भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी -माणिक गोविंद चतुर्वेदी  

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लेखक- प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी

          निश्चित ही भारत अपनी भाषिक और सामाजिक संरचना के इतिहास और भूगोल के कारण भाषा और समाज के अध्येताओं के लिए अध्ययन का एक समस्यामूलक, किंतु रोचक विषय बना हुआ है। संसार में किसी दूसरे इतने विशाल और प्राचीन (जिसकी सांस्कृतिक परम्परा आद्यांत अक्षुण्ण हो) और वैविध्यपूर्ण राष्ट्र के न होने के कारण, वह अनेक बार अनेक भ्रांत और भ्रामक धारणाओं का शिकार होता रहा है। इसी का परिणाम है कि भारत में बाली जाने वाली बोलियों, उपभाषाओं और भाषाओं तथा उनके बोलने वाले समुदायों की विविधता तथा संख्या को देखते हुए जो उसे एक ओर भाषा सामाजिक विकट विग्रह (सोशियो-लिग्विंस्टिक ज्वाइंट) की संज्ञा दी है[१] वहीं उसी भाषिक और सामाजिक इकाईयों के मूल में प्रवर्तमान एकात्मकता को देखकर भाषा वैज्ञानिकों ने उसे एक भाषिक क्षेत्र (ए लिग्विंस्टिक एरिया) भी कहा है।[२] वस्तुतः समूचे दक्षिण् पूर्व एशिया में भारतीय उपमहाद्वीप एक ऐसा भाषिक क्षेत्र है जो अनेकता में एकता का अत्यंत सटीक निदर्शन प्रस्तुत करता है।
          यद्यपि भारत में प्राचीनतम भाषिक अभिलेख हमें प्राचीन भारतीय आर्यभाषा ‘छंदस’ या वैदिक संस्कृत में वैदिक वाङ्मय के रूप में उपलब्ध हैं, परंतु विद्वानों की धारणा है कि भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व आग्नेय, द्रविड़ और भाट-चीनी परिवारों के लोग यहा बसे हुए थे।[३] परिणामस्वरूप आर्य भाषाओं से पूर्व यहां इन्हीं परिवारों की भाषाएं बोली जाती थीं। कुछ विद्वानों के अनुसार भारत में सर्वाधिक प्राचीन जाति नीग्रो या हब्शी है, परंतु अब वह जाति भारत में पूर्णतः विलुप्त हो चुकी है। हां आपवाद रूप में अब भी अंडमान द्वीप समूह में इस जाति के कुछ अवशेष अवश्य मिल जाते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार अंडमानी भाषा का संबंध इसी जाति या परिवार के साथ है।[४]
          नीग्रो जाति के बाद जिस जाति ने भारत में प्रवेश किया, वह है मूल आग्नेय जाति, जिसे प्राचीन काल में निषाद तथा आजकल कोल और मुंडा जाति कहा जाता है।[५] यद्यपि ये लोग पश्चिमी दिशा से ही भारत आए थे, परंतु संप्रति ये लोग मुख्य रूप से बिहार के छोटा नागपुर क्षेत्र उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, मध्यप्रदेश तथा खासी पहाड़ियों के कुछ क्षेत्रों में ही पाये जाते हैं।[६] 1967 की जनगणना के अनुसार इस भाषा परिवार की 65 बोलियां समूचे देश की जनसंख्या के लगभग 1.5 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है।[७] संथाली, मुंडारी, हो, भूमिज, कोरकू, खारिया, सौरा, ख़ासी तथा नीकोबारी इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं हैं, तथा इनमें से नीकोबारी, ख़ासी तथााा संथाली भाषाओं को पढ़ा लिखा भी जाता है।[८]
          कोल मुंडा जाति के पश्चात् द्रविड़ लोग भारत आए। विद्वानों की मान्यता है कि द्रविड़ जाति भी पश्चिम से ही आई थी, तथा आर्यों के आने के समय समूचे पश्चिमोत्तर भारत में बसी हुई थी।[९] कुछ लोगों की धारणा है कि सिंधु घाटी की सभ्यता इन्हीं लोगों ने विकसित की थी।[१०] 1961 जनगणना के अनुसार इस समय द्रविड़ परिवार की 153 बोलियां समूचे भारत में कुल जनसंख्या के 24.47 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती हैं।[११]
          द्रविड़ भाषाओं को निम्नलिखित तीन भौगोलिक भागों में बांटा जा सकता है:
