चार्वाक के सिद्धान्त  

  • जिस प्रकार आस्तिक दर्शनों में शंकर दर्शन शिरोमणि के रूप में स्वीकृत है उसी प्रकार नास्तिक दर्शनों में सबसे उत्कृष्ट नास्तिक के रूप में शिरोमणि की तरह चार्वाक दर्शन की प्रतिष्ठा निर्विवाद है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक इसलिए भी माना जाता है कि वह विश्व में विश्वास के आधार पर किसी न किसी रूप में मान्य ईश्वर की अलौकिक सर्वमान्य सत्ता को सिरे से नकार देता है। इनके मतानुसार ईश्वर नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक जो कुछ बाहरी इन्द्रियों से दिखाई देता है अनुभूत होता है, उसी की सत्ता को स्वीकार करता है। यही कारण है कि चार्वाक के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण को छोड़ कर कोई दूसरा प्रमाण नहीं माना गया है। जिस ईश्वर की कल्पना अन्य दर्शनों में की गई है उसकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भव नहीं है। इनके मत से बीज से जो अंकुर का प्रादुर्भाव होता है उसमें ईश्वर की भूमिका को मानना अनावश्यक एवं उपहासास्पद ही है। अंकुर की उत्पत्ति तो मिट्टी एवं जल के संयोग से नितान्त स्वाभाविक एवं सहज प्रक्रिया से सर्वानुभव सिद्ध है। इस स्वभाविक कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी अदृष्ट कर्त्ता की स्वीकृति निरर्थक है।
  • ईश्वर को न मानने पर जीव सामान्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों के फल की व्यवस्था कैसे सम्भव होगी? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक पूछता है कि किस कर्म फल की व्यवस्था अपेक्षित? संसार में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं। एक लौकिक तथा दूसरा अलौकिक कर्म। क्या आप लौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तित हैं? यदि हाँ, तो यह चिन्ता अनावश्यक है। लौकिक कर्मों का फल विधान तो लोक में सर्व मान्य[१] राजा या प्रशासक ही करता है। यह सर्वानुभव सिद्ध तथ्य, प्रत्यक्ष ही है। हम देखते हैं कि चौर्य कर्म आदि निषिद्ध कार्य करने वाले को उसके दुष्कर्म का समुचित फल, लोक सिद्ध राजा ही दण्ड के रूप में कारागार आदि में भेज कर देता है। इसी प्रकार किसी की प्राण रक्षा आदि शुभ कर्म करने वाले पुरुष को राजा ही पुरस्कार रूप में सुफल अर्थात् धन धान्य एवं सम्मान से विभूषित कर देता है।
  • यदि आप अलौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सन्दर्भ में सचिन्त हैं तो यह चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पारलौकिक फल की दृष्टि से विहित ये सभी यज्ञ, पूजा, पाठ तपस्या आदि वैदिक कर्म जन सामान्य को ठगने की दृष्टि से तथा अपनी आजीविका एवं उदर के भरण पोषण के लिए कुछ धूर्तों द्वारा कल्पित हुए हैं। वास्तव में अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिदण्ड का धारण तथा शरीर में जगह जगह भस्म का संलेप बुद्धि एवं पुरुषार्थ हीनता के ही परिचायक हैं। इन वैदिक कर्मों का फल आज तक किसी को भी दृष्टि गोचर नहीं हुआ है। यदि वैदिक कर्मों का कोई फल होता तो अवश्य किसी न किसी को इसका प्रत्यक्ष आज तक हुआ होता। अत: आज तक किसी को भी इन वैदिक या वर्णाश्रम-व्यवस्था से सम्बद्ध कर्मों का फल-स्वर्ग, मोक्ष, देवलोक गमन आदि प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं है अत: ये समस्त वैदिक कर्म निष्फल ही हैं, यह स्वत: युक्ति पूर्वक सिद्ध हो जाता है।

अदृष्ट एवं ईश्वर का निषेध

यहाँ यदि आस्तिक दर्शन यह कहे कि परलोक स्वर्ग आदि को सिद्ध करने वाला व्यापार अदृष्ट या धर्म एवं अधर्म है जिससे स्वर्ग की सिद्धि होती है तो यह चार्वाक को स्वीकार्य नहीं है। अलौकिक अदृष्ट का खण्डन करते हुए चार्वाक स्वर्ग आदि परलोक के साधन में अदृष्ट की भूमिका को निरस्त करता है तथा इस प्रकार आस्तिक दर्शन के मूल पर ही कुठाराघात कर देता है। यही कारण है कि अदृष्ट के आधार पर सिद्ध होने वाले स्वर्ग आदि परलोक के निरसन के साथ ही इस अदृष्ट के नियामक या व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर का भी निरास चार्वाक मत में अनायास ही हो जाता है।

जीव एवं चैतन्य की अवधारणा

  • चार्वाक मत में कोई जीव शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर ही जीव या आत्मा है। फलत: शरीर का विनाश जब मृत्यु के उपरान्त दाह संस्कार होने के बाद हो जाता है तब जीव या जीवात्मा भी विनष्ट हो जाता है। शरीर में जो चार या पाँच महाभूतों का समवधान है, यह समवधान ही चैतन्य का कारण है। यह जीव मृत्यु के अनन्तर परलोक जाता है यह मान्यता भी, शरीर को ही चेतन या आत्मा स्वीकार करने से निराधार ही सिद्ध होती है। शास्त्रों में परिभाषित मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ भी चार्वाक नहीं स्वीकार करता है। चेतन शरीर का नाश ही इस मत में मोक्ष है। धर्म एवं अधर्म के न होने से चार्वाक सिद्धान्त में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वर्ग एवं नरक आदि फल भी नहीं है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है।[२] यहाँ यह प्रश्न सहज रूप में उत्पन्न होता है कि चार या पाँच भूतों के समवहित होने पर चैतन्य कैसे प्रादुर्भूत हो जाता है? समाधान में चार्वाक कहता है कि जैसे किण्व[३], मधु, शर्करा[४], चावल, यव, द्राक्षा, महुआ, सेब आदि पदार्थ पानी आदि के साथ कुछ दिन विशेष-विधि से रखने के बाद विकृत हो कर मद्य में परिवर्तित हो जाते हैं तथा अचेतन होने पर भी मादकता शक्ति को उत्पन्न कर देते हैं ठीक उसी प्रकार शरीर रूप में विकारयुक्त भूत-समूह भी चैतन्य का उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार ताम्बूल, सुपारी, तथा चूने के संयोग से जैसे लाल रंग उत्पन्न होता है वैसे ही भूत, शरीर में जब परस्पर संयुक्त होते हैं, तो जड़ के रूप में प्रसिद्ध भूतों से भी चैतन्य उत्पन्न हो जाता है।[५]
  • चार्वाक के मत में चेतन शरीर में विद्यमान चैतन्य ज्ञान नामक गुण ही है। यह शरीर में समवाय सम्बन्ध से रहता है। शरीर में समवाय सम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति में तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर कारण है, ऐसा कार्यकारण भाव ज्ञान एवं शरीर के मध्य चार्वाक को अभिमत है। आस्तिक दर्शनों के अनुसार मुक्त आत्मा में जैसे ज्ञान नहीं होता है उसी तरह चार्वाक मत में भी मृत शरीर में ज्ञान के अभाव का उपपादन हो जाता है। ये लोग प्राण के अभाव से मृत शरीर में ज्ञान के अभाव को सिद्ध करते हैं।
  • तात्पर्य यह है, यदि यह कहा जाय कि जहाँ शरीर होता है वहाँ ज्ञान होता है। तो यह कार्य कारण भाव मृत शरीर में ज्ञान के कारण शरीर के होने के बाद भी कार्य ज्ञान के न होने से अन्वय व्यभिचार होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस अन्वय व्यभिचार का समाधान करते हुए चार्वाक का कथन है कि ज्ञान को उत्पन्न करने के लिए केवल शरीर कारण नहीं, प्रत्युत प्राण से युक्त शरीर कारण है। फलत: मृत शरीर में ज्ञान का कारण प्राण से संयुक्त शरीर भी नहीं है और कार्य ज्ञान भी नहीं हे अत: अन्वय व्यभिचार का वारण चार्वाक मत में हो जाता है। इस प्रकार शरीर ही आत्मा है, यह चार्वाक दर्शन के अनुसार सिद्ध होता है। मैं मोटा हूँ। मैं दुबला हूँ। मैं करता हूँ। इस प्रकार के व्यवहार का आधार स्थूलता, कृषता एवं क्रिया को जन्म देने वाली कृति या प्रयत्न, शरीर में प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। परिणामस्वरूप अहं पद का विषय शरीर से भिन्न कुछ भी नहीं है यह निराबाध सिद्ध हो जाता है।
  • कुछ चार्वाक चैतन्य का अर्थ चेतनता अर्थात् आत्मत्व करते हैं। इस प्रकार ज्ञान का मतलब ज्ञान की अधिकरणता ही है। इस तरह मृत शरीर में ज्ञान के न होने पर भी ज्ञान की अधिकरणता ठीक उसी प्रकार है जैसे आस्तिकों के सिद्धान्त में मुक्त आत्मा में ज्ञान के न होने पर भी ज्ञान की अधिकरणता अक्षुण्ण मानी जाती है। मृत शरीर के ज्ञान का अधिकरण होने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति का आश्रय न होना शरीर में प्राण के न होने से सूपपन्न हो जाता है।

