राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा -शंकरराव लोंढे  

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लेखक- शंकरराव लोंढे

भारत एक विशाल देश है। हजारों मील तक फैला हुआ है। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक लगभग 2000 मील का भूभाग है और पश्चिमी छोर द्वारिका से लेकर पूर्वी छोर तक लगभग 1700 मील का विस्तार है। यह स्वाभाविक है कि इतने बड़े देश में अनेक भाषाएँ तथा बोलियाँ बोली जाएँ। फिर भी यहाँ सदा से यह भावना रही है कि यह सारा विस्तृत भूभाग एक देश है और ये विभिन्न भाषाएँ इस विशाल भाग की अलग-अलग क्यारियाँ हैं।
प्राचीनकाल में इस संपूर्ण भूभाग को एकता की सुदृढ़ डोर में बाँधने की भूमिका संस्कृत ने निभाई और फिर बदलती परिस्थितियों में यह स्थान हिन्दी को मिला। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि हिन्दी द्वारा इस महत्वपूर्ण भूमिका को निभाने की भावना भी सर्वप्रथम हिन्दीतर भाषी भारतीयों के मन में ही उत्पन्न हुई और उन्होंने अनुभव किया कि समूचे देश में एक भाषा, और वह भी संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी ही हो सकती है। सर्वप्रथम 1875 में अपने पत्र सुलभ समाचार में तत्कालीन बंगाल के राजनीतिज्ञ, समाज सेवी केशवचंद्र सेन ने कहा था:

एक भाषा के न होने के कारण भारत में एकता नहीं होती है, और चारा ही क्या है? तब सारे भारतवर्ष में एक ही भाषा का व्यवहार करना ही एकमात्र उपाय है। हिन्दी को यदि भारत की एकमात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाए तो सहज ही में यह एकता संपन्न हो सकती है।

‘वन्देमातरम्’ राष्ट्रगीत के रचयिता बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी भी हिन्दी के प्रबल पक्षपाती थे। आपकी मान्यता थी कि ‘हिन्दी एक दिन भारत की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी।’ अरविंद घोष, श्री भूदेव मुखर्जी, जस्टिस शारदाचरण मित्र आदि ने भी हिन्दी को समर्थन किया।

महाराष्ट्र के लोकप्रिय नेता श्री लोकमान्य तिलक ने भी एक लिपि और एक भाषा प्रचार कार्य को अपना समर्थन दिया। आपके ही प्रोत्साहन से माधवराव सप्रे हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में आए थे।

गुजरात में स्वामी दयानंद सरस्वती ने सोच-विचार कर हिन्दी भाषा को ही अपने सिद्धांतों के प्रचार का माध्यम बनाया। सभी गुरूकुलों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी बनी।

विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालचारी और उर्दू के शायर जोश मलीहाबादी ने भी हिन्दी का ही समर्थन किया।