1 - उत्तरी द्रविड़ भाषा -जैसे, ओरांव, मालतो आदि।
2 - मध्य देशीय द्रविड़ भााषाएं -जैसे कुई, खोंद आदि।
3 - दक्षिण देशीय द्रविड़ भाषाएं -जैसे तमिल, तेलुगु , कन्नड़, मलयालम आदि[१२]
          द्रविड़ परिवार की चार साहित्यिक भाषाएं तमिल, कन्नड़, तेलुगु और मलयालम भारतीय संविधान में परिगणित हैं, तथा दक्षिण भारत के चारों राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा केरल में क्रमशः राजभाषा हैं। ये चारों भाषाएं द्रविड़ भाषाभाषी जन समुदाय के 95.56 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है।[१३]
          भारत में आर्याें के आगमन के पूर्व ही उत्तर तथा पूर्वाेत्तर दिशाओं से भोट चीनी परिवार के लोग हिमालय की घाटियों में आकर बस चुके थे, जिन्हें प्राचीन काल में किरात कहा जाता था।[१४] इस परिवार की भाषाएं पश्चिमोत्तर में कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र से लेकर पूर्व में दक्षिण पूर्वी आसाम तक बोली जाती है।[१५] अनुपात में भाषा भेद बहुत अधिक पाया जाता है। आशय यह है कि यहां तीस बत्तीस लाख लोग दो सौ से अधिक भाषाएं बोलते हैं। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में भोट चीनी परिवार की 226 मातृभाषाएं हैं[१६], जिनमें तिब्बती आदि कुछ ही भाषाओं को संख्या आदि की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस परिवार की केवल तिब्बती और मैतेयी (मणिपुरी) भाषाएं ही साहित्यिक भाषाएं हैं, शेष भाषाओं में से अधिकांश भाषाएं अभी भी अलिखित रूप में प्रचलित है।[१७]
          इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में आर्यों के आने से पहले द्रविड़ या दस्यु, निषाद या कोल मुंडा, किरात या भोट चीनी जातियों के लोग बसे हुए थे। संभवतः इस जातियों के परस्पर संसर्ग से इनकी भाषाओं पर एक दूसरे का प्रभाव पड़ने लगा था। परंतु जब आर्यजन भारत में आए और केंद्रीय सत्ता के रूप से स्थापित हो गए तो उन्होंने न केवल सभी पूर्ववर्ती सांस्कृतिक तत्वों को एकसूत्रता में बांधा, वरन् एक अखिल भारतीय संस्कृति को जन्म भी दिया।[१८]
          विद्वानों की मान्यता है कि भारतीय जनमानस और जनसंस्कृति को सामासिक रूप में विकसित करने में प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत का जो योगदान रहा है वह निश्चित ही अद्वितीय है। चूंकि संस्कृत अखिल भारतीय संस्कृति, साहित्य, दर्शन, धर्म आदि सब कुछ की अभिव्यक्ति की माध्यम ही नहीं बनी, वरन् वह भारतीयता की प्रतीक ही बन गई है।[१९] 1961 की जनगणना के अनुसार इस समय समूचे देश में आर्य परिवार की 574 मातृभाषाएं कुल जनसंख्या के 75.30 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती हैं[२०]। इस प्रकार सबके बाद में आने वाले आर्यजनों की भाषाएं भारत के सभी प्रदेशों में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं तथा ये ही भाषाएं सर्वाधिक विकसित भी हैं और सरकार द्वारा मान्य भी हैं।
          आशय यह कि भारत आर्यो के आगमन से पहले ही एक बहुभाषी तथा बहुजातीय देश बन चुका था, जिसे आर्यों नें अपनी सशक्त भाषा और श्रेष्ठ संगठन शक्ति के आधार पर एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिवर्तित कर दिया[२१]। बहुभाषा भाषी भारत में आर्य भाषा वैदिक संस्कृत और बाद में लौकिक संस्कृत किस प्रकार अखिल भारतीय भाषा बनी और साहित्य, शिक्षा, प्रशासन तथा संस्कृति की सार्वभौम माध्यम के रूप में प्रचलित हुई, निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। किंतु