शरीरात्मवाद में स्मरण का उपपादन

चार्वाक मत में शरीर को ही आत्मा मान लेने पर बाल्यावस्था में अनुभूत कन्दुक क्रीडा आदि का वृद्धावस्था या युवावस्था में स्मरण कैसे होता है? यह एक ज्वलन्त प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि बाल्यावस्था का शरीर, वृद्धावस्था का शरीर एवं युवावस्था का शरीर एक ही है। यदि तीनों अवस्थाओं का शरीर एक ही होता तो इन तीनों अवस्थाओं के शरीरों में इतना बड़ा अन्तर नहीं होता। अन्तर से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि शरीर के अवयव जो मांस पिण्ड आदि हैं इनमें वृद्धि एवं ह्रास होता है। तथा इन ह्रास एवं वृद्धि के कारण ही बाल्यावस्था के शरीर का नाश एवं युवावस्था के शरीर की उत्पत्ति होती है यह भी सिद्ध होता है। यदि यह कहें कि युवावस्था के शरीर में यह वही शरीर है, यह व्यवहार होने के कारण शरीर को एक मान कर उपर्युक्त स्मरण को उत्पन्न किया जा सकता है, तो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि यह वही शरीर है यह प्रत्यभिज्ञान तो स्वरूप एवं आकृति की समानता के कारण होता है। फलत: दोनों अवस्थाओं के शरीरों को अभिन्न नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में पूर्व दर्शित बाल्य-काल के स्मरण को सम्पन्न करने के लिए चार्वाक बाल्यकाल के शरीर में उत्पन्न क्रीड़ा से जन्य संस्कार दूसरे युवा-काल के शरीर में अपने जैसे ही नये संस्कार पैदा कर देते हैं। इसी प्रकार युवावस्था के शरीर में विद्यमान संस्कार वृद्धावस्था के शरीर में अपने जैसे संस्कार उत्पन्न कर देते हैं। एतावता इन बाल्यावस्था के संस्कारों के उद्बोधन से चार्वाक मत में स्मरण बिना किसी बाधा के हो जाता है। अन्तत: चार्वाक दर्शन में शरीर ही आत्मा है यह सहज ही सिद्ध होता है।

  • यदि शरीर ही आत्मा है तो चार्वाक से यह पूछा जा सकता है कि 'मम शरीरम्' यह मेरा शरीर है, ऐसा लोकसिद्ध जो व्यवहार है वह कैसे उत्पन्न होगा? इस व्यवहार से तो यह प्रतीत हो रहा है कि शरीर अलग है एवं शरीर का स्वामी कोई और है, जो शरीर से भिन्न आत्मा ही है। इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक कहता है कि जैसे दानव विशेष के सिर को ही राहू कहा गया है, फिर भी जन-सामान्य 'राहू का सिर' यह व्यवहार बड़े ही सहज रूप में करता है, उसी प्रकार शरीर के ही आत्मा होने पर भी 'मेरा शरीर' यह लोकसिद्ध व्यवहार उपपन्न हो जायेगा। चार्वाकों में कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानने पर इन्द्रिय के नष्ट होने पर स्मरण की आपत्ति का निरास नहीं हो पाता है। किन्हीं चार्वाकों ने प्राण एवं मन को भी आत्मा के रूप में माना है।
  • शरीर ही आत्मा है यह सिद्ध करने के लिए चार्वाक [६] इस वेद के सन्दर्भ को भी आस्तिकों के सन्तोष के लिए प्रस्तुत करता है। इस वेद वचन का तात्पर्य है कि 'विज्ञान से युक्त आत्मा इन भूतों से उत्पन्न हो कर अन्त में इन भूतों में ही विलीन हो जाता है। यह भूतों में शरीर स्वरूप आत्मा का विलय ही मृत्यु है।'