चार्ल्स नेपियर ने भी इस देश में अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थान न देकर हिन्दी को ही इसके उपयुक्त मानते हुए कहा– हिन्दी जितनी अधिक और अंग्रेज़ी जितनी कम काम में लाई जाएगी, उतनी ही शीघ्रता से हिन्दी का विकास होगा। हिन्दी का प्रयोग जितना विस्तार से हो सके होना चाहिए। शिक्षा का माध्यम किसी स्तर पर अंग्रेज़ी नहीं होना चाहिए।
सन् 1918 का वर्ष था। इन्दौर में महात्मा गांधी के सभापतित्व में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। इसी अधिवेशन में सभापति के आसन से महात्मा गांधी ने सुझाव प्रस्तुत किया कि भारत के अहिन्दी भाषा प्रांतों में हिन्दी प्रचार का प्रयत्न किया जाए जिससे कि देश में विभिन्न प्रांतों के निवासियों में एकता और राष्ट्रीयता की भावना पैदा हो और उसकी जड़े भी मजबूत हो सकें। फलस्वरूप गांधीजी की प्रेरणा और प्रयास से दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का कार्य प्रारंभ किया गया। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना हुई और उसका प्रधान कार्यालय मद्रास में रखा गया।
इस समय तक समूचे देश के लिए एकता और राष्ट्रीयता के प्रबल नियामक और सुदृढ़ संयोजक सूत्र के रूप में एक सामान्य भाषा का एक मंच से प्रचार का कोई व्यापक प्रयत्न नहीं हुआ था। अंग्रेज़ी ही पारस्परिक विचार-विनिमय का माध्यम थी। अत: देश के गण्यमान्य नेताओं का सामूहिक ध्यान इस महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आकृष्ट हुआ। इस मान्यता को ठोस और सक्रिय रूप देने का सब से व्यापक प्रयत्न अप्रैल 1936 नागपुर में हुए अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में एक निर्णायक कदम उठाकर किया गया।
इस अधिवेशन के सभापति पद पर आसीन थे डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी, प्रस्तावक थे बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन और अनुमोदक थे, श्री जमनालाल बजाज। प्रस्ताव के परिणामस्वरूप 15 सदस्यों की एक प्रचार-समिति बनी। यही आज की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का पूर्व रूप था गांधीजी, टंडन जी, राजेंद्र बाबू, जवाहरलालजी, जमनालालजी बजाज, आचार्य नरेंद्र देव जी, काका कालेलकर, शंकरराव देव, माखनलाल चतुर्वेदी, वियोगी हरि आदि देश के जाने-माने चिंतक इसके जनक तथा मुख्य संस्थापक सदस्य थे। उपरोक्त प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना सन् 1936 में हुई और इसका मुख्य कार्यालय वर्धा में रखा गया।

उद्देश्य

  1. हिन्दी प्रचार की यह संस्था राष्ट्रीय भावनाओं को उद्बुद्ध करने एवं समस्त भारतीयों के हृदयों में एकात्मता प्रस्थापन का उद्देश्य लेकर स्थापित हुई। इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखकर ‘एक हृदय हो भारत जननी’ को उसने अपना उद्घोष वाक्य बनाया।
  2. भारत के स्वतंत्र होने के बाद जब संविधान में उसकी 351 वीं धारा के अंतर्गत हिन्दी के रूप के संबंध में जो निदेश दिया गया कि वह भारत की सामासिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा होगी, तब समिति ने इसे सहर्ष स्वीकार किया, क्योंकि यही तो उसके हिन्दी प्रचार के कार्य में मूल भावना थी। आवश्यकता के अनुरूप संस्कृत से तथा अन्य भाषाओं से शब्दों को आत्मसात् करने में उसे कोई हिचक या आपत्ति नहीं थी और न है।
  3. सारे देश में तथा आवश्यकतानुसार विदेशों में भी हिन्दी के प्रति अनुराग उत्पन्न करना और उसके प्रचार करने का प्रयत्न करना।

क्रियान्वयन

प्रचार की दृष्टि से ही परीक्षाएँ चलाने का कार्य समिति ने हाथ में लिया। सन् 1938 में ये परीक्षाएँ प्रारंभ हुईं जो आगे चलकर लोकप्रिय बनीं। विविध आवश्यकताओं की दृष्टि से अनेक परीक्षाएँ चलीं और परिस्थितिवश बंद भी हुईं। अध्यापन विशारद, बातचीत और आज जो परीक्षाएँ चल रही हैं वे इस प्रकार हैं: राष्ट्रभाषा प्राथमिक, राष्ट्रभाषा प्रारंभिक, राष्ट्रभाषा प्रवेश, राष्ट्रभाषा परिचैय, राष्ट्रभाषा कोविद, राष्ट्रभाषा रत्न, राष्ट्रभाषा आचार्य। इनमें राष्ट्रभाषा परिचय तक की परीक्षाएँ और कोविद से आचार्य तक की उपाधि एवं उच्च परीक्षाएँ हैं।
गांधी जन्मशताब्दी के निमित ‘गांधी विचार परिचय’ एवं ‘गांधी विचार दर्शन’ नामक दो विशेष परीक्षाएँ चलाई गईं थीं जो काफ़ी लोकप्रिय हुईं। आज भी राष्ट्रभाषा (हिन्दी) प्रचार के माध्यम के रूप में ही परीक्षाओं को चलाया जा रहा है और परीक्षा संचालन समिति की विभिन्न प्रवृत्तियों में से मात्र एक प्रवृत्ति है। प्रति वर्ष लगभग 2,50,000 परीक्षार्थी समिति की विभिन्न परीक्षाओं में सम्मिलित होते हैं। हिन्दीतर प्रदेशों से लगभग 12,621 प्रमाणित प्रचारक अपना सक्रिय सहयोग दे रहे हैं और लगभग 4,150 केंद्रों में परीक्षा-व्यवस्था होती है। समिति के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत लगभग 661 राष्ट्रभाषा विद्यालय एवं 52 महाविद्यालय संचालित होते हैं।
समिति के कार्य को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए अखिल भारतीय स्तर के राष्ट्रभाषा प्रेमी सदस्यों की एक समिति गठित की गई है, जिस में दानदाताओं के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा प्रेमी, विद्वान, प्रचारक, केंद्र-व्यवस्थापक एवं समिति के उपाधिधारियों को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है।

