भूगोल भी तय करता है समाज का चरित्र (यात्रा साहित्य)  

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यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।

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लेखक- सचिन कुमार जैन

          कच्छ अपने आप में एक ऐसा दृश्य है जिसके बारे में कोई कल्पना कर पाना संभव नहीं है। इस इलाके में रहने वाले 60 से ज्यादा समुदायों में सबसे समान व्यवहार है कला के सम्मान का। मिट्टी से बने इनके घरों से लेकर इनके वस्त्रों तक आपको अलग-अलग तरह के रंग नज़र आयेंगे। कौन से रंगलाल, गुलाबी, बैंगनी, हरा, पीला, नीला; ये भी साधारण रंग नहीं; बल्कि चटख और चमकदार रंग होते हैं ये। यह मत मानिए कि कच्छी लोगों में ये रंग अलग-अलग नज़र आयेंगे, उनके एक ही वस्त्र में ये सारे रंग नज़र आ जाते हैं। जानते हैं क्यों?

यह एक रेगिस्तान वाला क्षेत्र है और यहाँ दूर-दूर तक केवल कुछ ख़ास रंग ही नज़र आते हैं। अपने जीवन में रंगों को भरने के लिए कच्छीयों ने अपने रोज-मर्रा के जीवन, रहन सहन और सामाजिक रीति-रिवाजों में भांति-भांति के रंगों का उपयोग करना शुरू कर दिया। कच्छ गुजरात का सबसे बड़ा और भारत का दूसरा सबसे बड़ा ज़िला है। इसका क्षेत्रफल 45652 किलोमीटर है। ये पूरा ज़िला रेगिस्तानी इलाके के रूप में वर्गीकृत है। इसमें से 23310 किलोमीटर यानी 51 प्रतिशत खारे दलदल है। 10 में से 6 साल तो यह सूखे का सामना करता है। गर्मियों में यहाँ का तापमान 50 डिग्री तक पंहुच सकता है और शीतकाल में 1 डिग्री के सबसे नीचे स्तर तक। हर दस में से 5 या 6 साल यहाँ सूखा रहता है। देश का सबसे बड़ा रेगिस्तानी इलाका (कुल राष्ट्रीय रेगिस्तान क्षेत्र का 10.32%) तो इसी एक ज़िले में है। कच्छ का महान् या बड़ा रण 23300 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह माना जाता है कि अरब सागर से जुड़ा हुआ यह रण बड़ी भूगर्भीय हलचलों (भूचाल या भूकंपों) के कारण अपने मूल तल से ऊपर उभर कर आ गया। यह भी कहा जाता है कि सिकंदर महान के समय यहाँ नौकायन करने लायक झील थी। समुद्र से उभर कर यह नमक से भरपूर गहरी श्याम वर्ण गाद तटीय आर्द्रभूमि का विशाल रेगिस्तान बन जाता है। समुद्र की सतह से 15 मीटर ऊपर उभर कर आने के बाद भी अरब सागर से इसका जुड़ाव साफ़ नज़र आता है। इन परिस्थितियों में पशुपालन स्थानीय लोगों का मुख्य काम बन गया। सोचिये कि बन्नी भैंस इस क्षेत्र की एक ख़ास नस्ल बन चुकी है जो एक बार प्रजनन के बाद 1800 से 2000 किलो (लगभग 16 माह तक) दूध देती है। तमाम चुनौतियों के बाद भी कच्छीयों ने पशुओं का साथ नहीं छोड़ा। वर्ष 1962 में यहाँ 9.40 लाख पशु थे, जो 1992 में 14.13 लाख हुए और वर्ष 2007 की गणना के मुताबिक़ यहाँ 17.08 लाख पशु है।

          इस इलाके में औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है और इससे एक तरफ यहाँ का जीवन चुनौतीपूर्ण बन जाता है तो वहीं दूसरी और इससे एक नया पारिस्थितिकीय जीवन का भी जन्म होता है। कच्छ के बड़े रण में यदि किसी की सत्ता है तो वह है प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा यानी अंग्रेजी बबूल। कांटेदार तनों और छोटी-छोटी इमली के पेड़ जैसी पत्तियों वाली यह ऊँची झाड़ी सेंकड़ों किलोमीटर तक फ़ैल कर एक दूसरा समुद्र तैयार करती हैं। एक समय पर बन्नी चारागाह में 40 तरह की घासें पायी जाती थीं, पर बदलते पर्यावरण के चलते अब यहाँ 15 तरह की घासें ही पायी जाती हैं। यहाँ की ख़ास जलवायु के चलते मुख्यतः झाड़ी आधारित वनस्पतियां और दलदल में पनप सकने वाली घासें यहाँ पायी जाती हैं।