परलोक का प्रतिषेध

  • इस प्रकार चार्वाक दर्शन, मात्र शरीर केन्द्रित हो कर समस्त अलौकिक एवं पारलौकिक तत्त्वों से स्वयं को दूर कर नास्तिकता की पराकष्ठा का वरण कर लेता है। यही कारण है कि यह नितान्त निरंकुश हो कर वेद सम्मत सभी मान्यताओं का रोचक शब्दों में खण्डन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चार्वाक वह विचार है जो जन सामान्य के दैनिक जीवन में सहज रूप में अनुस्यूत है। चार्वाक वह मत है जो हर व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति को उजागर करता है। जिस प्रकार पारलौकिक तथ्यों को विशेष प्रयास के साथ विभिन्न दार्शनिकों ने सुव्यवस्थित कर विभिन्न ग्रन्थों के रूप में समाज के समक्ष रखा उसी प्रकार एक प्रयास जन सामान्य में व्याप्त सहज प्रवृत्ति को भी लिपि बद्ध करने के लिए चार्वाक द्वारा किया गया जो चार्वाक दर्शन के रूप में हमारे समक्ष है।
  • परलोक की मान्यता को उपहासास्पद बताते हुए चार्वाक प्रत्यक्ष, 'मनुष्य लोक' को ही एक लोक मानता है। बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ज्ञात पदार्थ ही इस संसार में माने जा सकते हैं। घ्राण, रसना, चक्षु, त्वचा एवं श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ ही प्रसिद्ध हैं, इनसे जिन पदार्थों का साक्षात्कार होता है वे पदार्थ ही चार्वाक को स्वीकार्य हैं। इन बाह्य इन्द्रियों से क्रमश: गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द का अवबोध होता है। इस संसार में सुरभि असुरभि गन्ध का अनुभव कर लोगों को प्रफुल्लित होते हुए देखा गया हैं तिक्त, कटु, कषाय आदि छ: रसों के आस्वाद से आह्लादित होते जन-सामान्य को देखा जाता है। भूमि, भूधर, भुवन, भूरुह-वृक्ष, स्तम्भ, सरोरुह आदि का निरीक्षण कर पुलकित होते लोक को सुना गया हें वस्तु के मृदु, कठोर, शीत, उष्णा, एवं अनुष्णाशीत स्पर्श से रोमांचित जनों का प्रत्यक्ष किया गया है। विविध वेणु, वीणा, एवं मनुष्य पशु पक्षियों से सम्बद्ध मधुर वाणी को अविचल हो सुनते देखा गया है।
  • यहाँ चार्वाक पूछता है कि क्या इन अनुभवों से अतिरिक्त भी काई अनुभव कहीं शेष बचता है? कथमपि नहीं। पृथ्वी जल तेज़ वायु से समुत्पन्न चैतन्य को छोड़ कर चैतन्य के हेतु के रूप में परलोक जाने वाले किसी जीव की कल्पना, जिसका किसी को आज तक साक्षात्कार नहीं हो सका है, कथमपि संगत नहीं माना जा सकता। इस प्रकार यदि जीव नहीं है तो इसके सुख दु:ख की सुव्यवस्था के लिए अदृष्ट या धर्म अधर्म की कल्पना करना तथा धर्म अधर्म के द्वारा प्रसूत फल के समुपभोग के लिए स्वर्ग एवं नरक के रूप में आधार भूमि की परिकल्पना, इसी प्रकार पुण्य एवं पाप दोनों के क्षय से समुत्पन्न मोक्ष सुख की वर्णना, क्या आकाश में विचित्र चित्र की रचना की तरह उपहासास्पद नहीं है?
  • इतना सब कुछ होने पर भी यदि कोई अनाघात, अनास्वादित, अदृष्ट, अस्पृष्ट एवं अश्रुत जीव का समादर करता हुआ स्वर्ग एवं अपवर्ग आदि सुख की समीहा से विभ्रम वश सिर एवं दाढ़ी के केशों का मुण्डन करवाकर, अत्यन्त दुरूह व्रतों का धारण कर, कठिन तपश्चर्या कर, अत्यधिक दु:सह प्रखर सूर्य के ताप को सहन कर इस दुर्लभ मानव जन्म को नीरस बनाता है तो वह वास्तव में महामोह के दुष्चक्र में घिरा दया का ही पात्र कहा जा सकता है।[७] आवश्यक यह है कि हम इस प्रकार के दुष्चक्र से बाहर निकल कर वास्तविकता को स्वीकार करें। इस प्रकार की भूमिका का निर्माण ही चार्वाक दर्शन का मूल लक्ष्य है।

चार्वाक का नव्य एवं प्राच्य भेद

  • चार्वाक दर्शन की प्रस्तावना के साथ ही प्राय: हर दर्शन अपने मत की स्थापना करता है। जब चार्वाक का खण्डन अपने-अपने सम्प्रदाय के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने किया तब चार्वाक ने भी आवश्यकतानुसार अपनी मान्यताओं में अपरिहार्य एवं लोकानुमत परिष्कार को सहर्ष मान्यता दी। जिस प्रकार न्याय दर्शन में प्राचीन एवं नव्य दो धाराएँ कालक्रम से आवश्यकता के आधार पर विद्वानों के समक्ष उपस्थित हुईं, उसी प्रकार चार्वाक दर्शन की भी दो विचारधाराओं का प्राच्य एवं नव्य रूप में समाज के समक्ष प्रादुर्भाव हुआ।
  • जब चार्वाक ने प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण मानने वालों से कहा कि प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है इससे अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण नहीं है। तब कुछ सहज प्रश्न अन्य दर्शन के आचार्यों ने उठाये जो चार्वाक को भी समुचित लगे।
  • उदाहरणार्थ जब न्याय दर्शन के आचार्यों ने कहा कि यदि अनुमान प्रमाण नहीं है तो किसी व्यक्ति के मुखमण्डल पर आविष्कृत रेखाओं को देख चार्वाक भी सुख दु:ख आदि भावों को कैसे जान सकता है? जब कहीं भवन के ऊपर गगन को चूमती धूएँ की रेखा दिखायी पड़ती है तो क्या जनसामान्य को जो मकान पर आग की निश्चयात्मक अनुमिति होती है वह चार्वाक को नहीं होती है? इस तरह के तलस्पर्शी प्रश्नों के फलस्वरूप चार्वाक की नव्य परम्परा ने अपने विचारों को किंचित परिष्कृत अवश्य कर लिया।

नव्य परम्परा में अनुमान एवं गगन मान्य

यही कारण है कि नव्य चार्वाकों ने अनुमान को भी प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया। इतना अवश्य है कि उसी अनुमान को चार्वाक की इस नवीन धारा ने स्वीकार किया जो लोक प्रसिद्ध व्यवहार को उपपन्न करने के लिए अपरिहार्य थे।[८] जैसे धूएँ को देख आग का अनुमान। मुख पर उभरी रेखाओं को देख सुख या दु:ख का अनुमान। परन्तु अलौकिक धर्म एवं अधर्म को स्वर्ग या नरक को सिद्ध करने वाले अनुमान का तो चार्वाकों ने एक मत से खण्डन ही किया है।

  • इसी क्रम में नव्य चार्वाकों ने चार भूतों को मानने की परम्परा को परिष्कृत कर पाँच भूतों को स्वीकार कर लिया। सर्वमान्य अवकाश रूप आकाश को न मानना सम्भवत: चार्वाक के लोकायत स्वरूप को ही छिन्न-भिन्न कर देता। इसीलिए अपने स्वरूप की रक्षा करते हुए अवकाश के रूप में प्रसिद्ध आकाश को स्वीकार कर[९] नव्य चार्वाकों ने बुद्धिमानी का ही परिचय दिया है। इस प्रकार आत्मा शरीर ही है। परमात्मा लोक में प्रसिद्ध राजा है। मोक्ष शरीर का नष्ट होना ही है।[१०] स्वर्ग आदि लौकिक दृष्टि से परे कोई परलोक नहीं हैं। इस लोक में अनुभूत विशिष्ट सुख ही स्वर्ग है। इसी प्रकार दु:ख के कारण कण्टक आदि से उत्पन्न इस लोक में अनुभूत दु:ख ही नरक है।[११] कोई अमर नहीं हैं सबकी मृत्यु एक दिन होती ही है। इन धारणाओं से अभिभूत चार्वाक की स्पष्ट अवधारा है कि जब तक मानव जीवन है तब तक सुख के साथ जीना चाहिए। दूसरों से ऋण लेकर भी घी पीना सम्भव हो तो नि:संकोच पीना चाहिए।[१२] ऋण न दे पाने के डर से या पुनर्जन्म होने पर लिए गये ऋण का कई गुना अधिक उस व्यक्ति को वापस करना पड़ेगा इस भय से व्यग्र न हों क्योंकि शरीर के श्मशान में भस्म हो जाने पर देह का पुन: जन्म कथमपि सम्भव नहीं है।
  • इस दर्शन में पृथ्वी जल तेज़ एवं वायु ये चार भूत ही तत्त्व के रूप में माने गये हैं। वास्तव में ये तत्त्व द्रव्य ही हैं। काल दिशा आत्मा एवं मन द्रव्य या तत्त्व के रूप में चार्वाक दर्शन में मान्य नहीं हैं। क्यों कि इनका इन्द्रियों से प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है। चार्वाक यदि चार द्रव्यों को मानता है तो इन चार द्रव्यों में रहने वाले इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य गुण ही इस दर्शन में स्वीकृत हो सकते हैं। ऐसे गुणों में रूप, रस गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दु:ख, अवश्य स्वीकार करेगा क्योंकि यह कर्म भी इस दर्शन में स्वीकृत चार द्रव्यों का असाधारण धर्म है। इनमें पाँच भेद उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, एवं गमन के रूप में भी चार्वाक दर्शन में अवश्य स्वीकार्य होंगे। पर एवं अपर भेद से सामान्य भी ये मानेंगे ही। इसी प्रकार विशेष एवं समवाय एवं अभाव भी इन्हें मानना होगा क्योंकि इनका भी सम्बन्ध इनके द्वारा अभिप्रेत चार भूतों से है। यह सम्भव है कि प्राचीन चार्वाक इन गुणों में से मात्र उन गुणों को ही स्वीकार करे जो मात्र प्रत्यक्ष हैं क्योंकि इसके सिद्धान्त में अनुमान प्रमाण की मान्यता नहीं है।

