ड्योढ़ी -गुलज़ार  

ड्योढ़ी -गुलज़ार
लेखक गुलज़ार
मूल शीर्षक ड्योढ़ी
अनुवादक यतींद्र मिश्र
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
ISBN 978-93-5000-844-7
देश भारत
पृष्ठ: 188
भाषा हिन्दी
विधा लघु कथाएँ


ड्योढ़ी के लेखक मशहूर शायर, गीतकार, संवाद और पटकथा लेखक गुलज़ार हैं। इस पुस्तक में लघु कहानियों का संग्रह है। यह पुस्तक 'वाणी प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित की गई थी। ‘ड्योढ़ी’ गुलज़ार का हिन्दी में अनूदित दूसरा संग्रह है। उर्दू में लिखी गयी इन कहानियों का हिन्दी अनुवाद युवा कवि और संगीतविद यतींद्र मिश्र ने किया है।

पुस्तक के सन्दर्भ में

इस संग्रह में गुलज़ार ने ज़िंदगी के तजुर्बो और अहसासों के साथ पुराने यारों से जुड़ी घटनाओं और यादों की कहानियाँ कही हैं। इनके तजरुमे में यतींद्र इन कहानियों की रूह को बरकरार रखने में कामयाब दिखते हैं। यह संग्रह गुलज़ार ने रंगमच के जाने-माने निर्देशक सलीम आरिफ को समर्पित किया है। सलीम इस संग्रह की कुछ कहानियों जैसे ‘अठन्नियां’, ‘झड़ी’, ‘बास’ का प्रकाशन से पूर्व ही मंचन कर चुके हैं। इस संग्रह की कहानियाँ आठ हिस्सों में हैं और हर हिस्सें की तीन से चार छोटी-बड़ी मिलाकर कुल पच्चीस कहानियाँ यहाँ हैं। अनुक्रम में हर हिस्से की शुरुआत में उनमें मौजूद कहानियों के किसी सिरे को छूता एक शेर है। यह अंदाज़कहानीकार के साथ शायर गुलज़ार की मौजूदगी का भी एहसास कराता है।

‘ड्योढ़ी’ में गुलज़ार ने यारों की ज़िंदगी से जुड़े संस्मरणों के अहसास चुने और उन्हें क़िस्सा गोई में पिरोकर पेश किया है। जैसे- ‘किताबों से कभी गुजरो तो यूं किरदार मिलते हैं, गये वक्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं। इस ड्योढ़ी में ‘साहिर और जादू’ हैं तो ‘कुलदीप नैयर और पीर साहब’ सहित ‘भूषण बनमाली’ भी हैं। ये छोटी-छोटी कहानियाँ दोस्तों की ज़िंदगी से जुड़ी घटनाओं में मौजूद अहसासों से ओस की तरह चुन ली गयी हैं। इन्हें पढ़ते हुए ओस की नमी आखों की कोर में स्वाभाविक रूप से चली आती है। ‘साहिर और जादू’ गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ गीतकार जावेद अख्तर के आत्मिक संबंध की कहानी है। सौ रुपये के इस किस्से का अंत साहिर की मौत पर जावेद अख्तर के फूट-फूट कर रोने से होता है, जो दिल को छू लेता है।

गुलज़ार ने भारत पाक विभाजन को गहरायी से महसूस किया है और उस पर काफ़ी लिखा भी है, क्योंकि उनका बचपन भी सीमा के उस पार छूट गया है। ‘कुलदीप नैयर और पीर साहब’ में वह वरिष्ठ पत्रकार और अपने दोस्त कुलदीप नैयर के बचपन और उनकी माँ की आस्था से जुड़े एक पीर साहब और बंटवारे की खाई में समा गयी जगहों की कहानी कहते हैं संस्मरण की तर्ज पर। कई बार अपनी जमीन से मीलों दूर आ जाने के बाद भी हम खुद को वहाँ मौजूद निशानियों से अलग नहीं कर पाते और उन पर हमारा विश्वास बरकरार रहता है। लेकिन उस जमीन तक लौट न सकने की बेबसी मन को सालती रहती है तभी बाघा बॉर्डर की ओर जा रहे नैयर साहब अपने इस दोस्त से कहते हैं ‘ये सड़क अगर इसी तरह सीधी चलती रहे, ना कोई वीजा पूछे, ना कोई पासपोर्ट देखे, और मैं पाकिस्तान घूम कर आ जाऊं, तो क्या लूट लूंगा उस मुल्क का? आखिर वो वतन भी तो मेरा है। जड़ें वहाँ रखी हैं और शाखें काटकर इधर ले आये।’ ये पंक्तियाँ एकबारगी एहसास दिलाती हैं कि सियासत की लकीरें कैसे इनसान को ज़िंदगी भर का जख्म दे जाती हैं।

संग्रह में मुंबई की झोपड़ पट्टियों और फुटपाथ पर रहने वालों की ज़िंदगी की कहानियाँ अत्यंत मार्मिक ढंग से कही गयी है। इन्हें कहने के लिए मुंबइया पात्र ही नहीं मुंबइया टोन को इतने बेहतर ढंग से इस्तेमाल किया गया है कि कहानी के दृश्य सामने आ खड़े होते हैं। इसे गुलज़ार की क़िस्सा गोई की ख़ासियत भी कह सकते हैं। ‘बास’, ‘झड़ी’, ‘सारथी’ और ‘फुटपाथ’ में मुंबई की झोपड़ पट्टी की ज़िंदगी, हर बरसात की बाढ़ और फुटपाथ पर रेंगते किरदारों की कहानियां हैं। ‘फुटपाथ से’ में हीरा कहती है- ‘फुटपाथ की ज़िंदगी साला ऐसी इच है।’ इस कहे गये में फुटपाथ पर रहने वालों की एक नहीं कई व्यथाएँ झांकती हैं। कब कोई बड़ी मोटर कार ऊपर से गुजर जाये कोई नहीं जानता।

एल ओ सी, ओवर, दुम्बे, कहानियाँ पढ़ते हुए हम खुद को सरहद पर के बीचों-बीच खड़ा पाते हैं। विभाजन की पीड़ा से जिन लोगों का सामना नहीं हुआ है वे भी इन कहानियों के मार्फत उस दर्द को टटोल सकते हैं। ये कहानियाँ कहीं-कहीं चौंकाती भी हैंँ गुलज़ार के किस्सों का फलक यहीं नहीं रुकता, वह इतना व्यापक होता जाता है कि ‘तलाश’ में फौज के कंटीले तारों से घिरे कश्मीर और वहाँ की ज़िंदगी के दर्द को भी छू लेता है। जितनी कहानियाँ उतने सिरे। कोई भी एक दूसरे से नहीं मिलता पर हर जगह बात इनसानी पीड़ा की करता है। विदाई में लेखक जनकवि गोरख पांडेय की कहानी कहते हैं। कहीं पहाड़ के दुरूह रास्ते भी मिलते हैं शॉर्ट कट के मार्फत। सांझ में रिश्तों की बारीक डोर को देखते हैं। लाला जी को पत्नी का बिना बताए बाल कटाने जैसी मामूली बात भी उन्हें इतना आघात पहुंचाती है कि उनके अंत का सबब बन जाती है।


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