सकती थीं, पर उस त्रुटि को अपने व्यवहार और जतन से पूरा कर देने के लिए कैसी एकाग्र चेष्टा उनमें पाता था।

पहले इनकी अवस्था कामचलाऊ अच्छी थी। ज़मीन-जायदाद भी ऐसी कुछ बुरी नहीं थी। परन्तु, उनके अल्पबुद्धि पति को लोगों ने धोखा दे-देकर आज उन्हें ऐसे दु:ख में डाल दिया है। वे आकर रुपये उधार माँगते थे; कहते थे- हैं तो यहाँ बहुत-से बड़े आदमी, पर कितनों की छाती पर इतने बाल हैं? लिहाज़ा छाती के उन बालों का परिचय देने के लिए कर्ज़ करके कर्ज़ दिया करते थे। पहले तो हाथ चिट्ठी लिखाकर और बाद में स्त्री से छिपाकर ज़मीन गहने रखकर कर्ज़ देने लगे। नतीजा अधिकांश स्थलों पर जैसा होता है, यहाँ भी वैसी ही हुआ।

यह कुकार्य चक्रवर्ती के लिए असाध्य् नहीं, इस बात पर मुझे, एक ही रात की अभिज्ञता से, पूरा विश्वास हो गया। बुद्धि के दोष से धन-सम्पत्ति बहुतों की नष्ट हो जाती है, उसका परिणाम भी अत्यन्त दु:खमय होता है, परन्तु यह दु:ख समाज की अनावश्यक और अन्धी निष्ठुरता से कितना ज़्यादा बढ़ सकता है, इसका मुझे चक्रवर्ती-गृहिणी की प्रत्येक बात से, नस-नस में, अनुभव हो गया। उनके यहाँ सिर्फ दो सोने की कोठरियाँ हैं, एक में लड़के-बच्चे रहते हैं और दूसरी पर बिल्कुयल और बाहर का आदमी होते हुए भी मैंने दख़ल जमा लिया। इससे मेरे संकोच की सीमा न रही। मैंने कहा, "आज तो मेरा बुखार उतर गया है और आप लोगों को भी बड़ी तकलीफ हो रही है। अगर बाहर वाली बैठक में मेरा बिस्तर कर दें, तो मुझे बहुत सन्तोष हो।"

गृहिणी ने गरदन हिलाकर जवाब दिया, "सो कैसे हो सकता है बेटा! बादल घिर रहे हैं, अगर वर्षा हुई तो उस कमरे में ऐसी जगह ही न रहेगी जहाँ सिर भी रखा जा सके। तुम अभी कमज़ोर ठहरे, इतना साहस तो मुझसे न होगा।"

उनके ऑंगन में एक तरफ कुछ पुआल पड़ा था, उस पर मैंने गौर किया था। उसी की तरफ इशारा करके मैंने पूछा, "पहले से मरम्मत क्यों नहीं करा ली? ऑंधी-मेह के दिन तो आ भी गये।"

इसके उत्तर में मालूम हुआ कि मरम्मत कराना कोई आसान बात नहीं। पतित ब्राह्मण होने से इधर का कोई किसान-मजूर उनका काम नहीं करता। आन गाँव में जो मुसलमान काम करने वाले हैं, वे ही घर छा जाते हैं। किसी भी कारण से हो, इस साल वे आ नहीं सके। इसी प्रसंग में वे सहसा रो पड़ीं, बोली, "बेटा, हम लोगों के दु:ख का क्या कोई अन्त है? उस साल मेरी सात-आठ साल की लड़की अचानक हैजे में मर गयी; पूजा के दिन थे, मेरे भइया गये थे काशीजी घूमने, सो और कोई आदमी न मिलने से छोटे लड़के के साथ अकेले इन्हीं को मसान जाना पड़ा। सो भी क्या किरिया-करम ठीक से हो सका? लकड़ी तक किसी ने काटने न दी। बाप होकर गङ्ढा खोद के गाड़-गूड़कर इन्हें घर लौट आना पड़ा।" कहते-कहते उनका दबा हुआ पुराना शोक एकबारगी नया होकर दिखाई दे गया। ऑंखें पोंछती हुई जो कुछ कहने लगीं, उसमें मुख्य शिकायत यह थी कि उनके पुरखों में किसी समय किसी ने श्राद्ध का दान ग्रहण किया था- बस यही कसूर हो गया- और श्राद्ध तो हिन्दू का अवश्य कर्त्तव्य है, कोई तो उसका दान लेगा ही, नहीं तो वह श्राद्ध ही असिद्ध और निष्फल हो जायेगा। फिर दोष इसमें कहाँ है? और दोष अगर हो ही, तो आदमी को लोभ में फँसाकर उस काम में प्रवृत्त ही क्यों किया जाता है?

इन प्रश्नों का उत्तर देना जितना कठिन है, इतने दिनों बाद इस बात का पता लगाना भी दु:साध्यन है कि उन पुरखों की किस दुष्कृति के दण्डस्वरूप उनके वंशधरों को ऐसी विडम्बना सहनी पड़ रही है। श्राद्ध का दान लेना अच्छा है या बुरा, सो मैं नहीं जानता। बुरा होने पर भी यह बात सच है कि व्यक्तिगत रूप से इस काम को वे नहीं करते, इसलिए वे निरपराध हैं। अफ़सोस तो इस बात का है कि मनुष्य, पड़ोसी होकर, अपने दूसरे पड़ोसी की जीवन-यात्रा का मार्ग, बिना किसी दोष के, इतना दुर्गम और दु:खमय बना दे सकता है, ऐसी हृदयहीन निर्दय बर्बरता का उदाहरण दुनिया में शायद सिर्फ हिन्दू समाज के सिवा और कहीं न मिलेगा।

उन्होंने फिर कहा, "इस गाँव में आदमी ज़्यादा नहीं हैं, मलेरिया बुखार और हैजे से आधे मर गये हैं। अब सिर्फ ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूतों के घर बचे हैं। हम लोग तो लाचार हैं बेटा, नहीं तो जी चाहता है कि कहीं किसी मुसलमानों के गाँव में जा रहें।"

मैंने कहा, "मगर वहाँ तो जात जा सकती है?"

उन्होंने इस प्रश्न का ठीक जवाब नहीं दिया, बोलीं, "नाते में मेरे एक चचिया-ससुर लगते हैं, वे दुमका गये थे, नौकरी करने, सो ईसाई हो गये थे। उन्हें अब कोई तकलीफ नहीं है।"

मैं चुप रह गया। कोई हिन्दू-धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने को मन ही मन उत्सुक हो रहा है, यह सुनकर मुझे बड़ा दु:ख होता है। मगर उन्हें सान्त्वना भी देना चाहूँ तो दूँ क्या कहकर? अब तक मैं यही समझता था कि सिर्फ अस्पृश्य नीच जातियाँ ही हिन्दू-समाज में अत्याचार सहा करती हैं, मगर आज समझा कि बचा कोई भी नहीं है। अर्थहीन अविवेचन से परस्पर एक-दूसरे के जीवन को दूभर कर डालना ही मानो इस समाज का मज्जागत संस्कार है। बाद में बहुतों से मैंने पूछा है, और बहुतों ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है, कि यह अन्याय है, यह गर्हित है, बुरी बात है; फिर भी इसके निराकरण का वे कोई भी मार्ग नहीं बतला पाते। वे इस अन्याय के बीच में से जन्म से लेकर मौत तक चलने के लिए राजी हैं, पर प्रतिकार की प्रवृत्ति या साहस- इन दोनों में से कोई भी बात उनमें नहीं। जानने-समझने के बाद भी अन्याय के प्रतिकार कर नेकी शक्ति जिनमें से इस तरह बिला गयी है, वह जाति अधिक दिनों तक कैसे जीवित रह सकती है, यह सोच-समझ सकना मुश्किल ही है।

तीन दिन के बाद, स्वस्थ होकर, मैं जब सबेरे ही जाने को तैयार हुआ, तो मैंने कहा, "माँ, आज मुझे विदा दीजिए।"

चक्रवर्ती-गृहिणी की दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये। कहा, "दु:खियों के घर बहुत दु:ख पाया बेटा, तुम्हें कड़घई बातें भी कम सुननी पड़ीं।"

इस बात का उत्तर ढूँढे न मिला। "नहीं, नहीं सो कोई बात नहीं- मैं बड़े आराम से रहा, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।" इत्यादि मामूली शराफत की बातें कहने में भी मुझे शरम होने लगी। वज्रानन्द की बात याद आयी। उसने एक दिन कहा था, "घर त्याग आने से क्या होता है? इस देश में घर माँ-बहिनें मौजूद हैं, हमारी मजाल क्या है कि हम उनके आकर्षण से बचकर निकल जाँय।" बात असल में कितनी सत्य है!