काम ही परम-पुरुषार्थ

  • शरीर रूपी आत्मा को जो अच्छा लगे चार्वाक की दृष्टि में वही सुख है। अंगना आदि के आलिंगन आदि से जो सुख मिलता है, वही काम रूप प्रमुख पुरुषार्थ है। ये लौकिक सुख, दु:ख से मिश्रित होने के कारण पुरुषार्थ कैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न नहीं करना चाहिए। सांसारिक हर सुख, दु:ख से मिश्रित तो होता ही है। बुद्धिमान व्यक्ति दु:ख को छोड़ कर केवल सुख का ही उपभोग ठीक वैसे ही करता है, जैसे आम, संतरा आदि फल का सेवन करने वाला व्यक्ति छिलके एवं गुठली का त्यागकर फल का रसास्वाद लेता है, जैसे मछली खाने वाला व्यक्ति छिलके एवं काँटें के साथ मिली मछली से काँटों एवं छिलकों को निकाल कर मात्र खाद्य अंश को ही खाता है। धान की कामना करने वाला व्यक्ति खेत से पुआल के साथ धान को लाता तो अवश्य है, परन्तु अनपेक्षित अंश पुआल को छोड़ कर मात्र धान का ही संग्रह करता है। फलत: संसार में दु:ख के भय से अनुकूल लगने वाले सुख का त्याग कथमपि समुचित नहीं है ऐसा चार्वाक दर्शन का अभिमत है।
  • संसार में कभी भी यह नहीं देखा गया है कि खेतों में किसान धान के बीज इसलिए नहीं बोता है कि धान को हरिण भविष्य में खा कर नष्ट कर देंगे। देश में भिक्षुक हैं इसलिए भोजन निर्माण के लिए कोई बटलोई चूल्हे पर न रखता हो ऐसा भी कभी नहीं देखा जाता है। इसी प्रकार यदि कोई दु:ख से अत्यन्त डरने वाला व्यक्ति सुख को छोड़ देता है तो वह पशु से भी बड़ा मूर्ख ही माना जायेगा। वास्तव में यह मूर्खता से भरा ही विचार होगा कि सुख दु:ख के साथ उत्पन्न होता है अत: सुख का सर्वथा परित्याग कर देना श्रेयस्कर है। क्या अपना हित चाहने वाला कोई मनुष्य कभी भी सफ़ेद एवं अच्छे धान के दानों को केवल इसलिए छोड़ता है कि वह धान भूसी एवं अनपेक्षित धूल से युक्त है। कभी नहीं। परिणामस्वरूप सुख पुरुषार्थ है यह सिद्ध होता है।
  • यदि संसार में कोई स्वर्ग आदि के रूप में अलौकिक सुख मान्य नहीं है तो विद्वान् लोग पर्याप्त धन एवं प्रयास से साध्य, यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान में सोत्साह प्रवृत्त क्यों होते हैं? लोग अत्यन्त श्रद्धा एवं उत्साह से इन भव्य आयोजनों में तत्पर देखे जाते हैं। फलत: अलौकिक सुख स्वर्ग आदि के रूप में अवश्य मानना चाहिए यह तर्क युक्त नहीं है। इन वैदिक अनुष्ठानों को; झूठा, परस्पर विरोधी एवं पुनरुक्ति दोष से दूषित होने के कारण प्रमाणिक किसी भी प्रकार से नहीं माना जा सकता है। अपने को वैदिक मानने वाले धूर्त्त आपस में ही एक दूसरे को खण्डन करते देखे जा सकते हैं। कर्म काण्ड को प्रमाण मानने वाले विद्वान् ज्ञान काण्ड की, तथा ज्ञान काण्ड को प्रमाण स्वीकार करने वाले वैदिक विद्वान् कर्मकाण्ड की परस्पर निन्दा करते देखे जाते हैं। इस प्रकार इन वैदिकों के व्यवहार से ही इन दोनों वैदिक मतों की नि:सारता स्वत: सिद्ध हो जाती है।[१३]

अनुमान एवं शब्द के प्रामाण्य का प्रतिषेध

  • स्वर्ग आदि परलोक नहीं हैं। धर्म एवं अधर्म की सत्ता नहीं है। ईश्वर कोई पारलौकिक तत्त्व नहीं है। सब कुछ इस लोक में ही है। यह तभी प्रामाणिक रूप में चार्वाक सिद्ध कर सकता है जब वह अनुमान की प्रामाणिकता का खण्डन करे। यदि अनुमान प्रमाण है तो इन पारलौकिक पदार्थों की अनुमान प्रमाण से हो रही सिद्धि को कौन रोक सकता है। इस प्रकार का प्रश्न अनुमान को प्रमाण मानने वाले विद्वानों की ओर से उठाया जाता है। यदि अनुमान प्रमाण नहीं होता तो धुएँ को देखने के अनन्तर जनसामान्य को कभी भी आग की अनुमिति नहीं होती। जो लोग प्रेक्षावान[१४] विवेचक हैं अर्थात् प्रकृष्ट फल का नाम से उल्लेख हुए बिना जो शास्त्र के चिन्तन आदि में प्रवृत्त नहीं होते हैं, वे भी सहज रूप से अनुमान करने में प्रवृत्त देखे जाते हैं। फलत: अनुमान को प्रमाण अवश्य मानना चाहिए।
  • 'नदी के किनारे फल रखे हुए हैं', यह वाक्य सुनने के बाद फल की कामना करने वालों में नदी के किनारे जाने के लिए प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रवृत्ति से यह सिद्ध होता है कि वाक्यों को सुनने के बाद भी जन सामान्य में जो सहज क्रिया होती है वह स्वतन्त्र शब्द प्रमाण मानकर शब्दबोध होने पर ही सम्भव है।
  • इस शब्द के सम्बन्ध में कहा गया है कि, यह शब्द बिना किसी भेद भाव के अपने अर्थ का साक्षात्कार सभी को करा देता है। बस अपेक्षा इतनी ही होती है कि इसका प्रयोग व्यवस्थित रूप में किया जाना चाहिए। यहाँ व्यवस्थित रूप से तात्पर्य है कि जिन शब्दों का प्रयोग हो रहा है उनमें परस्पर आकांक्षा, योग्यता एवं आसक्ति आवश्यक रूप में हो। यही कारण है कि शब्द को प्रमाण मानने वालों के यहाँ शब्दमयी देवी सरस्वती[१५] की विशेष मान्यता अन्य देवताओं की अपेक्षा मुक्त कण्ठ से स्वीकार की गई है।
  • शब्द से होने वाले बोध को चार्वाक प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। कारण यह है कि शब्द से होने वाले बोध में, नियमित रूप से वृत्ति ज्ञान के होने के बाद आकांक्षा योग्यता एवं आसक्ति के निर्णय हो जाने पर पद से होने वाले स्मरण के विषय पदार्थों के सम्बन्ध विशेष ही विषय होते हैं। शब्दबोध में इस सम्बन्ध या अन्वय का ही विशेष रूप से बोध होने के फलस्वरूप इस शब्दबोध को अन्वयबोध नाम से भी विद्वत समाज में जाना जाता है।
  • यदि शब्दबोध प्रत्यक्ष होता तो जैसे प्रत्यक्ष अन्य प्रकार से उपस्थित पदार्थों का भी ज्ञानलक्षणा सन्निकर्ष से होता है उसी प्रकार शब्दबोध भी अन्य प्रकार से ज्ञात पदार्थों का अवश्य होता। अत: शब्दबोध में अन्य प्रकार से उपस्थित पदार्थों का बोध अनुभव सिद्ध नहीं है अत: इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। शब्द से होने वाले बोध के अनन्तर मुझे शब्दबोध हो रहा है इस प्रकार अनुव्यवसाय या शब्दबोध का प्रत्यक्ष होता है। मुझे प्रत्यक्ष हो रहा है यह बोध किसी को नहीं होता है। इस कारण भी शब्द से प्रत्यक्ष होता है यह नहीं माना जा सकता है।
  • शब्दबुद्धि को प्रत्यक्ष मानने पर, किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष के प्रति जो शब्दबोध की सामग्री को अवरोधक या प्रतिबन्धक माना जाता है वह नहीं माना जा सकेगा। क्योंकि जो शब्दबोध-स्वरूप प्रत्यक्ष है उसको इस शब्दबोध की सामग्री रोकेगी यह कैसे कहा जा सकता है? यदि कहें कि शब्दबोध-स्वरूप प्रत्यक्ष से भिन्न प्रत्यक्ष में शब्द सामग्री प्रतिबन्धक मानी जा सकती है तो इस प्रकार की लम्बी कल्पना की अपेक्षा शब्दबोध को अलग एक प्रमा मान लेने में ही लाघव है।
  • इन युक्तियों के आधार पर यदि प्रमाण के रूप में अनुमान एवं शब्द भी सिद्ध हो जाएँ तो जिन पदार्थों का निराकरण चार्वाक करता है वह सम्भव नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि चार्वाक अत्यन्त प्रबल एवं स्वाभाविक युक्तियों के आधार पर अनुमान एवं शब्द की अलग प्रमाण के रूप में मान्यता का उपहासपूर्वक अत्यन्त मनोरंजक पद्धति से खण्डन करता है।

