उत्तर भारतीय मन्दिर वास्तुशिल्प  

समूचे उत्तर भारत का वास्तुशिल्प, जो दक्षिण भारत में बीजापुर ज़िले तक प्रचलित है। इसकी ख़ासियत इसका विशिष्ट शिखर, इसकी अधिरचना, स्तंभ या मीनार है। इस शैली को कई बार नागर कहा जाता है, जो शिल्पशास्त्र (वास्तुशिल्प के पारंपरिक विधिग्रंथ) में वर्णित एक प्रकार का मंदिर है, लेकिन वर्तमान वास्तुशिल्प के साथ शिल्पशास्त्र का सटीक संबंध अब तक स्थापित नहीं किया जा सका है।

विशेषता

उत्तर भारत के एक सामान्य हिंदू मंदिर में नक़्शे के अनुसार एक छोटा वर्गाकार कमरा होता है (गर्भगृह), जिससें मुख्य प्रतिमा रखी जाती है। इसके बाद इससे जुड़े एक या अधिक स्तंभयुक्त मंडप होते हैं, जो खुले या बंद अंतराल (गलियारा) द्वारा गर्भगृह से जुड़े होते हैं। गर्भगृह के प्रवेश मार्ग को सामान्य: नदी-देवियों तथा बेलबूटों, आकृतियों और ज्यामितीय रूपालंकारों से सजाया जाता है। कई मंदिरों में गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा पथ भी होता है। गर्भगृह के ऊपर शिखर होता है, जिसकी रूपरेखा वक्ररेखीय होती है तथा मंडपों पर भी कई छोटे सरल रेखीय शिखर होते हैं। पूरा ढांचा एक चबूतरे (जगति) पर भी निर्मित किया जा सकता है, जिसके किनारों पर सहवर्ती देवालय हो सकते हैं। अगर मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, तो गर्भगृह के सामने सदा भगवान के वाहन नंदी की मूर्ति होती है और यदि मंदिर विष्णु को समर्पित है, तो मंदिर के सामने ध्वज-स्तंभ हो सकते हैं।

वर्गाकार गर्भगृह के प्रत्येक ओर प्रक्षेपों की क्रमबद्ध श्रृंखलाएं होती हैं, जो लाक्षणिक स्वस्तिकार योजना का निर्माण करती हैं। बाहरी दीवारें सामान्यत: पौराणिक तथा अर्द्ध दिव्य मूर्तियों से सज्जित होती हैं तथा मुख्य प्रक्षेपों में निर्मित आले में देवताओं की मुख्य प्रतिमाएं होती हैं। अंदरूनी हिस्से में, विशेषकर विभिन्न प्रकार के स्तंभों से सहारा लिए बंद छतों में भी अक्सर काफ़ी समृद्ध अलंकरण होते है।

स्थापत्य शैली

छठी शताब्दी में पहले से मौजूद उत्तर भारतीय मंदिर के प्रारूप को उत्तर प्रदेश के झांसी ज़िले में देवगढ़ के मंदिरों जैसे उदाहरणों में देखा जा सकता है, जिनके गर्भगृह के ऊपर चिपटा लद्यु-शिखर है। आठवीं शताब्दी में यह शैली पूर्णरूपेण विकसित हुई और उड़ीसा, मध्य भारत, राजस्थान तथा गुजरात में इसके भिन्न क्षेत्रीय स्वरूपों का विकास हुआ। आमतौर पर उत्तर भारतीय मंदिरों का वर्गीकार शिखरों के प्रकार के आधार पर किया जाता है, जैसे ऋजुरेखीय और वक्ररेखीय, जिसके दो रूप हैं- शेखरी और भूमिज। उत्तर भारतीय शैली के एक प्रचलित स्वरूप को उड़ीसा के आरंभिक मंदिरों में देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, मंदिर निर्माण गतिविधियों का महान् केंद्र भुवनेश्वर स्थित आठवीं शताब्दी का भव्य परशुरामेश्वर मंदिर, 10वीं शताब्दी से एक लाक्षणिक उड़िया शैली विकसित हुई, जिसमें अधिक ऊंची दीवारें तथा ज़्यादा अलंकृत शिखर हैं। भुवनेश्वर में 11वीं शताब्दी का लिंगराज मंदिर उड़िया शैली के चरम उत्कर्ष का उदाहरण है। उड़िया मंदिरों में सबसे बड़ा और शायद सबसे विख्यात मंदिर कोणार्क का सूर्य मंदिर है, जिसका गर्भगृह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है।

मध्य भारत में सरल से अधिक ऊंचे भवन और अलंकृत शैली की ओर विकास परिलक्षित होता है। किंतु कई आधारों वाली शेखरी शैली की अधिरचना को 10वीं शताब्दी के बाद अधिक प्रश्रय दिया गया। अंदरूनी हिस्से और स्तंभों का उड़ीसा के मुक़ाबले अधिक अलंकरण किया गया है। मध्य भारतीय शैली अपने सुविकसित स्वरूप में खजुराहो में परिलक्षित होती है, जिसे कंदर्य महादेव मंदिर (लगभग 11वीं शताब्दी) में देखा जा सकता है। वहां बाहरी दीवारों पर सामंजस्य और ऐश्वर्य के प्रभाव को मूर्तियों के आधिक्य के बावजूद बनाए रखा गया है; शेखरी शैली में शिखर पर लघु वेदिकाओं के बाहुल्य ने इसकी ऊर्ध्वगामी गतिशीलता को और सशक्त बनाया। गुजरात में बड़ी संख्या में मंदिरों को संरक्षित किया गया, लेकिन अब वे भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। मोढेरा स्थित आरंभिक 11वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर उत्कृष्टतम देवालयों में से एक है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-1 | पृष्ठ संख्या- 220| प्रकाशक- एन्साक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, नई दिल्ली

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