परीक्षा-समिति

परीक्षा-व्यवस्था के समुचित संचालन हेतु 28 सदस्यों की एक परीक्षा-समिति का भी गठन किया गया है।

प्रांतीय कार्यालय

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्य को विभिन्न प्रदेशों में सभ्यक रूप से संचालित करने के लिए 18 प्रांतीय समितियाँ गठित की गई हैं जो कार्यक्षेत्र से प्रत्यक्ष संपर्क रखकर राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार कार्य कर रही हैं और वर्धा समिति द्वारा संचालित परीक्षाओं के लिए परीक्षार्थी तैयार करवाती है। इन समितियों को प्रचार-कार्य हेतु वर्धा समिति की ओर से लगभग 4 लाख रुपए वार्षिक सहायता दी जाती है।

प्रांतीय कार्यालय
1. बंबई प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सभा बंबई
2. महाराष्ट्र प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति पुणे
3. मराठावाड़ा प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति औरंगाबाद
4. विदर्भ प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति नागपुर
5. गुजरात प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति अहमदाबाद
6. मध्यप्रदेश प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति भोपाल
7. राजस्थान प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति जयपुर
8. काश्मीर प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति श्रीनगर
9. दिल्ली प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति दिल्ली
10. असम प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति गोलाघाट
11. मेघालय प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति शिलांग
12. उ. पूर्वांचल प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति नार्थ लखीमपुर
13. मणिपुर प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति इम्फाल
14. पश्चिम बंगाल प्रांतीय राष्ट्रभाषा समिति कलकत्ता
15. उत्कल प्रांतीय राष्ट्रभाषा सभा समिति कटक
16. कर्नाटक प्रांतीय राष्ट्रभाषा सभा समिति हुबली
17. गोवा प्रांतीय राष्ट्रभाषा सभा समिति मडगांव
18. नागालैंड भाषा परिषद् राष्ट्रभाषा सभा समिति कोहिमा

परीक्षाओं की मान्यता

समिति द्वारा संचालित परीक्षाओं में परिचय, कोविद एवं राष्ट्रभाषा-रत्न परीक्षाओं को केंद्रीय सरकार ने, विभिन्न प्रादेशिक सरकारों ने तथा विश्वविद्यालयों ने स्थायी मान्यता प्रदान की है।