व्याप्ति की दुरवबोधता

  • जो लोग अनुमान को पृथक् प्रमाण मानते हैं, उनसे चार्वाक जानना चाहता है कि आप अनुमान का स्वरूप क्या मानते हैं? व्याप्ति एवं पक्षधर्मता से युक्त ज्ञान ही तो अनुमान होगा। यह ज्ञान तब तक सम्भव नहीं है जब तक इस विशिष्ट ज्ञान में विशेषण के रूप में स्वीकृत व्याप्ति को न जान लिया जाय। अनुमान को प्रमाण मानने वालों के मत में उभय विध उपाधि से विधुर सम्बन्ध ही व्याप्ति है। इस व्याप्ति का ज्ञान होने पर ही अनुमिति होती है। प्रत्यक्ष की तरह चक्षु का स्वरूपत: जैसे प्रत्यक्ष प्रमा में उपयोग होता है उस प्रकार व्याप्ति की स्वरूपत: अनुमिति में कोई भूमिका सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में यहाँ यह प्रश्न होता है कि व्याप्ति का ज्ञान किस उपाय से सम्भव है?
  • क्या व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भव है? यदि हाँ तो क्या यह व्याप्ति का बाह्य प्रत्यक्ष है या आन्तर प्रत्यक्ष? व्याप्ति का बाह्य प्रत्यक्ष है यह नहीं माना जा सकता है क्योंकि वर्तमान काल में विद्यमान वस्तु में व्याप्ति का बाह्य इन्द्रियों से प्रत्यक्ष भले हो जाये परन्तु भूत एवं भविष्य काल में विद्यमान वस्तुओं में इस व्याप्ति का ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से कथमपि सम्भव नहीं है। वस्तु में विद्यमान धर्म धूतत्त्व आदि के माध्यम से सभी धूम में चाहे वह भूत में हो या भविष्य में, व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है यह नहीं माना जा सकता। क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर व्यक्ति में व्याप्ति के अभाव की आपत्ति दुष्परिहर हो जायेगी।
  • व्याप्ति का अन्तर अर्थात् मन से प्रत्यक्ष होता है, यह भी नहीं मान्य हो सकता क्योंकि अन्त:करण या मन बर्हीन्द्रियों के सर्वथा अधीन होता है[१६] इसीलिए कभी भी मन स्वतन्त्र रूप से बाह्य विषयों को ग्रहण करने के लिए उद्यत नहीं देखा जाता है। फलत: व्याप्ति का बाह्य एवं अन्तर प्रत्यक्ष कथमपि नहीं हो सकता, यह सुनिश्चित हो जाता है।
  • व्याप्ति का अनुमान प्रमाण से भी साक्षात्कार सम्भव नहीं है। यदि व्याप्ति का ज्ञज्ञन् अनुमान से माना जाएगा तो इसका तात्पर्य यह होगा कि व्याप्ति के इस अनुमान में व्याप्ति साध्य है। व्याप्ति रूप साध्य को सिद्ध करने के लिए कोई हेतु भी होगा ही। इस हेतु में भी व्याप्ति स्वरूप साध्य की व्याप्ति स्वीकार करनी होगी। और इस प्रकार इस हेतु में रहने वाली व्याप्ति की व्याप्ति के ज्ञान के लिए भी पुन: अनुमान का अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह जब कहीं अप्रामाणिक रूप में अनन्त पदार्थ की कल्पना करनी पड़ती है तो इसे अनवस्था दोष कहते हैं। परिणाम में यह निष्कर्ष निकलता है कि व्याप्ति का ज्ञान अनुमान से अनवस्था दोष के कारण असम्भव है।
  • व्याप्ति को शब्द प्रमाण से भी नहीं जाना जा सकता। जब शब्द से किसी अर्थ के बोध के लिए जन सामान्य प्रवृत्त होता है तब कुछ प्रसिद्ध हेतुओं या लिंगों के द्वारा उसे अर्थ विशेष में शब्द विशेष की शक्ति का बोध होता है। वे हेतु- व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्य शेष, विवृति एवं सिद्ध पद की सन्निधि के रूप में विख्यात है।[१७] इन हेतुओं में व्यवहार को अर्थ में शब्द की शक्ति का ज्ञान कराने में सर्वोपरि माना गया है। यदि शक्ति का बोध कराने के लिए वृद्धों के व्यवहार को हेतु के रूप में प्रस्तुत करेंगे तो शक्ति रूप साध्य का अनुमान करने के लिए वृद्धव्यवहार हेतु होगा, तथा इस हेतु में व्याप्ति होगी। इस व्याप्ति का ज्ञान करने के लिए पुन: शब्द प्रमाण का सहयोग लेना पड़ेगा फलत: पुन: पूर्वदर्शित पद्धति से अनवस्था दोष की प्रसक्ति अपरिहार्य हो जाएगी। ऐसी स्थिति में शब्द भी व्याप्ति के ज्ञान कराने में समर्थ नहीं है यह सिद्ध हो जाता है।
  • महर्षि मनु एवं याज्ञवल्क्य आदि के वचनों में जैसे जन सामान्य में अगाध श्रद्धा दृष्टि गोचर होती है वैसी श्रद्धा या विश्वास धूएँ में आग की व्याप्ति या अविनाभाव है इस वचन में नहीं देखी जाती है। अत: व्याप्ति को सिद्ध करने के लिए आप्त वाक्य रूप शब्द को प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता।[१८]
  • इतने उपयों का सहारा ले कर भी यदि व्याप्ति का बोध सम्भव नहीं होता है तो अविनाभाव या व्याप्ति के ज्ञान के बिना धूम आदि को देख कर वह्नि आदि का स्वार्थानुमान भी नहीं हो सकता। स्वर्थानुमान की असम्भावना की स्थिति में परार्थानुमान की कल्पना तो स्वत: निरस्त हो जाती है।
  • अनुमान को प्रमाण मानने वालों की यह मान्यता है कि दूसरे प्रमाण से अर्थात् प्रत्यक्ष से हेतु में व्याप्ति का ज्ञान करने के अनन्तर धूम को पर्वत पर देखने के बाद व्याप्ति का स्मरण होता है तथा व्याप्ति से विशिष्ट धूम के पर्वत में रहने का ज्ञान या पक्षधर्मता ज्ञान होने के अनन्तर पर्वत में आग है यह अनुमिति होती है। यदि शब्द से ही, व्याप्ति से विशिष्ट धूम है यह व्याप्ति-ज्ञान माना जाएगा तो जिस व्यक्ति को शब्द के माध्यम से व्याप्ति का ज्ञान नहीं होता है उसे धूम आदि हेतु से व्याप्ति का ज्ञान नहीं होने के कारण आग आदि का अनुमान नहीं होना चाहिए। जब कि अनुभव यही है कि शब्द से व्याप्ति के ज्ञान के बिना भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से व्याप्ति का ज्ञान होने पर भी अनुमान होता ही है। फलत: शब्द से ही व्याप्ति का ज्ञान होगा यह सिद्धान्त भी स्थिर नहीं हो पाता है।
  • उपमान आदि प्रमाणों से भी हेतु में रहने वाली व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता है। उपमान प्रमाण से संज्ञा एवं संज्ञि अर्थात् नाम एवं नामी के बीच विद्यमान सम्बन्ध का ही बोध माना जाता है। यह सम्बन्ध वाच्यत्व, वाचकत्व, वाच्यवाचकभाव, अथवा शक्ति एवं लक्षणा स्वरूप, शब्द के सम्बन्ध के रूप में विभिन्न सम्प्रदायों में प्रसिद्ध हैं। ये सम्बन्ध तो व्याप्ति के रूप में स्वीकृत नहीं हो सकते। इस तरह उपमान आदि प्रमाणों की भूमिका भी व्याप्ति के अवबोध में सहज रूप में निरस्त हो जाती है।
  • उपाधि से विधुर सम्बन्ध रूप व्याप्ति का भी ग्रह असम्भव दोनों प्रकार की उपाधि से विधुर या रहित सम्बन्ध को व्याप्ति कहा गया है। यह सम्बन्ध-स्वरूप व्याप्ति कभी भी दोनों प्रकार के उपाधियों से विरहित नहीं हो सकती है। संसार में जितनी उपाधियाँ हैं, सब दो प्रकार की ही सम्भव हैं या तो उपाधि प्रत्यक्ष होगी या वह अप्रत्यक्ष होगी। प्रत्यक्ष उपाधियों का विरह योग्यानुपलब्धि से हेतु में सुसिद्ध होने पर भी अप्रत्यक्ष उपाधियों का प्रत्यक्ष तो सम्बन्ध में सम्भव ही नहीं है। यदि कहें कि अप्रत्यक्ष उपाधियों का अनुमान प्रमाण से हेतु में अभाव सिद्ध किया जा सकता है तो पुन: इस अप्रत्यक्ष उपाधि के अनुमान में भी जो हेतु होगा उसमें उभयविध-उपाधि-विधुर सम्बन्ध की अपेक्षा होगी तथा यहाँ भी अप्रत्यक्ष उपाधि को सिद्ध करने के लिए पुन: अनुमान का आश्रय लेना अपरिहार्य हो जाएगा। फलत: अनवस्था दोष वज्रलेप हो जाता है। इस तरह दोनों प्रकार की उपाधियों से विधुर सम्बन्ध रूप व्याप्ति की कल्पना भी अनुचित सिद्ध होती है।

