ललितविस्तर  

  • वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पवित्रतम महायानसूत्र माना जाता है।
  • इसमें सम्पूर्ण बुद्धचरित का वर्णन है।
  • बुद्ध ने पृथ्वी पर जो-जो क्रीड़ा (ललित) की, उनका वर्णन होने के कारण इसे 'ललितविस्तर' कहते हैं। इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिन्हें 'परिवर्त' कहा जाता है। तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। समग्र मूल ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. एस0 लेफमान ने किया था।
  • प्रथम अध्याय में रात्रि के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर, देवपुत्र आदि जेतवन में पधारे और भगवान की पादवन्दना कर कहने लगे-'भगवन्, ललितविस्तर नामक धर्मपर्याय का व्याकरण करें। भगवान का तुषितलोक में निवास, गर्भावक्रान्ति, जन्म, कौमार्यचर्या, सर्व मारमण्डल का विध्वंसन इत्यादि का इस ग्रंथ में वर्णन है। पूर्व के तथागतों ने भी इस ग्रंथ का व्याकरण किया था।' भगवान ने देवपुत्रों की प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर अविदूर निदान अर्थात तुषितलोक से च्युति से लेकर सम्यग ज्ञान की प्राप्ति तक की कथा से प्रारम्भ कर समग्र बुद्धचरित का वर्णन सुनाने लगे।
  • बोधिसत्त्व ने क्षत्रिय कुल में जन्म लेने का निर्णय किया।
  • भगवान ने बताया कि बोधिसत्त्व शुद्धोदन की महिषी मायादेवी के गर्भ में उत्पन्न होंगे। वही बोधिसत्त्व के लिए उपयुक्त माता है। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधिसत्त्व के तुल्य महापुरुष का गर्भ धारण कर सके। बोधिसत्त्व ने महानाग अर्थात कुञ्जर के रूप में गर्भावक्रान्ति की।
  • मायादेवी पति की आज्ञा से लुम्बिनी वन गईं, जहाँ बोधिसत्त्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भेदकर महापद्म उत्पन्न हुआ। नन्द, उपनन्द आदि नागराजाओं ने शीत और उष्ण जल की धारा से बोधिसत्त्व को स्नान कराया। बोधिसत्त्व ने महापद्म पर बैठकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया। बोधिसत्त्व ने दिव्यचक्षु से समस्त, लोकधातु को देखा और जाना कि शील, समाधि और प्रज्ञा में मेरे तुल्य कोई अन्य सत्त्व नहीं है। पूर्वाभिमुख हो वे सात पग चले। जहाँ-जहाँ बोधिसत्त्व पैर रखते थे, वहाँ-वहाँ कमल प्रादुर्भूत हो जाता था। इसी तरह दक्षिण और पश्चिम की दिशा में चले। सातवें क़दम पर सिंह की भांति निनाद किया और कहा कि मैं लोक में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हूँ। यह मेरा अन्तिम जन्म है। मैं जाति, जरा और मरण दु:ख का अन्त करुँगा। उत्तराभिमुख हो बोधिसत्त्व ने कहा कि मैं सभी प्राणियों में अनुत्तर हूँ नीचे की ओर सात पग रखकर कहा कि मार को सेना सहित नष्ट करुँगा और नारकीय सत्त्वों पर महाधर्ममेघ की वृष्टि कर निरयाग्नि को शान्त करूँगा। ऊपर की ओर भी सात पग रखे और अन्तरिक्ष की ओर देखा।