          अंग्रेजी बबूल ने यहाँ की वान्स्पतीय विविधता और जनजीवन के लिए कई समस्याएं पैदा की हैं। इस बबूल ने कच्छ अंचल की कई मौलिक और स्थानीय वनस्पतियों को खत्म कर दिया है। कुछ बड़े पेड़ या बड़े झाड (जैसे टेमरिक्स कच्छेन्सिस और जिजिफुस – बेर की एक प्रजाति) केवल ऊँचाई वाले इलाकों में ही उपलब्ध रह गए हैं। कुल 9 वनस्पतियां और पेड़ों का अस्तित्व पूरी तरह से खतरे में है। इसके अलावा देसी बावल, करदो या केरी, पीलू और लाइ वनस्पतियां भी बहुतायत में पायी जाती हैं। छोटे-छोटे बेर जैसे फल वाली वनस्पति (करीर या कैर या कापरिस डेसीडुआ), झारबेरी और लोनिया खरपतवार (सीपवीड) भी यहाँ खूब पायी जाती है। आर्द्र पर्यावरण (यानी उमस), कुछ समय खूब गर्मी और कुछ समय कडाके की ठण्ड, दूर-दूर तक सपाट बारीक-चिकनी मिट्टी का मैदान कच्छ के रण क्षेत्र को एक बिलकुल अलग आकार देता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण या रोचक देखने के लिए हमें किसी ख़ास स्थान या पर्यटन क्षेत्र की यात्रा नहीं करना पड़ती है। किसी भी गांव में चले जाईये; लोग तहे दिल से इस्तकबाल करते हैं, आपमें विश्वास करते हैं। चूँकि वे आपमें विश्वास करते हैं इसलिए मन की बात करते हैं। उनके पारंपरिक घर – जो एक किस्म की झोपड़ी होती है, भुंगा कहलाते हैं। नीचे से ऊपर तक गोल आकार के ये घर ऊपर की तरफ बढते हुए नोकदार होते जाते हैं। स्थानीय जलवायु और पर्यवारण को ध्यान में रखते हुए मिट्टी, यहाँ पायी जाने विशेष घांस (लाणीयारी) और रेगिस्तानी बबूल-वनस्पतियों की लकडियों से मिलकर ये घर बनते हैं, जो उन्हे बहुत ज्यादा गर्मी और बहुत ज्यादा ठण्ड के साथ ही तेज हवा से भी बचाती है। इसके चलते ये समुदाय अपने आप को कठिन परिस्थितियों के अनुकूल ढाल पाए।

          यहाँ राबारी, पटेल, कोली, खारवा, मुसलमान, अहीर, जत समेत 60 से ज्यादा समुदाय हैं। महिलायें कंजरी, घाघरा, चोली और ओढ़नी पहनती हैं। पुरुष इजार, पोत और माथे पर पगड़ी पहनते हैं। गले में रूमाल या मफलर भी ज्यादातर समुदायों के लोगों में दिखाई देता है। रण में गर्मी होने के बावजूद भी यहाँ पूरे शरीर को ढंकने वाले कपडे पहने जाते हैं क्योंकि उन्हे धूप की गर्मी, गरम-ठंडी हवा, धूल और कंटीली झाडियों से बच कर चलने की व्यवस्था करनी होती है। पानी की कमी होने की कारण भी कपडे रंगीन और मटमैले होते हैं। कच्छ कला में रंग ढूँढने की कोशिश करता है, और जिसमे वह हर बार सफल भी होता है। यहाँ की कसीदाकारी (बुनकरी) को भरतकाम कहा जाता है। अपने हर रोज के जीवन से लेकर, त्यौहार और उत्सवों और शादी में भी उपहार देने के लिए कसीदाकारी से बनाए गए कपड़ों का ही लेनदेन होता है। इसके साथ ही कांसे, चांदी, मीनाकारी, मिट्टी, रोगन कलाकारी सहित यहाँ मुख्यतः 16 तरह की कलाकारी होती है। इस अद्भुत इलाके में थोडा ध्यान से देखेंगे तो आपको दिखाई देंगी तरह-तरह की चिडियाएँ। सच में ज़िंदगी बनी बनाई नहीं मिलती; ज़िंदगी को हम बनाते हैं। यह कच्छ में सिद्ध हो जाता है। अरे हाँ! कच्छ शब्द संस्कृत का शब्द है; जिसका मतलब है ऐसी जमीन जो रह-रहकर गाली होती है और सूखती है। यह जमीन राजहंसों, हवासील (एक तरह की बड़ी बतख) और कशीका (एक तरह की तैरने वाली चिड़िया) के प्रजनन का स्थान भी है। यह जान लीजिए कि कच्छ के रण में साल के 4 महीने जा पाना संभव नहीं होता है पानी के कारण। पानी और सूखे का यहाँ अद्भुत मिलन होता है। कडाके की सर्दी और चिका देने वाली गर्मी भी यहाँ आकर गले मिलती है।

{लेखक मध्यप्रदेश में रह कर सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन और लेखन का काम करते हैं। उनसे sachin.vikassamvad@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है। इस आलेख के साथ दिए गए चित्र भी लेखक के द्वारा खींचे गए हैं।}

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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