अत्यन्त ग़रीबी और कमअक्ल पति के अविचारित रम्य या ऊटपटाँग कार्यकलापों ने इस गृहस्थ-घर की गृहिणी को लगभग पागल बना दिया है, परन्तु जब उनको अनुभव हुआ कि मैं बीमार हूँ, लाचार हूँ- तब तो उनके लिए सोचने की कोई बात ही नहीं रह गयी। मातृत्व के सीमाहीन स्नेह से मेरे रोग तथा पराये घर ठहरने के सम्पूर्ण दु:ख को मानो उन्होंने अपने दोनों हाथों से एकबारगी पोंछकर अलग कर दिया।

चक्रवर्तीजी कोशिश करके कहीं से एक बैलगाड़ी जुटा लाये। गृहिणी की बड़ी भारी इच्छा थी कि मैं नहा-धो और खा-पीकर जाऊँ, परन्तु धूप और गरमी बढ़ जाने की आशंका से वे ज़्यादा अनुरोध न कर सकीं। चलते समय सिर्फ देवी-देवताओं का नाम-स्मरण करके ऑंखें पोंछती हुई बोलीं, "बेटा, यदि कभी इधर आओ, तो एक बार यहाँ ज़रूर हो आना ।"

उधर जाना भी कभी नहीं हुआ, और वहाँ ज़रूर हो आना भी मुझसे न बन सका। बहुत दिनों बाद सिर्फ इतना सुना कि राजलक्ष्मी ने कुशारी महाशय के हाथ से उन लोगों का बहुत-सा कर्जा अपने ऊपर ले लिया है।

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क़रीब तीसरे पहर गंगामाटी, घर पर पहुँचा। द्वार के दोनों तरफ कदलीवृक्ष और मंगल-घट स्थापित थे। ऊपर आम्र-पल्लवों के बन्दनवार लटक रहे थे। बाहर बहुत से लोग इकट्ठे बैठे तमाखू पी रहे थे। बैलगाड़ी की आहट से उन लोगों ने मुँह उठाकर देखा। शायद इसी के मधुर शब्द से आकृष्ट होकर और एक साहब अकस्मात् सामने आ खड़े हुए- देखा तो वज्रानन्द हैं। उनका उल्लसित कलरव उद्दाम हो उठा, और तब कोई आदमी दौड़कर भीतर खबर देने भी चला गया। स्वामीजी कहने लगे कि "मैंने आकर सब हाल सबसे कह सुनाया है। तबसे बराबर चारों तरफ आदमी भेजकर तुम्हें ढूँढ़ा जा रहा है- एक ओर जैसे कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी गयी, वैसे ही दूसरी ओर दुश्चिन्ता की भी कोई हद नहीं रही। आखिर माजरा क्या था? अचानक कहाँ डुबकी लगा गये थे, बताइए तो? गाड़ीवान छोकरे ने तो जाकर कहा कि आपको वह गंगामाटी के रास्ते में उतारकर चला आया है।"

राजलक्ष्मी काम में व्यस्त थी, उसने आकर पैरों के आगे माथा टेककर प्रणाम किया और कहा, "घर-भर को, सबको तुमने कैसी कड़ी सज़ा दी है, कुछ कहने की नहीं।" फिर वज्रानन्द को लक्ष्य करके कहा, "मेरा मन जान गया था कि आज ये आयेंगे ही।"

मैंने हँसकर कहा, "द्वार पर केले के थम्भ और घट-स्थापना देखकर ही मैं समझ गया कि मेरे आने की खबर तुम्हें मिल गयी है।" दरवाज़े की ओट में रतन आकर खड़ा था। वह चट से बोल उठा, "जी नहीं, इसलिए नहीं- आज घर पर ब्राह्मण-भोजन होगा न, इसीलिए। वक्रनाथ के दर्शन कर आने के बाद से माँ..."

राजलक्ष्मी ने डाँट लगाकर उसे जहाँ का तहाँ रोक दिया, "अब व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं, तू जा, अपना काम देख।"

उसके सुर्ख चेहरे की तरफ देखकर वज्रानन्द हँस दिया, बोला, "समझे नहीं भाई साहब, किसी भी काम में लगे रहने से मन की उत्कण्ठा बहुत बढ़ जाती है। सही नहीं जाती। यह ब्राह्मण-भोजन का आयोजन सिर्फ इसीलिए है। क्यों जीजी, है न यही बात?"

राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, "वह गुस्सा होकर वहाँ से चल दी। वज्रानन्द ने पूछा, "बड़े दुबले-से मालूम पड़ते हो भाई साहब, इस बीच में क्या बात हो गयी थी, बताइए तो? घर न आकर अचानक गायब क्यों हो गये थे?"

गायब होने का कारण विस्तार के साथ सुना दिया। सुनकर आनन्द ने कहा, "भविष्य में अब कभी इस तरह न भागियेगा। किस तरह इनके दिन कटे हैं, सो ऑंख से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता।"

यह मैं जानता था। लिहाज़ा, ऑंखों से बिना देखे ही मैंने विश्वास कर लिया। रतन चाय और हुक़्क़ा दे गया। आनन्द ने कहा, "मैं भी बाहर जाता हूँ भाई साहब। इस वक्त आपके पास बैठे रहने से कोई एक जनी शायद इस जनम में मेरा मुँह न देखेंगी।" यह कहकर हँसते हुए उन्होंने प्रस्थान किया।

कुछ देर बाद राजलक्ष्मी ने प्रवेश करके अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा, "उस कमरे में गरम पानी, अंगौछा, धोती, सब रख आई हूँ- सिर्फ सिर और देह अंगौछकर कपड़े बदल डालो जाकर। बुखार में, खबरदार, सिर पर पानी न डाल लेना, कहे देती हूँ।"

मैंने कहा, "मगर स्वामीजी से तुमने ग़लत बात सुनी है; बुखार मुझे नहीं है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं है तो न सही, पर होने में देर कितनी लगती है?"

मैंने कहा, "इसकी खबर तो तुम्हें ठीक दे नहीं सकता, पर मारे गर्मी के मेरा तो सारा शरीर जला जा रहा है, नहाना ज़रूरी है मेरे लिए।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "ज़रूरी है क्या? तो फिर अकेले तुमसे न बन पड़ेगा। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।" इतना कहकर वह खुद ही हँस पड़ी और बोली, "क्यों झगड़ा करके मुझे तकलीफ दे रहे हो और खुद भी परेशानी उठा रहे हो। इतनी अबेर में मत नहाओ, मान जाओ, तुम्हें मेरी कसम है।"

इस ढंग की बात करने में राजलक्ष्मी बेजोड़ है। अपनी इच्छा को ही जबर्दस्ती दूसरे के कन्धों पर लाद देने के कड़घएपन को वह स्नेह के मधुर रस से इस तरह भर दे सकती है कि उस ज़िद के विरुद्ध किसी का भी कोई संकल्प सिर नहीं उठा सकता। बात बिल्कुाल तुच्छ है, स्नान न करने से भी मेरा चल जायेगा; किन्तु जिन्हें किये बिना नहीं चल सकता ऐसे कामों में भी, बहुत बार देखा है कि, उसकी इच्छा-शक्ति को अतिक्रम करके चलने की शक्ति मुझमें नहीं। मुझमें ही क्यों, किसी में भी वह शक्ति मैंने नहीं देखी। मुझे उठाकर वह भोजन लाने चली गयी। मैंने कहा, "पहले तुम्हारे ब्राह्मण-भोजन का काम निबट जाने दो न?"

राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, "माफ करो तुम, वह काम निबटते-निबटते तो साँझ हो जायेगी।"

"सो हो जाने दो।"

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, "ठीक है। ब्राह्मण-भोजन को मेरे ही सिर रहने दो, उसके लिए तुम्हें भूखा रखने से मेरी स्वर्ग की सीढ़ी ऊपर के बदले बिल्कुकल पाताल की ओर चली जायेगी।" यह कहकर वह भोजन लेने चल दी।

कुछ ही समय बाद जब वह मेरे पास भोजन कराने बैठी, तब देखा कि सामने रोगी का पथ्य है। ब्रह्मभोज की सारी गुरुपाक वस्तुओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध न था। मालूम हुआ कि मेरे आने के बाद ही उसने उसे अपने हाथ से तैयार किया है। फिर भी, जबसे आया हूँ, उसके आचरण में- उसकी बातचीत के ढंग से, कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था जो केवल अपरिचित ही नहीं था, अतिशय नूतन भी था। वही खिलाने के समय बिल्कुरल स्पष्ट हो गया, परन्तु वह कैसे और किस तरह सुस्पष्ट हो गया, कोई पूछता तो मैं उसे अस्पष्टता से भी न समझा सकता। शायद यही बात प्रत्युत्तर में कह देता कि जान पड़ता है मनुष्य की अत्यन्त व्यथा की अनुभूति को प्रकाश करने की भाषा अब भी आविष्कृत नहीं हुई। राजलक्ष्मी खिलाने बैठी, किन्तु खाने-न खाने के सम्बन्ध में उसकी पहले जैसी अभ्यस्त जबर्दसती नहीं थी, था सिर्फ व्याकुल अनुनय। ज़ोर नहीं, भिक्षा। बाहर के नेत्रों से वह चीज़ नहीं पकड़ी जाती, केवल मनुष्य की निभृत हृदय की अपलक ऑंखें ही देख सकती हैं।

भोजन समाप्त हो गया। राजलक्ष्मी बोली, "तो अब मैं जाऊँ?"

अतिथि सज्जन बाहर इकट्ठे हो रहे थे। मैंने कहा, "जाओ।"

मेरे जूठे बर्तन हाथ में लेकर जब वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गयी; तब बहुत देर तक मैं अन्यमनस्क होकर उस ओर चुपचाप देखता रहा। खयाल आने लगा कि राजलक्ष्मी को जैसा छोड़ गया था, इन थोड़े से दिनों में ठीक वैसा तो उसे नहीं पाया। आनन्द कहता था कि दीदी कल से ही एक तरह से उपवास कर रही हैं, आज भी जलस्पर्श नहीं किया है; और कल कब उनका उपवास टूटेगा इसका भी कोई निश्चय नहीं। यह असम्भव नहीं। हमेशा से ही देखता आ रहा हूँ कि उसका धर्मपिपासु चित्त कभी किसी भी कृच्छ साधना से पराङ्मुख नहीं रहा। यहाँ आने के बाद से तो सुनन्दा के साहचर्य से उसकी वह अविचलित निष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। आज उसे थोड़ी ही देर देखने का अवकाश पाया है, किन्तु जिस दुर्जेय रहस्मय मार्ग पर वह अविश्रान्त द्रुतगति से पैर उठाती हुई चल रही है; उसे देखते हुए खयाल आया कि उसके निन्दित जीवन की संचित कालिमा चाहे जितनी अधिक हो वह उसके समीप तक नहीं पहुँच सकती। किन्तु मैं? उसके मार्ग के बीच उत्तुंग गिरिश्रेणी के समान सब कुछ रोककर खड़ा हूँ।

काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी ने जब नि:शब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, "तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्याा के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?"

राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, "मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?"

"तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।"

"मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?" यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, "मुझे बुलवा क्यों न लिया?"

"बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!"

"रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर 'ना' कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?"

इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है?

राजलक्ष्मी ने कहा, "चुप क्यों हो रहे?"

"सोच रहा हूँ।"

"सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?" यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, "मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?"

"तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?"

राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, "यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?"

बोला, "शायद जान लूँगा।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम 'शायद' जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज़्यादा जान सकती हूँ।"

मैंने हँसकर कहा, "ऐसा ही होगा। इस विवाद में तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?"

मैं बोला, "कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।"

राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, "तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?"

खबर न भेजने के कारण बतलाए। एक तो खबर लाने वाला आदमी नहीं था, दूसरे, जिनके पास खबर भेजनी थी वे कहाँ हैं यह भी मालूम न था। किन्तु मैं कहाँ और किस हालत में था, यह सविस्तार बतलाया। चक्रवर्ती-गृहिणी के पास से आज सवेरे ही विदा लेकर आया हूँ। उस दीन-हीन गृहस्थ परिवार में जिस हाल में मैं आश्रय लिया था और जिस प्रकार बेहद ग़रीबी में गृहिणी ने अज्ञात कुलशील रोगग्रस्त अतिथि की पुत्र से भी अधिक स्नेह-शुश्रूषा की थी वह कहने लगा तो कृतज्ञता और वेदना से मेरी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयीं।

राजलक्ष्मी ने हाथ बढ़ाकर मेरे ऑंसू पोंछ दिये और कहा, "तो वे ऋणमुक्त हो जाँय, इसके लिए उन्हें कुछ रुपये क्यों नहीं भेज देते?"

मैंने कहा, "रुपये होते तो भेजता, पर मेरे पास रुपये तो हैं नहीं।"

मेरी इन बातों से राजलक्ष्मी को मर्मान्तक पीड़ा होती थी। आज भी वह मन ही मन उतनी ही दु:खित हुई, लेकिन, उसका सब पैसा-रुपया मेरा ही है, यह बात आज उसने उतने ज़ोर से प्रकट नहीं की। पहले तो इस बात पर वह कलह करने के लिए तैयार हो जाया करती थी। वह चुप रही।

उसमें आज यह नयी बात देखी। मेरी इस बात पर उसका इस प्रकार शान्त चुपचाप बैठे रहना मुझे भी अखरा। थोड़ी देर बाद वह एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर सीधे बैठ गयी। मानो इस दीर्घ नि:श्वास से उसने अपने चारों ओर छाये हुए वाष्पाच्छन्न आवरण को फाड़ देना चाहा। घर की धीमी रोशनी में उसका चेहरा अच्छी तरह नहीं देख सका; लेकिन, जिस समय उससे बात की उससे कण्ठ-स्वर में मैंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। राजलक्ष्मी बोली, बर्मा से तुम्हारी चिट्ठी का जवाब आया है। दफ़्तर का बड़ा लिफाफा है, ज़रूरी समझकर आनन्द से पढ़वा लिया है।"

"उसके बाद?"

"बड़े साहब ने तुम्हारी दरखास्त मंजूर कर ली है और जतलाया है कि वापस जाने पर पहली नौकरी फिर मिल जायेगी।"

"अच्छा?"

"हाँ। लाऊँ वह चिट्ठी?"

"नहीं, ठहरो। कल सुबह देखूँगा।"

फिर हम दोनों चुप हो रहे। क्या कहूँ, किस तरह यह चुप्पी भंग करूँ, यह न सोच सकने के कारण मन ही मन उद्विग्न होने लगा। अकस्मात् मेरे सिर पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। मैंने धीरे से पूछा, "मेरी दरखास्त मंजूर हुई है, यह तो बुरी खबर नहीं है। लेकिन तुम रो क्यों पड़ीं?"

राजलक्ष्मी ऑंचल से ऑंसू पोंछकर बोली, "तुम फिर अपनी नौकरी के लिए विदेश चले जाने की चेष्टा कर रहे हो, यह बात तुमने मुझे बतलाई क्यों नहीं? क्या तुमने समझा था कि मैं रोकूँगी?"

मैंने कहा, "नहीं, बल्कि बतलाने पर तो तुम और उत्साहित करतीं। लेकिन, इसलिए नहीं- मालूम होता है कि मैंने सोचा था कि इन सब छोटी बातों के सुनने के लिए तुम्हारे पास समय न होगा।"

राजलक्ष्मी चुप हो रही। लेकिन उसने अपना उच्छ्वसित नि:श्वास रोकने के लिए प्राण-पण से जो कोशिश की, वह मुझसे छिपी न रही। पर यह हालत क्षण भर ही रही। उसके बाद उसने मीठे स्वर में कहा, "इस बात का जवाब देकर अपने अपराध का बोझ और न बढ़ाऊँगी। तुम जाओ, मैं बिल्कुथल न रोकूँगी।"

यह कहकर वह थोड़ी ही देर चुप रहकर फिर बोली, "तुम यहाँ न आते तो ऐसा मालूम होता है कि मैं कभी यह जान ही न पाती कि मैं तुम्हें कैसी दुर्गति मैं खींच लाई हूँ। यह गंगामाटी का अन्धकूप स्त्रियों के लिए गुजारे लायक़ हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए नहीं। यहाँ का बेकार और उद्देश्यहीन जीवन तो तुम्हारे लिए आत्महत्या के समान है। यह मैंने तुम्हारी ऑंखों से स्पष्ट देखा है।"

मैंने पूछा, "या तुम्हें किसी ने दिखा दिया है?"