  • सातवें परिवर्त में बुद्ध और आनन्द का संवाद है, जिसका सारांश है कि कुछ अभिमानी भिक्षु बोधिसत्त्व की परिशुद्ध गर्भावक्रान्ति पर विश्वास नहीं करेंगे, जिससे उनका घोर अनिष्ट होगा तथा जो इस सूत्रान्त को सुनकर तथागत में श्रद्धा का उत्पाद करेंगे, अनागत बुद्ध भी उनकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। जो मेरी शरण में आते हैं, वे मेरे मित्र हैं। मैं उनका कल्याण साधित करूँगा। इसलिए हे आनन्द, श्रद्धा के उत्पाद के लिए यत्न करना चाहिए।
  • बुद्ध की गर्भावक्रान्ति एवं जन्म की जो कथा ललितविस्तर में मिलती है, वह पालि ग्रंथों में वर्णित कथा से कहीं-कहीं पर भिन्न भी है। पालि ग्रंथों में विशेषत: संयुक्त निकाय, दीर्घ निकाय आदि में यद्यपि बुद्ध के अनेक अद्भुत धर्मों का वर्णन है, तथापि वे अद्भुत धर्मों से समन्वागत होते हुए भी अन्य मनुष्यों के समान जरा, मरण आदि दु:ख एवं दौर्मनस्य के अधीन थे। *पालि ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध लोकोत्तर केवल इसी अर्थ में है कि उन्होंने मोक्ष के मार्ग का अन्वेषण किया था तथा उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करने से दूसरे लोग भी निर्वाण और अर्हप्व पद प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु महासांघिक लोकोत्तरवादी निकाय के लोग इसी अर्थ में लोकोत्तर शब्द का प्रयोग नहीं करते। इसीलिए लोकोत्तरता को लेकर उनमें वाद-विवाद था।
  • आगे का ललितविस्तर का वर्णन महावग्ग की कथा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। जहाँ समानता है, वहाँ भी ललितविस्तर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं। उदाहरणार्थ शाक्यों के कहने से जब शुद्धोदन कुमार को अपने देवकुल में ले गये तो सब प्रतिमाएं अपने-अपने स्वरूप में आकर कुमार के पैरों पर गिर पड़ी। इसी तरह कुमार जब शिक्षा के लिए लिपि शाला में ले जाये गये तो आचार्य, कुमार के तेज़ को सहन नहीं कर पाये और मूर्च्छित होकर गिर पड़े। तब बोधिसत्व ने आचार्य से कहा- आप मुझे किस लिपि की शिक्षा देंगे। तब कुमार ने ब्राह्मी, खरोष्ठी, पुष्करसारि, अंग, बंग, मगध आदि 64 लिपियाँ गिनाईं। आचार्य ने कुमार का कौशन देखकर उनका अभिवादन किया।
  • बुद्ध के जीवन की प्रधान घटनाएं हैं- निमित्त दर्शन, जिनसे बुद्ध ने जरा, व्याधि, मृत्यु एवं प्रव्रज्या का ज्ञान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त अभिनिष्क्रमण, बिम्बिसार के समीप गमन, दुष्करचर्या, मारधर्षण, अभिसंबोधि एवं धर्मचक्रप्रवर्तन आदि घटनाएं हैं। जहाँ तक इन घटनाओं का सम्बन्ध है, ललितविस्तर का वर्णन बहुत भिन्न नहीं है। किन्तु ललितविस्तर में कुछ अतिशयताएँ अवश्य हैं। 27वें परिवर्त में ग्रन्थ के माहात्म्य का वर्णन है।
  • यह निश्चित है कि जिन शिल्पियों ने जावा में स्थित बोरोबुदूर के मन्दिर को प्रतिमाओं से अलंकृत किया था, वे ललितविस्तर के किसी न किसी पाठ से अवश्य परिचित थे। शिल्प में बुद्ध का चरित इस प्रकार उत्कीर्ण है, मानों शिल्पी ललितविस्तर को हाथ में लेकर इस कार्य में प्रवृत्त हुए थे। जिन शिल्पियों ने उत्तर भारत में स्तूप आदि कलात्मक वस्तुओं को बुद्धचरित के दृश्यों से अलंकृत किया था, वे भी ललितविस्तर में वर्णित बुद्ध कथा से परिचित थे।

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