प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैदिक काल में ही वैदिक भाषा अध्ययन का विषय बन गई थी और उसी के माध्यम से समूची शिक्षा व्यवस्था चलती थी। वस्तुतः वैदिक काल में आर्यों ने जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था विकसित की थी उसने भारत की सामाजिक और भाषिक संरचना में दूरगामी परिवर्तन घटित किये[२२]। इसी युग में भारत में व्यापक रूप से द्विभाषिकता को मान्यता भी प्राप्त हुई तथा उस समय प्रचलित सभी आर्य अनार्य भाषाओं में से केवल संस्कृत को ही अंतः क्षेत्रीय व्यवहार तथा साहित्य और शास्त्र की माध्यम भाषा के रूप में स्वीकृत किया गया।
          वैदिक साहित्य के अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्यजन भारत में एक ही समय और एक ही दल के रूप में नहीं आए, काफ़ी समय तक विभिन्न दलों में विभिन्न भागों से भारत में आते रहे तथा बसते रहे[२३]। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि नवागत आर्यों का विरोध और युद्ध केवल पूर्ववर्ती अनार्य जातियों के साथ ही नहीं हुआ वरन् उन्हें पूर्ववर्ती आर्यों से भी विरोध का सामना करना पड़ा था[२४]। परंतु जब समाज में स्थायित्व आने लगा और विभिन्न आर्य-अनार्य भाषाभाषी जातियां साथ साथ या और पास पास रहने लगीं तो न केवल परस्पर संपर्क में आने वाली भाषाओं तथा उनके बोलने वाले समाजों में सांस्कृतिक आदान प्रदान की परंपरा प्रारंभ हुई, वरन् इन भाषाओं में वैदिक भाषा छंदस को यह मान्यता प्राप्त हुई, जिसके कारण उसे देवी भाषा कहा जाने लगा तथा धर्म, शिक्षा, साहित्य के माध्यम के रूप में उसका प्रयोग होने लगा[२५]
          उत्तर वैदिक काल में आर्य संस्कृति जैसे जैसे पूर्व और दक्षिण भारत में फैलती गई, वैसे वैसे उनकी मूलतः साहित्यिक और परिणामतः सांस्कृतिक भाषा संस्कृत भी चारों ओर फैलती गई। यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत का यह प्रसार केवल भौगोलिक दिशाओं में ही नहीं हो रहा था, वरन् वह समाज के विभिन्न स्तरों पर भी चल रहा था, जहां मानक संस्कृत से भिन्न अनेक आर्य और अनार्य भाषाएं बोली जाती थीं[२६]। इस प्रकार संस्कृत एक ओर जहां अन्य भाषाओं के सम्पर्क से भाषिक दृष्टि विकसित हुई, वहीं वह साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी समृद्ध हुई और इस तरह आर्य संस्कृति के प्रसार के साथ साथ संस्कृत एक अखिल भारतीय भाषा के रूप में निष्पन्न हुई, जो उस समय के संसार में इतने बड़े प्रदेश में एक अद्भुत सिद्धि थी। यह उल्लेखनीय है कि भाषिक और सामाजिक संपर्क की इस स्थिति में केवल संस्कृत भाषा ही अन्य भाषाओं से प्रभावित नहीं हुई (जिसके अनेक प्रमाण संस्कृत के विकासात्मक अध्ययनों में उपलब्ध है।) वरन् उसने अपने सम्पर्क में आने वाली सभी आर्य और अनार्य भाषाओं को प्रभावित किया। इस प्रकार भारत की सभी भाषाओं में एकात्मकता का शिलान्यास संस्कृत ने किया, जिसके कारण आज हम भारत को एक भाषिक क्षेत्र कहते हैं। अर्थात् भारत एक ऐसा भाषिक क्षेत्र बन गया है जहां विभिन्न परिवारों की भाषाएं बाली जाती हैं, परंतु इन भिन्न भिन्न परिवारों की जो भाषाएं भारत के बाहर प्रचलित हैं उनकी तुलना में भारत में बाली जाने वाली भाषाएं आपस में अधिक समान हैं।[२७]
          अतः कहा जा सकता है कि वैदिक काल में ही एक मानक साहित्यिक भाषा का उदय और उसी के माध्यम से चलने वाला व्यवस्थित शिक्षातंत्र, ये दो ऐसे कारण थे जिनसे भारत मे ने केवल भाषिक एकात्मकता विकसित हुई जो आज भी हमारी संस्कृति और राष्ट्रीयता की अन्यतम विशेषता है, साथ ही इतने व्यापक भूखंड में उपलब्ध सभी उप भाषिक वर्गों की अपनी भाषिक अस्मिता को बनाए रखने के लिए द्विभाषिकता को एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