राजलक्ष्मी बोली, "नहीं। मैंने खुद ही देखा है। तीर्थयात्रा की थी, पर भगवान को नहीं देख पाई। उसके बदले केवल तुम्हारा लक्ष्य-भ्रष्ट नीरस चेहरा ही दिन-रात दिखाई देता रहा। मेरे लिए तुम्हें बहुत त्याग करना पड़ा है; किन्तु अब और नहीं।"

इतनी देर तक मेरे मन में एक जलन ही थी; किन्तु उसके कण्ठ-स्वर की अनिर्वचनीय करुणा से मैं विह्वल हो गया। बोला, "तुम्हें क्या कम त्याग करना पड़ा है लक्ष्मी? गंगामाटी तुम्हारे लायक़ भी तो नहीं है?"

लेकिन, यह बात कहकर मैं संकोच से भर गया, क्योंकि, मेरे मुख से लापरवाही से भी जो गर्हित बात निकल गयी, वह इस तीक्ष्ण बुद्धिशालिनी रमणी से छिप न सकी। पर आज उसने मुझे माफ कर दिया। मालूम होता है, बात की अच्छाई बुराई पर मान अभिमान का जाल बुनकर नष्ट करने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बोली, "बल्कि मैं ही गंगामाटी के योग्य नहीं हूँ- सभी यह बात नहीं समझ सकेंगे; पर तुम्हें यह समझना चाहिए कि मुझे सचमुच ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ा। लोगों ने एक दिन पत्थर की तरह मेरी छाती पर जो भार रख दिया था क्या सिर्फ वही दूर हो गया है? नहीं। आजीवन तुम्हीं को चाहा था, इसलिए, तुम्हें पाकर जो मुझे त्याग से असंख्य गुना बदला मिल गया है, सो क्या तुम नहीं जानते?"

जवाब न दे सका। जैसे कोई अन्तरतम का वासी मुझसे यह बात कहने लगा, "भूल हुई है, तुमसे भारी भूल हुई है। उसे न समझकर तुमने बड़ा अविचार किया है।"

राजलक्ष्मी ने ठीक इसी तार पर चोट की। कहा, "सोचा था कि तुम्हारे ही लिए कभी यह बात तुम्हें न बतलाऊँगी; लेकिन, आज मैं अपने को और नहीं रोक सकी। मुझे सबसे अधिक दु:ख इसी बात का हो रहा है कि तुम अनायास ही यह कैसे सोच सके कि पुण्य के लोभ का मुझे ऐसा उन्माद हो गया है कि मैंने तुम्हारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है? क्रुद्ध होकर चले जाने के पहले यह बात तुम्हें एक बार भी याद न आई कि इस काल और पर काल में राजलक्ष्मी के लिए तुम्हारी अपेक्षा लाभ की चीज़ और कौन-सी है!"

यह कहते-कहते उसकी ऑंखों के ऑंसू झर-झर के मेरे मुँह पर आ पड़े।

बातों से तसल्ली देने की भाषा उस समय मन में न आ सकी, सिर्फ माथे के ऊपर रक्खा हुआ उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले लिया। राजलक्ष्मी बायें हाथ से ऑंसू पोंछकर कुछ देर चुपचाप बैठी रही।

उसके बाद बोली, "मैं देख आऊँ, लोगों का खाना-पीना हो चुका या नहीं। तुम सो जाओ।"

यह कहकर वह आहिस्ते से हाथ छुड़ाकर बाहर चली गयी। उसे पकड़ रखना चाहता तो रख सकता था; लेकिन चेष्टा नहीं की। वह भी फिर लौटकर नहीं आई। जब तक नींद नहीं आई तब तक यही बात सोचता रहा कि जबर्दस्ती रोक रखता तो लाभ क्या होता? मेरी ओर से तो कभी कोई ज़ोर था ही नहीं; सारा ज़ोर उसकी तरफ से था। आज अगर वही बन्धन खोलकर मुझे मुक्त करते हुए अपने आपको भी मुक्त करना चाहती है, तो मैं उसे किस तरह रोकूँ?

सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर ऑंचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, "आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।"

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।"

आनन्द ने कहा, "बहन, साधु-संन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।"

फिर मुझसे कहा, "कहो, तबीयत तो ठीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।"

राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, "रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की ज़रूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।"

"यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ..."

राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, तुम्हें हाथ देखने की ज़रूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।"

मैंने कहा, "साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।"

"तुम्हें सुनने की ज़रूरत भी नहीं है।" कहकर राजलक्ष्मी ने थोड़े से गरम सिंघाड़ों और कचौरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी और फिर रतन से कहा, "अपने बाबू को चाय दे।"

वज्रानन्द ने संन्यासी होने के पहले डॉक्टरी पास की थी, अत: वे सहज ही हार मानने वाले नहीं थे; गर्दन हिलाते हुए बोलने लगे, "लेकिन बहन, आप पर एक उत्तरदायित्व..."

राजलक्ष्मी ने बीच ही में उनकी बात काट दी, "लो सुनो, इनका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं तो क्या तुम पर है? आज तक जितना उत्तरदायित्व कन्धों पर लेकर इन्हें खड़ा रखा गया है, उसे यदि सुनते तो बहिन के पास डॉक्टरी करने न आते।"

यह कहकर राजलक्ष्मी ने बाकी की सारी की सारी खाद्य-सामग्री एक थाल में रखकर उनकी ओर सरकाते हुए हँसकर कहा, "अब खाओ यह सब, बातें बन्द करो।" आनन्द 'हें हें' करते हुए बोला, "अरे, क्या इतना खाया जा सकता है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "न खाया जायेगा तो संन्यासी बनने क्यों गये थे? और पाँच भले-मानसों की तरह गृहस्थ बने रहते!"

आनन्द की दोनों ऑंखें सहसा भर आयीं। बोला, "आप जैसी बहिनों का दल इस बंगाल में है तभी तो संन्यासी बना हूँ, नहीं तो, कसम खाकर कहता हूँ कि यह गेरुआ-एरुआ अजया के जल में बहाकर घर चला जाता। लेकिन, मेरा एक अनुरोध है बहिन। परसों से ही तुमने एक तरह से उपास कर रक्खा है, इसलिए आज पूजा-पाठ आदि से जरा जल्दी ही निबट लेना। इन चीजों में अब भी कोई स्पर्श-दोष नहीं लगा है। यदि आप कहें- न हो तो" कहकर उन्होंने सामने की भोज्य सामग्री पर नजर डाली।

राजलक्ष्मी डरकर ऑंखें फाड़ती हुई बोली, "यह कहते क्या हो आनन्द, कल तो हमारे सारे ब्राह्मण आ नहीं सके थे!"

मैंने कहा, "तो वे पहले भोजन कर जावें, उसके बाद सही।"

आनन्द बोला, "ऐसा है तो लो, मुझे ही उठना पड़ा। उनके नाम और पते दो-पाखण्डियों को गले में अंगोछा डालकर खींच लाऊँगा और भोजन कराकर छोड़ूँगा।"

यह कहकर वह उठने के बदले थाल खींचकर भोजन करने लगा!

राजलक्ष्मी हँसकर बोली, "संन्यासी हैं न, देव-ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति है!"

इस तरह हमारा सबेरे का चाय-नाश्ते का काम जब पूरा हुआ तो आठ बज चुके थे। आकर बाहर बैठ गया। शरीर में भी ग्लानि नहीं थी और हँसी-ठट्ठे से मन भी मानों स्वच्छ प्रसन्न हो गया था। राजलक्ष्मी की विगत रात्रि की बातों और आज की बातों तथा आचरण में कोई एकता नहीं थी। उसने अभिमान और वेदना से दु:खित होकर ही वैसी बातें की थीं, इसमें सन्देह नहीं रहा। वास्तव में रात के स्तब्ध अन्धकार के आवरण में तुच्छ और मामूली घटना को बड़ी और कठोर कल्पना करके जिस दु:ख और दुश्चिन्ता को भोगा था, आज दिन के प्रकाश में, उसे याद करके मैं मन ही मन लज्जित हुआ और कौतुक भी अनुभव किया।

कल की तरह आज उत्सव-समारोह नहीं था, तो भी, दिन-भर बीच-बीच में न्यौते और बिना न्यौते लोगों के भोजन का सिलसिला बराबर जारी रहा। फिर एक बार हम लोग चाय का सरो-सामान लेकर कमरे के फर्श पर आसन लगाकर बैठ गये। शाम का काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी भी थोड़ी देर के लिए हम लोगों के कमरे में आयी।

वज्रानन्द बोले, "स्वागत है, बहिन।"

राजलक्ष्मी ने उनकी ओर हँसते हुए देखकर कहा, "मैं समझती हूँ कि अब संन्यासी की देव-सेवा आरम्भ हो गयी है, इसीलिए न इतना आनन्द है!"

