मेवाड़ी समाज में स्त्रियों की स्थिति  

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पहले मेवाड़ी समाज में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इसके साथ ही निर्णय आदि के कई महत्त्वपूर्ण अधिकार भी उन्हें प्राप्त थे। बाद में बदलती हुई परिस्थितियों ने समाज में इनके महत्व को कम कर दिया। रूढ़िवादिता तथा समाज की पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति ने उन्हें धीरे-धीरे उपभोग की वस्तु के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। निम्नलिखित प्रथाएँ और परिस्थितियाँ समाज में उनके स्थान को इंगित करती हैं-

पर्दा प्रथा

अभिलेखीय एवं साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि महाराणा राजसिंह द्वितीय के शासन काल तक राज परिवार एवं कुलीन वर्ग की स्त्रियों में पर्दा-प्रथा नहीं थी। मराठों एवं पिण्डारियों के आक्रमण काल से ही 'पर्दा प्रथा' आरंभ हो गई थी, जिसका प्रभाव अन्य द्विज जातियों पर भी पड़ा था। पर्दा प्रथा के प्रचलन ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को और भी निम्न बना दिया। अब समाज में स्त्री की मर्यादाएँ निश्चित कर दी गईं। किसी भी त्योहार, उत्सव और मेला आदि के अवसार पर उनका स्वतंत्रतापूर्वक घूमना, पर-पुरुषों से बातें करना आदि कुछ हद तक सीमित होने लगा। घर में स्त्री केवल अपने पति की कामेच्छा पूर्ति का साधन मानी जाती थी।[१]

बहुविवाह तथा रखैल प्रथा

मेवाड़ के अभिजात वर्ग में सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा के प्रदर्शन और रति-सुख की मानसिक प्रवृत्ति के कारण 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में 'बहुविवाह प्रथा' तथा 'रखैल' रखने की प्रथा का भी प्रचलन रहा। मेवाड़ के राजघराने में महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय से महाराणा स्वरूप सिंह के शासन काल तक लगभग आठ पत्नियाँ और नौ उप-पत्नियाँ रही थीं। मेवाड़ के सामंतों में भी बहु-पत्नियाँ रखने का प्रचलन था, किंतु सामंतों को प्रत्येक विवाह के लिये महाराणा से पूर्व स्वीकृति लेनी पड़ती थी। भील जाति में भी श्रम शक्ति की आवश्यकता के कारण एक से अधिक पत्नियाँ रखने का प्रचलन था तथा मुस्लिम वर्ग में भी चार पत्नियाँ तक रखने की धार्मिक स्वीकृति थी। समाज के अन्य वर्गों में भी रखैल रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, लेकिन अधिकांशतः संपन्न लोग ही रखैल रखते थे। 'बहुविवाह प्रथा' व 'रखैल प्रथा' पुरुषों का स्त्रियों के प्रति दलित दृष्टिकोण स्पष्ट करता है।

बाँझपन

वे स्त्रियाँ जो बच्चे को जन्म नहीं दे सकती थीं, उन्हें 'बाँझ' कहा जाता था। बाँझ स्त्रियों को अपने परिवार में तथा समाज में घोर प्रताड़ना सहन करनी पड़ती थी। घर-परिवार और समाज की ओर से उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। कई बार इन प्रताड़नाओं से मजबूर होकर पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित स्त्रियाँ मंदिरों के पुजारियों, मठाधीशों, उपासकों के संतों व भोपों से यौन संपर्क तक कर लेती थीं।[१]

कन्या जन्म

बढ़ते सामाजिक उत्तरदायित्व, जैसे- उच्च वंश की परंपरा, त्याग प्रथा आदि के कारण कन्या के जन्म को अभिशाप माना जाता था। पुत्र का जन्म होने पर तो परिवार में उत्सव जैसा माहौल रहता था, लेकिन यदि कन्या का जन्म हो जाए तो उसे एक तरह से बोझ जैसा समझा जाता था। कन्या जनने वाली स्त्री की प्रतिष्ठा भी कम हो जाती थी। परिवार के सदस्य उसे तब तक सम्मान की दृष्टि से नहीं देंखते थे, जब तक कि वह पुत्र को जन्म नहीं देती।

विधवाओं की स्थिति

समाज में विधवाओं पर अनेक तरह के सामाजिक प्रतिबन्ध थे। उनकी स्थिति भी बहुत दयनीय थी। उनके लिए श्रृंगार करना तथा रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करना वर्जित था। प्रायः वे काले रंग की ओढ़नी तथा सफ़ेद छींट का घाघरा पहनते हुए सन्न्यास व्रत के नियमों का पालन करती थीं। ऐसी स्त्रियों का किसी उत्सव तथा धार्मिक क्रिया-कलापों में जाना भी वर्जित था।