पूर्वांचल में हिन्दी प्रचार

पश्चिमी प्रदेशों की अपेक्षा भारत के मणिपुर, असम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल, मिजोरम में हिन्दी प्रचार का कार्य काफ़ी पिछड़ा हुआ था। समिति का ध्यान इस ओर विशेंष रूप से आकृष्ट हुआ। समिति अपने प्रांगण में एक राष्ट्रभाषा महाविद्यालय का संचालन गत अनेक वर्षों से कर रही है। नागालैंड की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इसमें विशेष रूप में नागालैंड के विद्यार्थियों को सन् 1956 से बुलाना शुरू हुआ और उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था की गई। ऐसे छात्रों को समिति मासिक छात्रवृत्ति देती रही। सैकड़ों की संख्या में पूर्वांचल के विद्यार्थी वर्धा आकर राष्ट्रभाषा हिन्दी का अध्ययन कर वापस गए हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में हिन्दी शिक्षकों के रूप में हिन्दी प्रचार का कार्य कर रहे हैं।
स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले इस प्रदेश में हिन्दी प्रचार कार्य सरल नहीं था। तथापि समिति ने वहाँ हिन्दी का प्रचार कार्य किया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद समिति ने इस दिशा में अपने अधिक प्रयत्न प्रारंभ किए और उसे सफलता मिली। वर्धा आकर हिन्दी सीखना जिन्हें सुविधाजनक नहीं है, ऐसे नागा छात्रों को हिन्दी सिखाने की सुविधा की दृष्टि से नागा प्रदेश के दीमापुर शहर में समिति एवं राष्ट्रभाषा महाविद्यालय का संचालन कर रही है। इस महाविद्यालय में प्रति वर्ष लगभग 30 विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाता है और उनकी नि:शुल्क पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है।
मिजोरम क्षेत्र भी ऐसा ही दूरस्थ अंचल है जहाँ हिन्दी का प्रचार नहीं था। अत: 1962 से नागा छात्रों के स्थान पर इस पर्वतीय अंचल के लुशाई, मिजो भाई-बहनों को वर्धा बुलाया जाना प्रारंभ हुआ। उन्हें भी नागा छात्रों की ही भाँति मासिक छात्रवृत्ति देकर पढ़ाई की व्यवस्था की गई। सैकड़ों मिजो छात्र वर्धा से हिन्दी सीखकर गए और अपने-अपने क्षेत्रों में हिन्दी शिक्षक के रूप में नियुक्त होकर हिन्दी पढ़ाने का काम कर रहे हैं। मिजो छात्रों की सुविधा हेतु आइजोल में एक राष्ट्रभाषा विद्यालय चलाया जा रहा है जहाँ लगभग 20 से 30 के बीच छात्र नियमित रूप से राष्ट्रभाषा हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं। पूर्वांचल के इन क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से भारत की सामासिक संस्कृति की भावना उत्पन्न करना समिति का एक उद्देश्य रहा है।
भारत के कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार कार्य अनेक समस्याओं से युक्त है, फिर भी समिति ने ऐसे क्षेत्रों को अछूता नहीं छोड़ा है। कश्मीर में हिन्दी प्रचार के कार्य को व्यवस्थित किया गया है और गत 22 वर्षों से वहाँ की प्रादेशिक समिति द्वारा यह कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। हजारों की संख्या में भाई-बहनें समिति की परीक्षाओ में बैठकर हिन्दी का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर के परीक्षार्थियों से कोई परीक्षा-शुल्क नहीं लिया जाता है।
लद्दाख जैसे दूरस्थ पर्वतीय प्रदेश में भी समिति के संचालन में हिन्दी का प्रचार कार्य आगे बढ़ रहा है। भारत के अतिरिक्त भारत के जिन-जिन स्थानों से हिन्दी प्रेमियों की माँग आती है, वहाँ-वहाँ समिति सहयोग देती है। इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका, पूर्व अफ्रीका, श्रीलंका, बर्मा, मारिशस, गुयाना, सूरीनाम, चेकोस्लोवाकिया आदि देशों में भी हिन्दी का कार्य आगे बढ़ रहा है। जापानी छात्र सन् 1956 में वर्धा में आकर राष्ट्रभाषा का अध्ययन कर रहे हैं। इस समय दो जापानी छात्र अध्ययन रत हैं। मारिशस की एक छात्रा भी समिति परिसर में रहकर समिति की परीक्षाओं के लिए विधिवत् अध्ययनरत है।
गत 46 वर्षों से विभिन्न हिन्दी परीक्षाओं के द्वारा लगभग एक करोड़ लोगों तक समिति हिन्दी का संदेश पहुँचा चुकी है। ज्ञान की दृष्ट्रि से राष्ट्रभाषा आचार्य परीक्षा का स्तर विश्वविद्यालय एम. ए. से कम नहीं है।

मुखपत्र ‘राष्ट्रभाषा’