उपाधि-लक्षण

उपाधि किसे कहते हैं? इस प्रश्न का समाधान उपाधि के लक्षण से किया जाता है। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा साधन का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं।[१९] उदाहरणार्थ जब हम पर्वत पर धुएँ को अग्नि से सिद्ध कर रहे होते हैं तब यहाँ अग्नि हेतु उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध या व्यभिचारी होता है। व्याप्यत्व का मतलब व्याप्ति ही होता है। जिस हेतु में व्याप्ति असिद्ध हो उसे ही व्यभिचारी भी तार्किकों की आप्त परम्परा में स्वीकार किया जाता है। उपर्युक्त प्रसिद्ध व्यभिचारी हेतु वाले स्थल में आर्द्र अर्थात् गीले ईंधन के संयोग को उपाधि मानते हैं। यह आर्द्र ईंधन का संयोग जो वह्नि में है वही वास्तव में धुएँ का कारण होता है, यह हर व्यक्ति का अनुभव है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पर्वत में जो धुआँ है वह आग के कारण नहीं अपितु गीली लकड़ी एवं आग से सम्बन्ध के ही कारण हैं, इस तरह यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ रूप साध्य होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग, साध्य का व्यापक है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ आग रूप हेतु होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग नहीं होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग साधन का व्यापक नहीं है अर्थात् अव्यापक है यह सिद्ध हो जाता है। अन्तत: प्रस्तुत सन्दर्भ में आर्द्र ईंधन संयोग के साध्य का व्यापक एवं साधन के अव्यापक होने के कारण गीली लकड़ी के संयोग को उपाधि की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। इस उपाधि से युक्त होने के कारण वह्नि रूप हेतु सोपाधिक होता है। यही कारण है कि वह्नि व्यभिचारी या व्याप्यत्वासिद्ध माना जाता है।

  • कोई हेतु उपाधि के होने मात्र से व्यभिचारी एवं उपाधि के न होने से अव्यभिचारी या सद्धेतु कैसे और क्यों हो जाता है यह प्रश्न सहज रूप में समुपस्थित होता है। यद्यपि इस प्रश्न के ऊपर विस्तार से कई तार्किक ग्रन्थों में विचार है पर विस्तार भय से यहाँ संक्षेप में ही विचार करते हैं। जब प्रस्तुत प्रसंग में उपाधि-आर्द्र ईंधन का संयोग, साध्य-धूम का व्यापक है तथा साध्य का व्यापक यह आर्द्र ईंधन का संयोग प्रकृत हेतु-वह्नि का व्यापक नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है तब यह स्वत: सिद्ध होने में कोई कठिनाई नहीं होती कि प्रकृत साध्य-धूम भी प्रकृत हेतु वह्नि का व्यापक नहीं है। फलत: हेतु में व्यभिचरितत्त्व या स्वाभाववद्वृत्तित्व सम्बन्ध से विद्यमान यह उपाधि अनायास ही साध्य के व्यभिचार का अनुमान करा देता है। इतनी चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी हेतु में व्याप्ति तभी हो सकती है जब उस हेतु में उपाधि न हो। साध्य हेतु के मध्य सम्बन्ध व्याप्ति ही है। एक अधिकरण हेतु में यदि व्याप्ति है एवं उपाधि नहीं है तो उपाधि विधुर व्याप्ति (सम्बन्ध) हो जाती है।
  • साध्य का जो समव्याप्त होगा वह भी साध्य का व्यापक होगा ही। इसी लिए साध्य का जो समव्याप्त हो तथा साधन का अव्यापक हो उसे भी उपाधि कह सकते हैं। एक प्रकार से उपाधि के लक्षण में तीन विशेषण हैं।
  1. पहला विशेषण है 'साध्यव्यापकत्व'।
  2. दूसरा विशेषण है 'साधनाव्यापकत्व' तथा
  3. तीसरा विशेषण है 'साध्यसमव्याप्तत्व'। उपाधि के लक्षण में इन तीनों विशेषणों की उपादेयता है।[२०]