दास-दासी प्रथा

प्राचीन काल से ही प्रचलित 'दास-दासी प्रथा' 19वीं सदी के अंत तक जारी रही। इस प्रथा के कारण स्त्रियों और लड़के-लड़कियों की ख़रीद-फरोख्त भी प्रचलित थी। राजपूत और अभिजात वर्ग की कन्याओं के विवाह में दहेज के सामान के साथ दास-दासियाँ देने की परंपरा भी समाज में प्रचलित थी। ये दास-दासियाँ वंशानुगत रूप से सेवकों के रूप में अपने स्वामी की सेवा करते थे। दासियाँ अपने स्वामी की आज्ञा के बिना विवाह नहीं कर सकती थीं। जब कोई दासी विवाह योग्य हो जाती तो उसे शासक के समक्ष उपस्थित किया जाता था। यदि शासक को वह दासी पसंद आ जाती थी तो किसी दूसरे दास के साथ उस दासी का विवाह करके शासक उसे अपने रनिवास में भेज देता था और उसके पति को कुछ नकद रुपया तथा दहेज का सामान देकर विदा कर दिया जाता था। जब तक वह दासी राजमहल के रनिवास में रहती थी, उसका पति के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता था। इस प्रकार उप-पत्नी के रूप में स्वीकृत दासी 'पड़दायत' कहलाती थी। स्वामी की प्रसन्नता, अप्रसन्नता के आधार पर पड़दायत की प्रतिष्ठा घटती-बढ़ती रहती थी। यदि स्वामी प्रसन्न होकर उसे हाथ-पैरों में सोने के आभूषण पहनने की स्वीकृति दे देता था, तो उसका पद और सम्मान बढ़ जाता था। वह 'पासवान' कहलाने लगती थी। पासवानों को राज्य से अच्छी आय तथा जागीरें प्रदान की जाती थीं और स्वामी की अत्यधिक प्रिय होने पर राज्य प्रशासन में भी उनका हस्तक्षेप रहता था।[१]

पड़दायतों एवं पासवानों की पुत्र-पुत्रियों की शादी बड़ी धूमधाम से की जाती थी। इनके पुत्रों को जागीरें व उच्च पद भी प्रदान किये जाते थे। पड़दायतों और पासवानों को उनकी जाति के अनुसार सम्मान दिया जाता था। जिन दासियों को रनिवास में दाखिल नहीं किया जाता था, उन्हें 'डावड़ी' कहा जाता था। उन्हें राजमहल के जनाना में दासी जीवन व्यतीत करना पड़ता था या राजकुमारियों के दहेज में दे दिया जाता था। किंतु मेवाड़ में दास-दासियों के साथ सामान्य व्यवहार राजपूताना के अन्य राज्यों से अच्छा था और यहाँ के दास-दासियों को अपने स्वामियों को छोड़ने तथा इच्छानुसार आने-जाने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। फिर भी वंशानुगत दास-दासियाँ स्वामी की संपत्ति मानी जाती थीं। इन्हें भी देखें: दास प्रथा

स्त्रियों का क्रय-विक्रय

दास-दासियों को विवाह में दहेज के साथ देने के अतिरिक्त कुछ सामंत या संपन्न लोग स्त्रियों को रखैलों के रूप में रखने, अपनी काम इच्छाओं की पूर्ति करने, वेश्याओं द्वारा युवा लड़कियों से अनैतिक पेशा करवाने के लिए मेवाड़ में स्त्रियों का क्रय-विक्रय होता था। यहाँ तक कि राज्य के बाहर से भी स्त्रियाँ ख़रीदकर लायी जाती थीं। इस प्रकार राज्यों में ग़ुलाम ख़रीदने-बेचने की प्रथा बहुत पहले से ही चली आ रही थी। महाराणा शंभूसिंह के शासन काल में पोलीटिकल एजेंट कर्नल ईडन द्वारा इस प्रथा को ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के अंत तक स्त्रियों के क्रय-विक्रय की प्रथा लगभग समाप्त हो गई थी। किंतु फिर भी मंदिरों में नृत्य गान के लिए स्त्रियों को बाहर से ख़रीदकर लाना बंद नहीं हुआ था।

वेश्याओं की स्थिति

मेवाड़ी समाज में बहु-विवाह एवं रखैल प्रथा ने वेश्यावृति को काफ़ी प्रोत्साहित किया। अनेक वेश्याएँ छोटी उम्र की लड़कियों को ख़रीद लेती थीं और उनके युवा होने पर उनसे अनैतिक पेशा करवाती थीं। संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को तो राजकीय संरक्षण तक प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोष से नियमित वृत्ति भी दी जाती थी। अनेक वेश्याएँ मंदिरों में नृत्य गान किया करती थीं और बदले में उन्हें पुरस्कार आदि मिलता था। सामान्य वेश्याएँ नृत्य, संगीत तथा यौन व्यापार द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं। 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक वेश्यावृत्ति व यौन व्यापार को समाप्त करने अथवा नियंत्रित करने की दिशा में मेवाड़ राज्य ने कोई ठोस क़दम नहीं उठाया और ब्रिटिश सरकार ने भी इसे समाप्त करने में कोई रुचि नहीं ली। 18वीं और 19वीं शताब्दी के अंत तक मेवाड़ में स्त्री शिक्षा का प्रचलन नहीं था। वर्ष 1866 ई. में उदयपुर में एक कन्या पाठशाला खोली गई, किंतु पंजीकृत छात्राओं की संख्या असंतोषजनक ही बनी रही। यद्यपि अभिजात वर्ग की कन्याओं के लिये शिक्षा का प्रबंध घर पर किया जाता था, किंतु उनकी यह शिक्षा ज्ञान प्राप्ति के लिए न होकर मात्र मनोरंजनात्मक रही। साधारण वर्ग की स्त्रियाँ परंपरागत रूढियों एवं अंधविश्वासों में इतनी जकड़ी हुई थीं कि स्त्री शिक्षा के प्रति समाज की कोई रुचि ही नहीं थी। इसका प्रमुख कारण समाज में प्रचलित 'बाल विवाह', 'पर्दा प्रथा' और जातिवादी रूढियाँ थीं। समाज में स्त्रियों की अशिक्षा का परिणाम यह रहा कि स्त्रियों में न तो चेतना आ सकी और न ही प्रगतिवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव हो सका।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १.० १.१ १.२ १.३ मेवाड़ी समाज में स्त्रियों की स्थिति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 फ़रवरी, 2013।

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