आनन्द ने कहा, "तुमने झूठा नहीं कहा बहिन, संसार में जितने आनन्द हैं उनमें भजनानन्द और भोजनानन्द ही श्रेष्ठ हैं, और शास्त्र का कथन है कि त्यागी के लिए तो दूसरा ही सर्वश्रेष्ठ है।"

राजलक्ष्मी बोली, "हाँ, तुम जैसे सन्न्यासियों के लिए!"

आनन्द ने जवाब दिया, "यह भी झूठ नहीं है, बहिन। आप गृहिणी हैं, इसीलिए इसका मर्म नहीं ग्रहण कर सकीं। तभी तो हम त्यागियों का दल इधर मौज कर रहा है और आप तीन दिन से सिर्फ दूसरों को खिलाने में लगी हैं और खुद उपवास करके मर रही हैं!"

राजलक्ष्मी बोली, "मर कहाँ रही हूँ, भाई? दिन पर दिन तो देख रही हूँ, इस शरीर की श्रीवृद्धि ही हो रही है।"

आनन्द बोले, "इसका कारण यही है कि वह होने के लिए बाध्यो है। उस बार भी आपको देख गया था, इस बार भी आकर देख रहा हूँ। आपकी ओर देखकर ऐसा नहीं मालूम होता कि कोई संसार की चीज़ देख रहा हूँ, यह जैसे दुनिया से अलग और ही कुछ है।"

राजलक्ष्मी का मुँह लज्जा से लाल हो उठा।

मैंने उससे हँसकर कहा, "देखी तुमने अपने आनन्द की युक्ति-प्रणाली?"

यह सुनकर आनन्द भी हँसकर बोला, "यह तो युक्ति नहीं,- स्तुति है। भैया, यदि यह दृष्टि होती तो क्यों नौकरी की दरखास्त देने बर्मा जाते? अच्छा बहिन, किस दुष्ट-बुद्धि देवता ने भला इस अन्धे आदमी को तुम्हारे मत्थे मढ़ दिया था? उसे क्या और कोई काम नहीं था?"

राजलक्ष्मी हँस पड़ी। फिर अपने माथे पर हाथ ठोककर बोली, "देवता का दोष नहीं है भाई, दोष इस ललाट का है और इनको तो इनका बड़ा भारी दुश्मन भी दोष दे नहीं सकता।" यह कहकर उसने मुझे दिखाते हुए कहा- "पाठशाला में ये थे सबके सरदार। जितना पढ़ाते न थे उससे बहुत ज़्यादा मारते थे। उस समय पढ़ती तो थी सिर्फ 'बोधोदय'। पर, पुस्तक का बोध तो क्या होना था, बोध हुआ और एक तरह का। बच्ची थी, फूल कहाँ पाती, जंगली करौंदों की माला गूँथकर इन्हें एक दिन वरमाला पहिना दी। सोचती हूँ उस समय अगर उन फलों के साथ काँटे भी गूँथ देती!"

बोलते-बोलते उसका कुपित कण्ठ-स्वर दबी हँसी की आभा से सुन्दर हो उठा।

आनन्द बोला, "ओह! कैसा भयानक गुस्सा है!"

राजलक्ष्मी बोली, "गुस्सा नहीं तो क्या है? काँटे लाकर देनेवाला कोई और होता तो ज़रूर गूँथ देती। अब भी पाऊँ तो गूँथ दूँ।"

यह कहकर वह तेज़ीसे बाहर जा रही थी कि आनन्द ने पुकारकर कहा, "भागती हो?"

"क्यों, क्या और कोई काम नहीं है? चाय की प्याली हाथ में लिये उन्हें कलह करने का समय है, मुझे नहीं है।"

आनन्द ने कहा, "बहन, मैं तुम्हारा अनुगत हूँ। पर इस अभियोग में शह देने में तो मुझे भी लज्जा का अनुभव होता है। ये मुँह से एक भी बात निकालते, तो इन्हें इसमें घसीटने की चेष्टा भी की जाती; पर एकदम गूँगे आदमी को कैसे फन्दे में डाला जाए? और डाला भी जाए तो धर्म कैसे सहन करेगा?"

राजलक्ष्मी बोली, "इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुतल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्‍कर लगा आऊँ।"

यह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी।

वज्रानन्द ने पूछा, "बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।"

"यह मैं जानता हूँ।"

"तो फिर?"

"तब अकेले ही जाना होगा।"

वज्रानन्द ने कहा, "देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की ज़रूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की ग़ुलामी करने?"

"कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!"

"यह तो गुस्से की बात हुई भाई।"

"पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?"

आनन्द बोला, "हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।"

इच्छा तो हुई कि कहूँ, "यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों", पर वाद-विवाद से चीज़ पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया।

इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, "बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम ग़ुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की ग़ुलामी में ही दोनों भाई ज़िन्दगी बिता दें।"

राजलक्ष्मी बोली, "लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।"

आनन्द बोला, "क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।"

"पर वे समझते हैं क्या?"

आनन्द ने कहा, "आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।" राजलक्ष्मी ने मेरी ओर तिरछी नजर से देखकर धीरे से सिर हिला दिया। मालूम होता है कि उसने विश्वास नहीं किया और वह मेरे लिए मन ही मन सशंक हो उठी। पीछे कहीं मैं भी सम्मति न दे बैठूँ, कहीं मैं भी...

आनन्द ने पूछा, "सर क्यों हिला दिया?"

राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, "देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?" फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, "और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।"

यह कहकर वह हँस पड़ी।

उसको हँसते देख आनन्द भी हँसकर बोला, "तो इनको ले जाने की ज़रूरत नहीं है बहिन, ये चिरकाल तक तुम्हारी ऑंखों के मणि होकर रहें। पर यह अकेले-दुकेले की बात नहीं है। अकेले मनुष्य की भी आन्तरिक इच्छा-शक्ति इतनी बड़ी होती है कि उसका परिमाण नहीं होता- बिल्कुलल वामनावतार के पाँव की तरह। बाहर से देखने पर छोटा है, पर वही छोटा-सा पाँव जब फैलता है सब सारे संसार को ढँक देता है।"

मैंने देखा कि वामनावतार की उपमा से राजलक्ष्मी का चित्त कोमल हो गया है; किन्तु जवाब में उसने कुछ नहीं कहा।

आनन्द कहने लगा, "शायद आपकी ही बात ठीक है, मैं विशेष कुछ नहीं कर सकता। लेकिन, एक काम करता हूँ। जहाँ तक हो सकता है, दुखियों के दु:खों का अंश मैं बँटाता हूँ बहिन।"

राजलक्ष्मी और भी आर्द्र होकर बोली, "यह मैं जानती हूँ आनन्द। यह तो मैंने उसी दिन समझ लिया था जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा था।"

मालूम होता है कि आनन्द ने इस बात पर ध्याथन नहीं दिया और वह अपनी ही बात के सिलसिले में कहने लगा, "आप लोगों की तरह मुझे भी किसी चीज़ का अभाव नहीं है। बाप का जो कुछ है वह आनन्द से जीवन बिताने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा है, पर मेरा उससे कुछ सरोकार नहीं है। इस दुखी देश में सुखभोग की लालसा भी यदि इस जीवन में रोककर रख सकूँ तो मेरे लिए यही बहुत है।"

रतन ने आकर बतलाया कि रसोइए ने भोजन तैयार कर लिया है।

राजलक्ष्मी ने उसे आसन तैयार करने का आदेश देकर कहा, "आज तुम लोग भोजन से जल्दी ही निबट लो आनन्द, मैं बहुत थक गयी हूँ।"

