ब्रजभाषा की समृद्धता  

रीतिकाल पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षा रखता है। वह व्यक्तित्वों के आधार पर किया जाता रहा है। अथवा उन्नीसवीं शताब्दी की विक्टोरियन, खोखली नैतिकता के मानदण्डों से किया जाता रहा है। यह सही है कि सूरदास या तुलसीदास की ऊँचाई का कवि या उनके व्यापक काव्य संसार जैसा संसार इस युग के कवियों में नहीं प्राप्त है, पर साधारण जन के कंठ में तुलसी, सूर, कबीर की ही तरह रहीम, रसखान, पद्माकर, ठाकुर, देव, बिहारीलाल ही नहीं बहुत अपेक्षाकृत कम विख्यात कवि भी चढ़े। उसका कारण उनकी कविता की सह्रदता और सम्प्रेषणीयता ही थी। इन कवियों से ब्रजभाषा समृद्ध हुई है, उसने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया है, जो सबका हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस युग के जो कवि राजदरबारों में हैं, वे भी केवल कसीदा या बधाई लिखकर सन्तोष नहीं पाते थे। वे अपना काव्य राजा को समर्पित कर दें, पर उस काव्य में राजा या राजदरबार का जीवन बहुत कम रहता था। वे प्रकृति के मुक्त वितान के कवि थे, सँकरी और अँधेरी गली के कवि नहीं थे। इसलिए इस युग के उत्कृष्ट काव्य में सेनापति जैसे कवि के स्वच्छ प्रकृति चित्रण मिलते हैं और विभिन्न व्यवसायों, विशेष करके कृषि व्यवसाय के मनोरम चित्र कहीं विम्ब के रूप में, कहीं वर्ण्य विषय के रूप में, कहीं सादृश्य के रूप में मिलते हैं। संस्कृत की मुक्तक काव्य परम्परा और संस्कृत की काव्यशिखा परम्परा का दाय इस काल में प्रसृत दिखता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्ववर्ती काल में उसकी छाप न हो, अपभ्रंश काव्य में वीर गाथाओं, वैष्णव पदावली साहित्य इन सबमें उसकी छाप है। अत: इसको रीतिकाल का अभिलक्षण बताना उचित नहीं। रीतिकाल के कवियों में देश की चेतना न हो, ऐसी बात भी नहीं है। भूषण, लाल, सूदन, पद्माकर जैसे प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त भी अनेक कवि हुए, जिनके काव्य में स्वदेश का अनुराग व्यक्त होता है और वह परम्परा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीधर पाठक और सत्य नारायण कविरत्न तक अक्षुण्ण चली आई है।

सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग

ब्रजभाषा के माध्यम से पूरे देश की कविता में एक ऐसी भावभूमी वाली, जिसमें सभी शरीक हो सकते थे और एक ऐसी भाषा पाई, जिसकी गूँज मन को और का और बना सकती थी। इस युग में भाषा में एक ओर घनानन्द जैसे कवियों में लाक्षणिक प्रयोगों का विकास हुआ, जिसमें ‘लगियै रहै आँखिन के उर आरति’ जैसे प्रयोग अमूर्त को मूर्त रूप देने के लिए उदभूत हुए। दूसरी ओर सीधे मुहावरे की अर्थगर्भिता उन्मीलित की गई। जैसे-

  • अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।...(ठाकुर)

प्रसाद गुण और लयधर्मी प्रवाहशीलता का उत्कर्ष भी इस युग में पहुँचा। जैसे-

चाँदनी के भारन दिखात उनयौ सो चंद
गंध ही के भारन मद-मंद बहत पौन...(द्विजदेव)

अथवा

आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज
तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है...(पद्माकर)

इस युग की ब्रजभाषा कविता में पुनरुक्ति का उपयोग भी बड़े सटीक ढंग से हुआ और उससे अर्थ में भावैक्य लाने में सफलता मिली। जैसे-

बोल हारे कोकिल बुलाय हारे केकीगन
सिखै हारी सखियाँ सब जुगति नई नई

इसमें हारने की क्रिया का प्रयोग तीन बार हुआ है। इस पुनरुक्ति से एक असम्भव स्थिति का द्योतन सामर्थ्यपूर्वक हुआ है। सादृश्य विधान की भी नई ऊँचाइयाँ देखने को मिलती हैं। कहीं-कहीं उत्प्रेक्षा की उड़ान के रूप में, कहीं-कहीं कसे हुए रूपक के रूप में, कहीं-कहीं अत्यन्त सीधी पर नुकीली उपमा के रूप में। जैसे-

राधिका के आनन की समता न पावै विधु
टूकि-टूकि तोरै पुनि टूक-टूक जोरै है...(उत्प्रेक्षा)

वरुनी बंघबर औ गूदरी पलक दोऊ
कोए राते बसन भगौहें भेस रखियाँ।
बूड़ी जल ही में दिन जामिन हूँ जागी भौहें
धूम सिर छायौ बिरहानल बिलखियाँ।
अँसुआ फटिक-माल लाल डोरी सेली पैन्हि
भई हैं अकेली तजि सेली संग, सखियाँ।
दीजिए दरस ‘देव’ कीजिए सँजोगिनि, ये
जोगिन है बैठीं वा वियोगिनि की अँखियाँ।...(सांग रूपक)

सुरभि सी सुकवि की सुमति खुलन लागीं
चिरिया सी चिन्ता जागी जनक के हियरे।...(उपमा)

उलाहनों की भाषा में बाँकपन सूरदास से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इस युग की कविता में वह बाँकपन कुछ और विकसित मिलता है। जैसे-

भोरहि नयौति गई ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वारिन गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रबीन तुम्हें ढिंग राखि करी बरजोरी।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।

सूक्ष्म मनोभावों के अंकन के लिए मूर्त अभिव्यंजना का आश्रय बड़ी कुशलता से लिया गया है। जैसे छन्द में-

मान्यौ न मानवती भई भोर सुसोचहि सोय गए मनभावन।
तैस सों सास कही दुलही भई बेर कुमार को जाहु जगावन।।
मान को सोच जगैबे की लाज लगी पग नूपुर पाटी बजावन।
या छवि हेरि हिराय रहे हरि कौन को रूसिबो काको मनावन।।

इस अनाम कवि के छन्द में मान के निर्वाह की चिन्ता और जगाने की लज्जा के अर्न्तद्वन्द्व का समाधान नूपुरों से पाटी बजाकर, उन पैरों के मन जाने का सूक्ष्म संकेत है, जिन्हें नायक मनाता रहा, नायिका नहीं मनी। इस युग की भाषिक उपलब्धियों का लेखा-जोखा देना यहाँ अभिप्रेत नहीं है। यहाँ केवल इतना संकेत कर देना था कि, ब्रजभाषा की काव्य यात्रा रीति युग में नये उत्कर्ष के शिखरों पर पहुँचती रही और उसके कारण भाषा में निखार आता रहा। शब्दों के चयन के ऊपर बल देने से, उक्ति भंगिमाओं के औचित्य से, लयात्मक प्रवाह से या संक्षिप्तता से। असमर्थ कवियों के द्वारा या समर्थ कवियों के द्वारा भी शब्दक्रीड़ा करते हुए अटपटे प्रयोग भी आये हैं और खिचड़ी भी शब्दों की पकायी गई है। जिसके कारण सम्बद्ध स्थलों में दुरूहता आ गई है।


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