उपाधि के लक्षण से यदि प्रथम विशेषण को हटा दिया जाय तो साधनाव्यापकत्व उपाधि का लक्षण होगा। शब्द:, अनित्य: कार्यत्वात् इस स्थल में घटत्व उपाधि नहीं है। परन्तु इसमें भी साधन कार्यत्व का अव्यापकत्व होने के कारण उपाधि का लक्षण समन्वित होने से अतिव्याप्ति दोष हो जाता है। इस दोष का निवारण करने के लिए साध्यव्यापकत्व उपाधि के लक्षण में विशेषण देना होगा। घटत्व साधन का अव्यापक होने पर भी साध्य-अनित्यत्व का व्यापक नहीं है अत: अतिव्याप्ति का सरलता से निरास हो जाता है।

  • उपाधि के लक्षण से यदि द्वितीय विशेषण को हटा दें तो उपाधि का लक्षण साध्यव्यापकत्व होगा। यह उपाधि का लक्षण कार्यत्व हेतु में अतिव्याप्त होने लगेगा क्योंकि अनित्यत्व का व्यापक कार्यत्व भी होता है। यदि साधनाव्यापकत्व विशेषण उपाधि के लक्षण में दे दें तो कार्यत्व अनित्यत्व के व्यापक होने पर भी कार्यत्व का अव्यापक नहीं है। फलत: अतिव्याप्ति का निराकरण हो जाता है।
  • साध्य की समव्याप्ति उपाधि में अपेक्षित है, ऐसा अगर नहीं कहेंगे तो उपर्युक्त स्थल में अश्रावणत्व में उपाधि के लक्षण की अतिव्याप्ति होने लगेगी। जहाँ जहाँ अनित्यत्व है वहाँ वहाँ अश्रावणत्व होने के कारण प्रथम विशेषण साध्यव्यापकत्व संघटित हो जाता है। साधन कार्यत्व जहाँ जहाँ है, वहाँ वहाँ और जगह अश्रावणत्व के रहने पर भी शब्द में अश्रावणत्व के न होने से अश्रावणत्व में साधनाव्यापकत्व भी है ही। फलत: उपाधि लक्षण की अतिव्याप्ति अपरिहार्य हो जाती है। इस अतिव्याप्ति का वारण साध्यसमव्याप्तत्त्व का लक्षण में निवेश कर देने से हो जाता है। अश्रावणत्व जहाँ जहाँ है वहाँ वहाँ आत्मा आदि में अनित्यत्व के न रहने से अश्रावणत्व का व्यापकत्व साध्य-अनित्यत्व में नहीं होता है। परिणामस्वरूप साध्य की समव्याप्तता अश्रावणत्व में न होने से अतिव्याप्ति सविधि निरस्त हो जाती है।

सम एवं असम व्याप्ति

  • व्याप्ति का सम एवं असम भेद से दो भेद आचार्यों को अभिमत हैं।[२१]
  • जहाँ साध्य एवं हेतु एक दूसरे के परस्पर व्याप्त एवं व्यापक होतें हैं उनमें सम-व्याप्ति है, यह व्यवहार होता है। जैसे शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए कार्यत्व या सकर्त्तृकत्व हेतु में अनित्यात्वसाध्य की सम-व्याप्ति होती है। आर्द्रेन्धन संयोग एवं धूम के बीच भी समव्याप्ति मानी जाती है।
  • यह देखा जाता है कि जहाँ जहाँ साध्य-अनित्यत्व रहता है वहाँ-वहाँ हेतु- कार्यत्व रहता है। फलत: साध्य की व्यपकता हेतु में सिद्ध होती है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ हेतु- कार्यत्व होता है वहाँ-वहाँ साध्य-अनित्यत्व भी होता है। फलस्वरूप हेतु की व्यापकता भी साध्य में प्रसिद्ध हो जाती है। पर्वत: धूमवान् वह्ने:, इस असद्धेतु वाले स्थल में हेतु- वह्नि एवं साध्य-धूम के मध्य समव्याप्ति नहीं है। इस प्रकार इन दोनों के बीच असम-व्याप्ति है यह प्रामाणिकों का व्यवहार होता है। यहाँ धूम एवं आर्द्रेन्धन संयोग के बीच समव्याप्ति होती है। पर आर्द्रेन्धन संयोग एवं आग के बीच असम व्याप्ति ही सिद्ध होती है।
  • जब सम एवं असम व्याप्ति एक जगह पर हो, जैसे- पर्वत: धूमवान् वह्ने:, इस असद्धेतु वाले स्थल में आर्द्रेन्धन संयोग में साध्य-धूम की सम व्याप्ति है एवं इसी आर्द्रेन्धन संयोग में हेतु-वह्नि की असम व्याप्ति है, ऐसी स्थिति में साध्य-धूम के सम व्याप्त आर्द्रेन्धन संयोग से यदि हेतु या साधन-वह्नि व्याप्त नहीं होता है अर्थात् वह्नि की व्याप्ति यदि सम-आर्द्रेन्धन संयोग में नहीं हो पाती तो हेतु को व्याप्तिहीन माना जाता है। इस प्रकार ऐसा हेतु अनुमिति में प्रयोजक भी नहीं माना जाता।

व्याप्ति ज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष

अभाव की बुद्धि के लिए अभाव के प्रतियोगी का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक होता है, ऐसा सर्वमान्य शास्त्रीय सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रस्तुत सन्दर्भ में व्याप्ति-रूप सम्बन्ध में उपाधि के अभाव का ज्ञान करने के लिए उपाधि का पहले बोध अत्यावश्यक हो जाता है। इस उपाधि को जानने के लिए व्याप्ति का ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि उपाधि का लक्षण व्याप्ति से समन्वित है। इस आवश्यकता को ध्यान में रख कर जब हम व्याप्ति के ज्ञान के लिए प्रवृत्त होते हैं, तब व्याप्ति के लक्षण में उपाधि का समावेश मिलता है। फलत: व्याप्ति के विज्ञान के लिए उपाधि का अवबोध अनिवार्य हो जाता है। इस तरह परस्पर व्याप्ति एवं उपाधि को जानने के लिए परस्पर एक दूसरे के ज्ञान के अपेक्षित होने से अन्योन्याश्रय दोष रूपी वज्रलेप हो जाता है। अन्तत: यही निष्कर्ष निकलता है कि अविनाभाव या व्याप्ति का ज्ञान ऊपर चर्चित रीति से कथमपि सम्भव नहीं हैं इस प्रकार व्याप्ति के दुर्बोध हो जाने से अनुमान का प्रत्यक्ष से अलग प्रमाण मानने की कल्पना दिवास्वप्न की भाँति कोरी कपोल कल्पना मात्र बनकर रह जाती है। निष्कर्ष रूप में फिर 'नाऽप्रत्यंक्ष प्रमाणम्' अर्थात् प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण की मान्यता असम्भव है, यह चार्वाक का लोकायत मत ही सिद्ध होता है। चार्वाक का अभीष्ट भी यही है।