वह थक गयी थी, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन थकने की दुहाई देते उसे कभी नहीं देखा था। हम दोनों चुपचाप उठ बैठे। आज का प्रभात हम लोगों की एक बड़ी भारी प्रसन्नता में से होकर हँसी-दिल्लगी के साथ आरम्भ हुआ था और संध्याझ की मजलिस भी जमी थी। हास-परिहास से उज्ज्वल होकर, किन्तु समाप्त हुई मानो निरानन्द के मलिन अवसाद के साथ। जिस समय हम लोग भोजन करने के लिए रसाईघर की ओर चले उस समय किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली।

दूसरे दिन सबेरे वज्रानन्द ने प्रस्थान की तैयारी कर दी। और कभी यदि किसी के कहीं जाने की चर्चा उठती तो राजलक्ष्मी हमेशा आपत्ति किया करती। अच्छा दिन नहीं है, अच्छी घड़ी नहीं है, आदि कारण बतलाकर, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करके बहुत बाधा डालती थी। लेकिन, आज उसने मुँह से एक बात भी नहीं निकाली। विदा लेकर आनन्द जिस समय तैयार हुआ उस समय पास जाकर उससे मीठे स्वर से पूछा, "आनन्द, अब क्या न आओगे भाई?"

मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, संन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, "आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।"

"सचमुच?"

"ज़रूर।"

"लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?"

"हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।"

आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। संन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया।

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संन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये।

राजलक्ष्मी प्राय: सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस 'आनन्द' की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी ज़रूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय।

इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, "मालूम होता है आपने सुना नहीं।"

मैं बोला, "नहीं, क्या बात है?"

रतन बोला, "दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।"

"कहाँ चल रहे हैं?"

रतन ने एक बार और दरवाज़े के बाहर देख लिया और कहा, "यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।"

मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, "मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आ:, जान बचे तब तो, है न ठीक?"

मैंने कहा, "हाँ।"

रतन बहुत खुश होकर बोला, "दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज़्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार 'दुर्गा दुर्गा' कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?" यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया।

रतन को कोई बात अज्ञात नहीं थी। उसकी समझ में मैं भी राजलक्ष्मी के अनुचरों में से एक था, इससे अधिक और कुछ नहीं। वह जानता था कि किसी के भी मतामत का कोई मूल्य नहीं है, सबकी पसन्द और नापसन्द मालकिन की इच्छा और अभिरुचि पर ही निर्भर है।

जो आभास रतन दे गया उसका मर्म वह खुद नहीं समझता था, लेकिन, उसके वाक्य का वह गूढ़ अर्थ, देखते ही देखते, मेरे चित्त-पट में चारों ओर से परिस्फुट हो उठा। राजलक्ष्मी की शक्ति की सीमा नहीं है। उस विपुल शक्ति को लगाकर वह संसार में जैसे अपने आपको लेकर ही खेल खेल रही है। एक दिन इस खेल में मेरी ज़रूरत हुई थी, उसकी उस एकाग्र-वासना के प्रचण्ड आकर्षण को रोकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। मैं झुककर आया था, मुझे वह बड़ा बनाकर नहीं लाई थी। सोचता था, मेरे लिए उसने अनेक स्वार्थ-त्याग किये हैं; पर आज दिखाई पड़ा कि ठीक यही बात नहीं है। राजलक्ष्मी के स्वार्थ का केन्द्र इतने समय तक देखा नहीं था, इसीलिए ऐसा सोचता आया हूँ। धन, अर्थ, ऐश्वर्य-बहुत कुछ उसने छोड़ा है, लेकिन क्या मेरे ही लिए? इन सबने कूड़े के ढेर की तरह क्या उसका निजी प्रयोजन का ही रास्ता नहीं रोका है? राजलक्ष्मी के निकट मेरे और मुझे प्राप्त करने के बीच कितना प्रभेद है यह सत्य मुझ पर आज प्रकट हुआ। आज उसका चित्त इस लोक के सब-कुछ पाये हुए को तुच्छ करके अग्रसर होने को तैयार हुआ है। उसके उस पथ के बीच खड़े होने के लिए मुझे स्थान नहीं है। इसलिए, अन्यान्य कूड़े-कचरे की तरह अब मुझे भी रास्ते के एक तरफ अनादर से पड़ा रहना पड़ेगा, चाहे वह कितना ही दु:ख दे। पर अस्वीकार करने के लिए मार्ग नहीं है। अस्वीकार किया भी नहीं कभी।

दूसरे दिन सबेरे ही जान पाया कि चालाक रतन ने जो तथ्य संग्रह किया था वह ग़लत नहीं है। गंगामाटी-सम्बन्धी सारी व्यवस्था स्थिर हो गयी है। राजलक्ष्मी के ही मुँह से मुझे इस बात का पता लगा है। प्रात:काल नियमित पूजा-पाठ करके वह और दिनों की तरह बाहर नहीं गयी। धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गयी और बोली, "परसों इसी वक्त अगर खा-पीकर हम सब यहाँ से निकल सकें तो साँईथिया में पच्छिम की गाड़ी आसानी से मिल सकती है, न?"

मैं बोला, "मिल सकती है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यहाँ का सब बन्दोबस्त मैं एक तरह से पूरा कर चुकी हूँ। कुशारी महाशय जिस तरह देख-रेख रखते थे, उसी तरह रखेंगे।"

मैंने कहा, "अच्छा ही हुआ।"

राजलक्ष्मी कुछ देर चुप रही। मालूम होता था कि प्रश्न को ठीक तौर से आरम्भ नहीं कर सकती थी, इसीलिए अन्त में बोली, "बंकू को चिट्ठी लिख दी है कि वह गाड़ी रिजर्व करके स्टेशन पर हाजिर रहेगा। लेकिन रहे तब तो?"

मैंने कहा, "ज़रूर रहेगा। वह तुम्हारा हुक्म नहीं टालेगा।"

राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, जहाँ तक हो सकेगा टालेगा नहीं, तो भी- अच्छा तुम क्या हमारे साथ नहीं चल सकोगे?"

कहाँ जाना होगा, यह प्रश्न नहीं कर सका। सिर्फ इतना ही मुँह से निकला, "अगर मेरे चलने की ज़रूरत समझो तो चल सकता हूँ।"

इसके प्रत्युत्तर में राजलक्ष्मी कुछ न बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा घबराकर बोल उठी, "अरे, तुम्हारे लिए चाय तो अब तक लाया ही नहीं।"

मैं बोला, "मालूम होता है वह काम में व्यस्त है।"

वास्तव में चाय लाने का समय काफ़ी गुजर चुका था। और दिन होता तो वह नौकरों का ऐसा अपराध कभी क्षमा न कर सकती, बक-झककर तूफ़ान-वर्षा कर देती, लेकिन उस समय जैसे वह एक प्रकार की लज्जा से मर गयी और एक भी बात न कहकर तेज़ीसे कमरे के बाहर हो गयी।

निश्चित दिन को प्रस्थान के पहले समस्त प्रजाजन आये और घेरकर खड़े हो गये। डोम की लड़की मालती को फिर एक बार देखने की इच्छा थी, लेकिन, उसने इस गाँव को छोड़कर किसी और ही गाँव में अपनी गृहस्थी जमा ली है, इसलिए नहीं देख सका। पता लगा कि उस जगह वह अपने पति के साथ सुखी है। दोनों कुशारी-बन्धु अपने परिवार सहित रात रहते ही आ गये। जुलाहे का सम्पत्ति-सम्बन्धी झगड़े का निबटारा हो जाने से वे फिर एक हो गये हैं। राजलक्ष्मी ने कैसे यह सब किया इसे विस्तारपूर्वक जानने का कौतूहल भी नहीं था, और न जाना ही। उनके मुँह की ओर देखकर केवल इतना ही जान सका कि झगड़े का अन्त हो गया है और पूर्व-संचित अनबन की ग्लानि अब किसी भी पक्ष के मन में मौजूद नहीं है।

सुनन्दा आई और उसने अपने बच्चे को लेकर मुझे प्रणाम किया। कहा, "हम सबको आप जल्दी न भूल जाँयगे, यह मैं जानती हूँ। इसके लिए तो प्रार्थना करना व्यर्थ है।" मैंने हँसकर कहा, "तो मुझसे और किस बात के लिए प्रार्थना करोगी बहिन?"