समिति अपने सहस्त्रों राष्ट्रभाषा प्रचारकों, केंद्र-व्यवस्थापकों और हिन्दी प्रेमियों से संपर्क बनाए रखने लिए ‘राष्ट्रभाषा’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करती है। इसमें परीक्षोपयोगी राष्ट्रभाषा हिन्दी संबंधी विचारात्मक लेखों और गतिविधियों की जानकारी के अतिरिक्त परीक्षा संबंधी जानकारी एवं सूचनाएँ प्रकाशित की जाती हैं। उक्त मासिक पत्रिका केंद्र-व्यवस्थापकों एवं प्रचारकों को नि:शुल्क भेजी जाती है।

'हिन्दी-दिवस’

14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान परिषद् ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को तथा राष्ट्रलिपि के रूप में देवनागरी को स्वीकृत किया था। इस दिन की स्मृति के रूप में प्रति वर्ष समिति के तत्वाधान में सारे देश में ‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है। इस आयोजन ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की है।

राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन

देशभर में समिति के कार्यक्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य करनेवाले कार्यकर्ता एक स्थान पर मिलकर राष्ट्रभाषा की समस्याओं पर विचार-विनिमय कर सकें, इस दृष्टि से विविध प्रदेशों में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के तत्वाधान में राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। अब तक ये सम्मेलन वर्धा, अहमदाबाद, पूना, बंबई, नागपुर, जगन्नाथपुरी, जयपुर, भोपाल, दिल्ली, तिनसुकिया, वर्धा, औंरगाबाद और अहमदाबाद में संपन्न हो चुके हैं। सम्मेलन का 11 वां अधिवेशन रजत जयंती महोत्सव के अवसर पर वर्धा में हुआ था।

महात्मा गांधी पुरस्कार

समिति द्वारा हिन्दीतर भाषी विद्वानों की उल्लेखनीय राष्ट्रभाषा हिन्दी-सेवाओं के लिए 1501 रुपए का महात्मा गांधी पुरस्कार तथा एक ताम्रपत्र दिया जाता है। अब तक 11 हिन्दीतर विद्वानों को यह पुरस्कार दिया जाता है।

पुस्तक-प्रकाशन

अपनी विभिन्न परीक्षाओं के लिए उपयुक्त पाठ्यपुस्तकों का संकलन, संपादन एवं प्रकाशन करती रही है। ऐसी पुस्तकों का संख्या लगभग 100 से कुछ ऊपर ही पहुँच गई हैं। समिति ने पाठ्य-पुस्तकों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं के आदान-प्रदान की दृष्टि से अन्य भारतीय भाषाओं के ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद तथा मौलिक ग्रंथों का भी प्रणयन किया गया है।

  1. गांधी ग्रंथमाला
  2. टंडन ग्रंथमाला

दोनों के अंतर्गत प्रत्येक में तीन-तीन इस प्रकार छह पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं:

  • गांधीजी की आत्म-साधना, दांडी-यात्रा, भूदान-यज्ञ के प्रणेता-विनोबा
  • टंडन निबंधावली, दरियालाल, बारडोली के सरदार।

भारतीय भाषाओं का दैनंदिन कामचलाऊ व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से ‘भारत भारती पुस्तकमाला’ के अतिरिक्त ‘कविश्री-माला’ के नाम से प्रादेशिक भाषा के दो-दो उत्कृष्ट कवियों की श्रेष्ठ रचनाओं का अनुवाद किया गया है। प्रारंभ में कवि-परिचय के अतिरिक्त संबंधित प्रादेशिक भाषा के साहित्य का परिचय इन प्रकाशनों की अपनी विशेषता है। हिन्दीतर प्रदेश के हिन्दी विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुरूप एवं एक ‘बृहद राष्ट्रभाषा कोश’ भी समिति ने प्रकाशित किया है। कार्यालयीन कार्य-प्रणाली को हिन्दी में गति देने की दृष्टि से ‘आलेखन टिप्पण’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की गई है।