अनुमान को न मानने पर व्यवहार की अनुपपत्ति का वारण

चार्वाक यदि अनुमान प्रमाण नहीं मानेगा तो धूम को देख कर आग को जानने की प्रवृत्ति का अपलाप होने लगेगा। इस आपत्ति का निराकरण करते हुए चार्वाक का कहना है कि यह प्रवृत्ति या तो प्रत्यक्ष-मूलिका है या तो भ्रमवश होती है। प्रवृत्ति होने के बाद सफलता एवं असफलता तो मणि मन्त्र एवं औषधि की तरह कभी होती है एवं कभी नहीं होती है। लोक में यह देखा जाता है कि कार्य विशेष को सम्पन्न करने के लिए हम मणि मन्त्र एवं औषधियों का जीवन में प्रयोग तो अवश्य करते हैं पर कार्य कभी सम्पन्न होता है तो कभी नहीं। ठीक उसी प्रकार धूम को देख कर वह्नि के बोध में प्रवृत्त पुरुष को पर्वत के ऊपर वह्नि के मिल जाने पर सफलता भी कभी प्राप्त होती है और कभी नहीं होती है। मणि के स्पर्श से, मन्त्र के प्रयोग से एवं औषधि विशेष के उपयोग से हमें प्रतीत होता है कि हमारा अभिलषित कार्य पूर्ण हो रहा है। परन्तु कार्य तो स्वभावत: सम्पूर्ण होता है। यदि कार्य विशेष को सम्पन्न करने के लिए विशेष कारण के रूप में मणि, मन्त्र एवं औषधियाँ सुनिश्चित होतीं तो नियम से मणि के स्पर्श के बाद, मन्त्रों का विनियोग करने के अनन्तर एवं औषधियों के उपयोग करने के बाद निर्दिष्ट फल ऐश्वर्य आदि का लाभ एवं रोग आदि का निरास होता ही पर ऐसा लोक सामान्य में अनुभव नहीं है। फलत: जिस प्रकार ऐश्वर्य एवं रोग आदि को दूर करने की कारणता मणि, मन्त्र एवं औषधियों में नहीं है। उसी प्रकार धूम एवं वह्नि में भी कोई कार्यकारण भाव नहीं है।

स्वभाव-वाद

  • ऐश्वर्य एवं रोग आदि की कादाचित्क अर्थात् संयोग वश कभी प्राप्ति तो भी कभी निवृति को देख कर इनकी कारणता का निर्धारण मणि, मन्त्र एवं औषधि आदि में करना युक्तिसंगत नहीं है। इसी लिए किसी पुरुष में ऐश्वर्य का दर्शनकर इसके कारण के रूप में अदृष्ट या पाप पुण्य की कल्पना करना भी अन्याय ही है। अदृष्ट को जगत् का कारण न मानने पर इस संसार की विचित्रता कैसे उपपन्न की जा सकती है? यह प्रश्न होता है। इसका समाधान करते हुए चार्वाक का बड़ा ही सहज कथन है कि यह संसार स्वभाव से ही उत्पन्न हो जाता है। [२२] आग गरम है, जल शीतल है एवं वायु न ठंडा है न गरम अर्थात् अनुष्णाशीत है, कैसे? यह सब किसी ने बनाया नहीं हैं। यह सब स्वभाव से ही होता है।
  • अपने कर्त्तव्य में कष्ट उठा कर भी जो उद्यत होता है वह विलक्षण सुख का एवं सन्तोष का अनुभव करता है। यह सुख वर्णनानीत है। जो मानव के कर्तव्य कोटि में नहीं आता है उसका अत्यन्त पीडा सह कर भी परित्याग एक तरह से आनन्द एवं सुख का ही कारण है। इस प्रकार की व्यर्थ बातें वास्तव में निस्सार ही हैं। वस्तुस्थिति तो यही है कि संसार में काम से बड़ा पुरुषार्थ कुछ और नहीं है। वर्णाश्रम से सम्बद्ध क्रियाएँ भी वस्तुतः अभीष्ट फल देने वाली नहीं हैं। [२३]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लोकव्यवहारसिद्ध इति चार्वाका:, न्या. कु. का. हरिदासी, पृ0-03
  2. लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृति:। धर्माधर्मौ न विद्येते न फलं पुण्यपापयो:॥ -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 452
  3. सुराया: प्रकृतिभूतो वृक्षविशेषनिर्यास:, एक तरह की औषधि या बीज जिससे शराब का निर्माण किया जाता है।
  4. यद्वद्यथा सुरांगेभ्यो गुडधातक्यादिभ्यो मद्यांगेभ्यो मदशक्ति: उन्मादकत्वं भवति। -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 458
  5. जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते। ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम्॥ स0सि0सं0, 2/7
  6. 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, स न प्रेत्य संज्ञास्ति' बृहदारण्यकोपनिषद 2/4/12
  7. तपांसि यातनाश्चित्रा: संयमो भोगवंचना। अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते॥ यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्तवद्वैषयिकं सुखम्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:॥ -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 453
  8. 'मानं त्वक्षजमेव हि' हिशब्दोऽत्र विशेषणार्थो वर्तते। विशेष: पुनश्चार्वाकैर्लोकयात्रानिर्वहणप्रवणं धूमाद्यनुमानमिष्यते क्वचन न पुन: स्वर्गादृष्टादिप्रसाधकमलौकिकमनुमानमिति।–षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 457
  9. केचित्तु चार्वाकैकदेशीया आकाशं पंचमं भूतमभिमन्यमाना: पंचभूतात्मकं जगदिति निगदन्ति। षड्दर्शन समुच्चय- पृ0 450
  10. लोकसिद्धो भवेद् राजा परेशो नाऽपर: स्मृत:। देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते॥ सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 9
  11. अंगनाऽऽलिंगनाजन्यसुखमेव पुमर्थता। कण्टकादिव्यथाजन्यं दु:खं निरय उच्यते॥ सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 9
  12. यावज्जीवेत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
  13. अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पति:॥ -सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 6
  14. प्रेक्षावतां विवेचकानां, प्रकृष्टफलोद्देशमन्तरेण शास्त्राध्ययनेऽप्रवर्त्तमानानाम् इति यावत्। -प्रमाण्यवाद गादाधरी- पृ0 3
  15. अनुभवहेतु: सकले सद्य: समुपासिता मनुजे। साकाङ्क्षाऽऽसन्ना च स्वार्थे योग्या सरस्वती देवी॥ शब्दशक्तिप्रकाशिका – पृ0 265
  16. चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्रं बहिर्मन:। तत्त्वविवेक- 20
  17. शक्तिग्रह व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्वयवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यत: सिद्धपदस्य वृद्धा:॥ - शब्दशक्तिप्रकाशिका
  18. 'धूमधूमघ्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च।' मध्वाचार्य द्वारा लिखित सर्वदर्शन की इस पंक्ति की हिन्दी व्याख्या करते हुए उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' लिखते हैं-'यदि कहें कि धूम और अग्नि (धूमघ्वज) में अविनाभाव सम्बन्ध पहले से ही है तो इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों की बातों पर विश्वास नहीं होता है।' मेरी दृष्टि में मूल सर्वदर्शन संग्रह का यह हिन्दी भाष्य ठीक नहीं है। -सर्वदर्शन संग्रह, पृ0 13
  19. साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम् उपाधि: तर्कसंग्रह पृ0 15
  20. अव्याप्तसाधनो य: साध्यसमव्याप्तिरुच्यते स उपाधि:। शब्देऽनित्ये साध्ये सकर्त्तृकत्वं घटत्वमश्रुण्वताम्॥ व्यावर्त्तयितुमुपात्तान्यत्र क्रमता विशेषणानि त्रीणि। तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्यैंश्च॥ -सर्वदर्शन संग्रह – पृ0 17
  21. समासमाविनाभावावेकत्र स्तो यदा तदा। समेन यदि नो व्याप्तस्तया हीनो प्रयोजक:॥ -खण्डनखण्डखाद्य- पृ0 707
  22. अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तोथोऽनिलः। केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ.19
  23. न स्वर्गों नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः। नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ.20

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