"मेरे बच्चे को आप आशीर्वाद दें।"

मैं बोला, "यही तो व्यर्थ प्रार्थना है, सुनन्दा। तुम जैसी माँ के बच्चे को क्या आशीर्वाद दिया जाय, यह तो मैं भी नहीं जानता, बहिन।"

राजलक्ष्मी किसी काम से पास ही से जा रही थी। यह बात ज्यों ही उसके कानों पड़ी, वह कमरे के अन्दर आ खड़ी हुई और सुनन्दा की ओर से बोली, "इस बच्चे को यह आशीर्वाद दे चलो कि यह बड़ा होकर तुम्हारे ही जैसा मन पाये।"

मैंने हँसकर कहा, "बड़ा अच्छा आशीर्वाद है! शायद तुम्हारे बच्चे से लक्ष्मी मजाक करना चाहती है, सुनन्दा।"

बात समाप्त होने के पहले ही राजलक्ष्मी बोल उठी, "मजाक करना चाहूँगी अपने ही बच्चे के साथ, और वह भी चलने के समय?"

यह कहकर वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर बोली, "मैं भी इसकी माँ के समान हूँ। मैं भी भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वे इसे यही दें। इससे बड़ा तो मैं कोई और वर जानती नहीं।"

सहसा मैंने देखा, उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये हैं। और कुछ भी न कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी।

इसके बाद सबसे मिलकर, ऑंखों में ऑंसू भरे हुए, गंगामाटी से विदा ली। यहाँ तक कि रतन भी फिर-फिरकर ऑंखें पोंछने लगा। जो यहाँ रहने वाले थे उन्होंने हम सबसे फिर आने के लिए अत्यधिक अनुरोध किया और सबने उन्हें फिर आने का वचन भी दिया, केवल मैं ही न दे सका। मैंने ही निश्चित रूप से समझा था कि इस जीवन में अब मेरा यहाँ लौटना सम्भव नहीं है। इसलिए जाते समय इस छोटे-से गाँव को बार-बार फिर-फिरकर देखते समय मन में केवल यही विचार उत्पन्न होने लगा कि अपरिमेय माधुर्य और वेदना से परिपूर्ण एक वियोगान्त नाटक की यवनिका अभी ही गिरी है; नाट्यशाला के दीप बुझ गये हैं और अब मनुष्यों से परिपूर्ण संसार की सहस्र-विधा भीड़ में से मुझे रास्ते पर बाहर निकलना पड़ेगा। किन्तु, जिस मन को जनता के बीच बड़ी होशियारी से क़दम रखने की ज़रूरत है, मेरा वही मन जैसे नशे की खुमारी से एकदम आच्छन्न हो रहा।

शाम के बाद हम सब साँईथिया आ पहुँचे। राजलक्ष्मी के किसी भी आदेश और उपदेश की बंकू ने अवहेलना नहीं की। सब इन्तज़ाम करके वह स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुद उपस्थित था। यथासमय गाड़ी आई और वह सरो-सामान लादकर, रतन को नौकरों के डिब्बे में चढ़ा, विमाता को लेकर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन, उसने मेरे साथ कोई घनिष्ठता दिखाने की चेष्टा नहीं की, क्योंकि, अब उसका मूल्य बढ़ गया है; घर-बार रुपये-पैसे लेकर अब संसार में वह विशेष आदमियों में गिना जाने लगा है। बंकू विलक्षण व्यक्ति है। सभी अवस्थाओं को मानकर चलना जानता है। यह विद्या जिसे आती है, संसार में उसे दु:ख-भोग नहीं करना पड़ता।

गाड़ी छूटने में अब भी पाँच मिनट की देरी है; लेकिन, मेरी कलकत्ते जानेवाली गाड़ी तो आयेगी प्राय: रात के पिछले पहर। एक ओर स्थिर होकर खड़ा था। राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की से मुँह निकालकर हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। पास पहुँचते ही कहा, "जरा अन्दर आओ।" अन्दर जाने पर उसने हाथ पकड़कर मुझे पास बिठा लिया और कहा, "तुम क्या बहुत जल्दी ही बर्मा चले जाओगे? जाने के पहले क्या एक बार और नहीं मिल सकोगे?"

मैं बोला, "अगर ज़रूरत हो तो मिल सकता हूँ।"

राजलक्ष्मी धीरे से बोली, "संसार जिसे ज़रूरत कहता है वह नहीं। केवल एक बार और देखना चाहती हूँ। आओगे?"

"आऊँगा।"

"कलकत्ते पहुँचकर चिट्ठी भेजोगे?"

"भेजूँगा।"

बाहर गाड़ी छूटने का अन्तिम घण्टा बज उठा और गार्ड ने अपनी हरी रोशनी बार-बार हिलाकर गाड़ी छोड़ने का संकेत किया। राजलक्ष्मी ने झुककर मेरे पाँवों की धूल ली और मेरा हाथ छोड़ दिया। मैंने ज्यों ही नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाज़ा बन्द किया, गाड़ी रवाना हो गयी। रात अंधेरी थी, अच्छी तरह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था, सिर्फ प्लेटफार्म के मिट्टी के तेल के लैम्पों ने धीरे-धीरे सरकती हुई गाड़ी की उस खुली खिड़की की एक अस्पष्ट नारी-मूर्ति पर कुछ रोशनी डाली।

कलकत्ता आकर मैंने चिट्ठी भेजी और उसका जवाब भी पाया। यहाँ कोई अधिक काम तो था नहीं, जो कुछ था वह पन्द्रह दिन में समाप्त हो गया। अब विदेश जाने का आयोजन करना होगा। लेकिन, उसके पहले वादे के अनुसार एक बार फिर राजलक्ष्मी से मिल आना होगा। दो सप्ताह और भी यों ही बीत गये। मन में एक आशंका थी कि न जाने उसका क्या मतलब हो, शायद आसानी से छोड़ना नहीं चाहे, या इतनी दूर जाने के विरुद्ध तरह-तरह के उज्र और आपत्तियाँ खड़ी करके ज़िद करे- कुछ भी असम्भव नहीं है। इस समय वह काशी में है। उसके रहने का पता भी जानता हूँ; इधर उसके दो-तीन पत्र भी आ चुके हैं, और यह भी विशेष रूप से लक्ष्य कर चुका हूँ कि मेरे वादे को याद दिलाने के सम्बन्ध में कहीं भी उसने इशारा करने का प्रयत्न नहीं किया है। न करने की तो बात ही है। मन ही मन कहा, अपने को इतना छोटा बनाकर मैं भी शायद मुँह खोलकर यह नहीं लिख सकता कि तुम आकर एक बार मुझसे मिल जाओ। देखते-देखते अकस्मात् मैं जैसे अधीर हो उठा। और इस जीवन के साथ वह इतनी जकड़ी हुई है, यह बात इतने दिन कैसे भूला हुआ था, यह सोचकर अवाक् हो गया। घड़ी निकालकर देखी, अब भी समय है, गाड़ी पकड़ी जा सकती है। तब समान डेरे पर पड़ा रहा और मैं बाहर निकल पड़ा।

इधर-उधर फैली हुई चीजों को देखकर मन में आया, रहें ये सब पड़ी हुईं। मेरी ज़रूरतों को जो मुझसे भी अधिक अच्छी तरह जानती है, उसी के उद्देश्य से-उसी से मिलने के लिए, जब यात्रा करना है, तब यह ज़रूरतों का बोझा नहीं ढोऊँगा। रात को गाड़ी में किसी तरह नींद नहीं आई, अलस तन्द्रा के झोंकों से मुँदी हुई दोनों ऑंखों की पलकों पर कितने विचार और कितनी कल्पनाएँ खेलती हूई घूमने लगीं उनका आदि-अन्त नहीं। शायद, अधिकांश ही विशृंखल थीं, परन्तु, सभी जैसे मधु से भरी हुईं। धीरे-धीरे सुबह हुई, दिन चढ़ने लगा, लोगों के चढ़ने-उतरने, बोलने-पुकारने और दौड़-धूप करने की हद नहीं, तेज धूप के कारण चारों ओर कहीं भी कुहरे का चिह्न नहीं रहा; पर, मेरी ऑंखें बिल्कुईल वाष्पाछन्न हो रहीं।

रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक़्क़ा पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, "क्या चाहते हैं?"

यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, "किसे खोज रहे हैं?"

किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, "रतन है क्या?"