समाचार भारती

सन् 1949 में दिल्ली में हुए राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन में पारित विशेष प्रस्ताव के अनुसार भारतीय भाषाओं में समाचार देनेवाली अखिल भारतीय स्तर की न्यूज एजेंसी ‘समाचार भारती’ नामक समाचार संस्था की कल्पना तथा उसे मूर्त रूप देने में समिति ने प्रथम कदम उठाया और सक्रिय भाग लिया।

रजत जयंती ग्रंथ

राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ विभिन्न प्रदेशों द्वारा हिन्दी को दिए गए योगदान की जानकारी देनेवाला एक अपूर्व संदर्भ ग्रंथ है।

विश्व हिन्दी सम्मेलन

भारत और भारत से बाहर चल रहे हिन्दी के समस्त कार्यों का मूल्यांकन करने और भविष्य के कार्य की दिशा निर्धारित करने के उद्देश्य से देश-विदेश के समस्त हिन्दी सेवियों, विद्वानों और लेखकों के एक सम्मेलन की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था। अत: देश के प्रमुख नेताओं से अनौपचारिक विचार-विमर्श के बाद राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने इसका प्रथम आयोजन विश्व के सब से बड़े लोकातांत्रिक देश भारत में इसका प्रथम आयोजन करने का निश्चय किया। तदनुसार यह सम्मेलन जनवरी 1975 में वर्धा के ही निकट महारष्ट्र प्रदेश की द्वितीय राजधानी एवं देश के मध्य में स्थित नागपुर नामक नगर में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता मारिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने की और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने उसका उद्घाटन किया। इस सम्मेलन में हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति, विश्व मानव की चेतना, भारत और हिन्दी तथा आधुनिक युग और हिन्दी की आवश्यकताओं और उपलब्धियों पर चर्चा की गई और निर्णय किया गया कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए, वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो और विश्व हिन्दी सम्मेलन की उपलब्धियों को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से कोई ठोस योजना बनाई जाए।
निर्णयानुसार वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना की गई। एक छोटा भवन भी इस कार्य के लिए बना लिया गया है और विद्यापीठ का प्रारंभिक कार्य शुरू हो गया है। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन हिन्द महासागर के मोती एवं सुरम्य प्रकृति की हरियाली से युक्त प्रदेश मारिशस में अगस्त 1976 में व्यापक पैमाने पर आयोजित हुआ। यह हिन्दी की विश्वयात्रा का दूसरा चरण, दूसरा पड़ाव था।
हिन्दी के माध्यम से सारे विश्व को प्रेम, बंधुत्व और आध्यात्मिक नव-जागरण की डोर में बाँधकर समन्वय तथा एकता के मंच पर अवस्थित करने की दृष्टि से भारत ने पुन: पहल करते हुए तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन, राजधानी नई दिल्ली में करने का निश्चय किया है। प्रथम सम्मेलन की ही भाँति इसका भी आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के ही तत्वावधान में हो रहा है। भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस सम्मेलन का उद्घाटन कर रही हैं। इस सम्मेलन में प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन की उपलब्धियों को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से ठोस योजनाओं पर विचार किया जाएगा तथा हिन्दी राष्ट्रीय स्तर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की प्रक्रिया को बल देने पर विचार होगा। इसके अतिरिक्त हिन्दी के माध्यम से भारत तथा अन्य देशों के मैत्रीपूर्ण संबंधों को दृढ करने पर उपाय योजना के संबंध में सोचा जाएगा और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के संदर्भ में जाति, धर्म, वर्ण और राष्ट्रीयता की सकुचित सीमा से परे हिन्दी को प्रेम, सेवा और शांति की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए सभी हिन्दी प्रेमी कृत-संकल्प होंगे।

पिछले 46 वर्षों से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति अपने समिति साधनों से हिन्दी के प्रचार-प्रसार का राष्ट्रीय कार्य करती आ रही है। समिति ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार से संबंधित अनेक योजनाएँ बनाई हैं। उनका सफल क्रियान्वयन हिन्दी प्रेमी लोगों के सक्रिय सहयोग पर ही निर्भर है। आशा है समिति के कार्यों के लिए हिन्दी प्रेमियों तथा सरकार से अपेक्षित सहयोग तथ्य सहायता प्राप्त होगी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे


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