          संप्रति यह बताना तो असंभव है कि उस समय व्यापक सामाजिक द्विभाषिकता के कारण भारत में विभिन्न भाषा परिवारों की भाषाओं में साम्य आ जाने के कारण द्विभाषिकता व्यापक सामाजिक यर्थाथ बन सकी। परंतु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैदिक शिक्षा व्यवस्था में एकमात्र संस्कृत को अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों से केंद्रीय भाषा के रूप में व्यापक स्तर पर स्वीकृत कर लिया गया था[२८], जिससे शिक्षा के प्रसार के साथ साथ एक ओर जहां व्यापक सामाजिक स्तर पर मातृभाषा और संस्कृत की द्विभाषिकता विकसित हुई, वहीं दूसरी ओर विभिन्न मातृभाषाओं में भाषिक समानताओं के लिए एक सामान्य आधार यह भी मिल गया अर्थात् सभी मातृभाषाएं समान रूप से एक ही शैक्षिक भाषा संस्कृत से प्रभावित होने लगीं। संस्कृत और मातृभाषा की द्विभाषिकता का आदर्श आज भी भारतीय राष्ट्रीय जीवन की सर्वमान्य विशेषता है-अर्थात् शिक्षा द्वारा प्राप्त एक केंद्रीय अखिल भारतीय भाषा और मातृभाषा के रूप में ग्रहीत एक क्षेत्रीय भाषा की द्विभाषिकता की परंपरा भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से मिलती है और आज भी हमारे त्रिभाषा सूत्र के मूल में वर्तमान है।
          वैदिक काल के बाद समूचा भारतीय साहित्य व्यापक सामाजिक द्विभाषिकता की ओर इंगित करता है, विशेषकर संस्कृत नाटकों में प्राप्त संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का प्रयोग[२९]। यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि संस्कृत नाटकों में सामान्यतः उच्चवर्गीय पात्र संस्कृत भाषा का प्रयोग करते हैं। जबकि स्त्री तथा अन्य पात्र प्राकृत आदि लोक भाषाओं का प्रयोग करते हैं, परंतु ये दानों प्रकार के पात्र दुभाषिए के बिना ही एक दूसरे की बात भली भांति समझते है। वस्तुतः संस्कृत नाटकों में प्राप्त द्विभाषिकता का यह रूप उस देश में प्रचलित सामान्य द्विभाषिकता की ओर ही इंगित करता है, जो प्रदेश तथा सामाजिक स्तर के भेद के अनुसार अनेक प्रकारों की रही होगी। परंतु उन सभी प्रकारों में एक सामान्य सूत्र के रूप शिक्षा द्वारा प्राप्त द्वितीय भाषा संस्कृत अवश्य थी।
          अतः कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से वैदिक काल से ही संस्कृत एक अंतः क्षेत्रीय तथा अंतः जातीय भाषा के रूप में भारतीय समाज के उच्चस्तर पर साामान्यतः सर्वत्र स्वीकृत की जा चुकी थी तथा समाज के तलस्तर पर दस्यु, निषाद, किरात और आर्य जातियों की अनेकानेक बोलियों के सातल्य का जाल से बिछा हुआ था। जिस प्रकार उच्च ब्राह्मण संस्कृति भारत में सर्वत्र अब्राह्मण और अनार्य संस्कृतियों के अनेकानेक तत्वों को आत्मसात करते हुए देश में चारों ओर फैलती गई[३०], उसी प्रकार संस्कृत भाषा भी अनेकाअनेक आर्य अनार्य भाषाओं और बालियों से अनेक शब्दों तथा अन्य भाषिक तत्वों को स्वीकर करते हुए सारे देश में भी व्याप्त हो गई और बाद में भारत की सीमाओं को पार कर सभी ओर, परंतु विशेषकर दक्षिण और पूर्व व पूर्वाेत्तर की ओर फैलती गई। वस्तुतः व्यापक संस्कृत ऐक्य की आत्मा है। वह ऐसा मौलिक आधार है जिसके कारण भारत आज भी एक स्वायत्त सांस्कृतिक इकाई बना हुआ है।