"नहीं, वह बाज़ार गया है।"

ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- "आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की ज़रूरत है?"

पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, "यहाँ बंकू बाबू हैं?"

"हैं क्यों नहीं।"

यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे।

बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, "हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।" इस 'हम लोग' का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, "आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?"

"नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।"

"नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?"

मैंने कहा, "सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।"

बंकू बोला, "तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या ज़रूरत!"

नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि ज़रूरी चीज़ें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया।

भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाज़ा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा।

राजलक्ष्मी ने पूछा, "गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?"

इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, "नहीं, तकलीफ नहीं हुई।"

इस बार उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि उसने न केवल सारे आभूषण ही उतार कर शरीर पर एक सादी किनारी की धोती धारण कर रक्खी है, बल्कि, उसकी पीठ पर लटकने वाली मेघवत् सुदीर्घ केशराशि भी गायब है। माथे के ऊपर, ललाट के नीचे तक, ऑंचल खिंचा हुआ है, तो भी उसमें से कटे बालों की दो-चार लटें गले के दोनों ओर निकलकर बिखर गयी हैं। उपवास और कठोर आत्म-निग्रह की एक ऐसी रूखी दुर्बलता चेहरे से टपक रही है कि अकस्मात् जान पड़ा कि इस एक ही महीने में वह उम्र में भी मानो मुझसे दस साल आगे बढ़ गयी है।

भात के ग्रास मेरे गले में पत्थर की तरह अटकते थे, तो भी, जबर्दस्ती निगलने लगा। बार-बार यही खयाल करने लगा कि इस नारी के जीवन से हमेशा के लिए पुँछकर विलुप्त हो जाऊँ और आज, सिर्फ एक दिन के लिए भी, यह मेरे कम खाने की आलोचना करने का अवसर न पावे।

भोजन समाप्त होने के बाद राजलक्ष्मी ने कहा, "बंकू कहता था कि तुम आज रात की ही गाड़ी से वापस चले जाना चाहते हो?"

मैंने कहा, "हाँ।"

"ऐसा भी कहीं होता है! लेकिन, तुम्हारा जहाज़ तो उस रविवार को छूटेगा।"

इस व्यक्त और अव्यक्त उच्छ्वास से विस्मित होकर उसके मुँह की ओर देखा। देखते ही वह हठात् जैसे लज्जा से मर गयी और दूसरे ही क्षण अपने को सँभालकर धीरे से बोली, "उसमें तो अब भी तीन दिन की देरी है?"

मैंने कहा, "हाँ पर और भी तो काम हैं।"

राजलक्ष्मी फिर कुछ कहना चाहती थी; पर चुप रही। शायद मेरी थकावट, और अस्वस्थ होने की सम्भावना के खयाल से उस बात को मुँह पर न ला सकी। कुछ देर और चुप रहकर बोली, "मेरे गुरुदेव आये हैं।"

समझ गया कि बाहर जिस व्यक्ति से पहले-पहल मुलाकात हुई थी वही गुरुदेव हैं। उन्हीं को दिखाने के लिए ही वह एक बार मुझे इस काशी में खींच लाई थी। शाम को उनके साथ बातचीत हुई। मेरी गाड़ी रात को बारह बजे के बाद छूटेगी। अब भी बहुत समय है। आदमी सचमुच अच्छे हैं। स्वधर्म में अविचल निष्ठा है और उदारता का भी अभाव नहीं है। हमारी सभी बातें जानते हैं, क्योंकि, अपने गुरु से राजलक्ष्मी ने कोई बात छिपाई नहीं है। उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। कहानी के बहाने उपदेश भी कम न दिये; पर वे न उग्र थे और न चोट करने वाले। सब बातें याद नहीं हैं, शायद मन लगाकर सुनी भी नहीं थीं; तो भी, इतना याद है कि कभी न कभी राजलक्ष्मी का इस रूप में परिवर्तन होगा, यह वे जानते थे। दीक्षा के सम्बन्ध में भी वे प्रचलित रीति नहीं मानते हैं। उनका विश्वास है कि जिसका पाँव फिसला है, सद्गुरु की, औरों की अपेक्षा, उसी को अधिक आवश्यकता है।

इसके विरुद्ध मैं कहता ही क्या? उन्होंने फिर एक बार अपनी शिष्या की भक्ति, निष्ठा और धर्मभीरुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करके कहा, "ऐसी स्त्री दूसरी नहीं देखी।" बात वास्तव में सच थी, पर मैं इसे खुद भी उनके कहने की अपेक्षा कम नहीं जानता था। किन्तु, चुप हो रहा।

समय होने लगा, घोड़ागाड़ी दरवाज़े के सामने आकर खड़ी हो गयी। गुरुदेव से विदा लेकर मैं गाड़ी पर जा बैठा। राजलक्ष्मी ने सड़क पर आकर और गाड़ी के अन्दर हाथ बढ़ाकर बार-बार मेरे पाँवों की धूलि अपने माथे पर लगाई, पर मुँह से कुछ भी न कहा। शायद उसमें यह शक्ति ही नहीं थी। अच्छा ही हुआ जो अंधेरे में वह मेरा मुँह नहीं देख सकी। मैं भी स्तब्ध हो रहा, क्या कहूँ, नहीं खोज सका। अन्तिम विदा नि:शब्द ही पूरी हुई। गाड़ी चल पड़ी। मेरी दोनों ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। मैंने अपने सर्वान्त:करण से कहा, "तुम सुखी होओ, शान्त होओ, तुम्हारा लक्ष्य ध्रुव हो, तुम्हारी ईर्ष्या न करूँगा; लेकिन, जिस अभागे ने सब कुछ त्यागकर एक साथ एक दिन अपनी नौका छोड़ दी थी, इस जीवन में उसे अब किनारा नहीं मिलेगा।"

गाड़ी गड़गड़ाती हुई रवाना हो गयी। उस दिन की विदा के समय जो सब बातें मन में आई थीं, वही फिर जाग उठीं। मन में आया कि यह जो एक जीवन-नाटक का अत्यन्त स्थूल और साधु उपसंहार हुआ है इसकी ख्याति का अन्त नहीं है। इतिहास में लिखने पर इसकी अम्लान दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। श्रद्धा और विस्मय के साथ मस्तक झुकाने वाले पाठकों का भी किसी दिन संसार में अभाव न होगा- लेकिन, मेरी आत्म-कहानी किसी को भी सुनाने की नहीं है। मैं चला अन्यत्र। मेरे ही समान जो पाप-पंक में डूबी है, जिसे अच्छे होने का कोई मार्ग नहीं रहा है, उसी अभया के आश्रय में। मन ही मन राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके बोला, "तुम्हारा पुण्य-जीवन उन्नत से भी उन्नततर हो, धर्म की महिमा तुम्हारे द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो, मैं अब क्षोभ नहीं करूँगा।" अभया की चिट्ठी मिली है। स्नेह, प्रेम और करुणा से अटल अभया ने, बहन से भी अधिक स्नेहमयी विद्रोहिणी अभया ने, मुझे सादर आमन्त्रित किया है। आने के समय छोटे से दरवाज़े पर उसके जो सजल नेत्र दिखे थे, वे याद आ गये और याद आ गया उसका समस्त अतीत और वर्तमान इतिहास। चित्त की शुद्धता, बुद्धि की निर्भरता और आत्मा की स्वाधीनता से वह जैसे मेरे सारे दु:खों को एक क्षण में ढँककर उद्भासित हो उठी।

सहसा गाड़ी के रुकने पर चकित होकर देखा तो स्टेशन आ गया है। उतरकर खड़े होते ही एक और व्यक्ति कोच-बॉक्स से शीघ्रतापूर्वक उतरा और उसने मेरे पैरों पर पड़कर प्रणाम किया।

"कौन है रे, रतन?"

"बाबू, विदेश में चाकर की ज़रूरत हो तो मुझे खबर दीजिएगा। जब तक जीवित रहूँगा। आपकी सेवा में त्रुटि न होगी।"

गाड़ी की बत्ती की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी। मैं विस्मित होकर बोला, "तू रोता क्यों है?"

रतन ने जवाब नहीं दिया, हाथ से ऑंखें पोंछकर पाँव के पास फिर झुककर प्रणाम किया और वह जल्दी से अन्धकार में अदृश्य हो गया।

आश्चर्य, यह वही रतन है!

श्रीकांत उपन्यास
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