          भारतीय भाषाओं के इतिहास में प्राचीन भारतीय आर्य भाषा संस्कृत के बाद जिन दूसरी अखिल भारतीय भाषाओं का उल्लेख हमें मिलता है तथा जिनका साहित्य आज उपलब्ध है, वे हैं - पालि, बौद्धौ की धर्म भाषा तथा अर्ध मागधी, जैनों की धर्म भाषा। महावीर और गौतम बुद्ध के समय से कुछ पूर्व ही प्राचीन वैदिक परंपरा के विरोध में एक नवीन जनक्रांति का सूत्रपात हो चुका था, जिनका मूल स्वर तो ब्राह्मणवाद्, यज्ञ आदि से संबंधित कर्मकांड का विरोधी था, परंतु संस्कृत क्योंकि मूलतः इन्हीं से जुड़ी हुई थी, प्रारंभ में जैनों और बौद्धों ने संस्कृत का भी विरोध किया। इसलिए संस्कृत के विरोध में जैनों द्वारा अर्धमागधी को तथा बौद्धों द्वारा पालि को धर्मप्रचार के लिए स्वीकृत कया गया। इस प्रकार 600 ई. पू. के आस पास संस्कृत के साथ साथ पालि और अर्ध-मागधी भाषाओं में हमें साहित्य सृजन की परंपरा मिलने लगती है।[३१]
          यहां यह उल्लेखनीय है कि पालि, अर्धमागधी तथा महाराष्ट्र, शौरसेनी आदि शास्त्रीय प्राकृतों को कुछ विद्वानों ने आंचलिक या क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में स्वीकृत किया है[३२]। परंतु इस बात को मानने के अधिक प्रमाण हैं कि ये सभी प्राकृत मध्यदेशीय बोली पर आधारित मूल प्राकृत के कालक्रम मे विकसित विविध रूप हैं, जैसे पालि से महाराष्ट्री तथा महाराष्ट्र से शौरसेनी प्राकृत[३३]। वस्तुस्थिति जो भी हो, इन प्राकृत में हमें जो भी साहित्य उपलब्ध होता है उसके आधार पर इन्हें अखिल भारतीय साहित्यिक भाषा ही कहा जा सकता है, तमिल के सामन साहित्यिक भाषा नहीं। इस प्रकार संस्कृत ने अंतः प्रांतीय और अंतः जातीय साहित्यिक और शास्त्रीय भाषा का जो आदर्श प्रस्तुत किया था, उसी का आंशिक अनुसरण पालि प्राकृत तथा अपभ्रंश आदि मध्य भारतीय आर्य भाषाओं ने भी किया। अतः कहा जा सकता है कि भारतीय इतिहास के प्रारंभ से 10वीं -11वीं शताब्दी तक भारत में एक तमिल अपवाद के साथ, हमें एक मात्र अखिल भारतीय भाषाओं की ही परंपरा मिलती है। इस समय तक समूचे देश में कहीं भी क्षेत्रीय भाषिक या सात्यिक अस्मिता का कोई प्रमाण नहीं मिलता, जबकि यह सत्य है कि इतने विशाल देश में तब भी विविध भाषा परिवारों की अनेकानेक भाषाएं बोलचाल की भाषा के रूप में प्रचलित अवश्य रहीं होंगी।
          यहां यह उल्लेखनीय है कि 600 ई.पू. के आस पास ब्राह्मणवाद और संस्कृत के विरोध का जो सूत्रपात हुआ था, ईसवी सन प्रारंभ होत होते कुछ कुछ कमज़ोर कमज़ोर होने लगा था। तथा गुप्तकाल के आते आते पुनः संस्कृत का प्रभाव बढ़ने लगा था, तथा संस्कृत अब केवल अखिल भारतीय भाषा न रहकर एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में भारत के बाहर भी है, विशेषकर बौद्ध धर्म की महायान शाखा के प्रचार के साथ साथ फैलने लगी थी।[३४] गुप्तकाल मे यद्यपि अर्धमागधी, पालि तथा अन्य शास्त्रीय प्राकृतों के अध्ययन की परंपरा अक्षुण्ण रही, परंतु भारत मे जैन और बौद्ध धर्मों के प्रभाव के हृास के साथ साथ संस्कृत पुनः शिक्षा, प्रशासन, साहित्य और शास्त्र की प्रमुखतम भाषा के रूप में उभर कर सामने आने लगी थी। गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल तो था ही, उसे संस्कृत साहित्य की व्याप्ति की दृष्टि से भी स्वर्णकाल कहा जा सकता है[३५]। इसी का प्रभाव है कि आज हमें भारत की सभी भाषाओं में संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते है। उस समय संस्कृृत का प्रचार इतना व्यापक तथा प्रभाव इतना गहरा था कि उस समय की एक मात्र क्षेत्रीय साहित्यिक भाषा तमिल में भी हमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है। मध्यकालीन तमिल की ‘मणिप्रवालम’ शैली भारतीय भाषाओं पर संस्कृृत के व्यापक प्रभाव की ओर इंगित करती है।[३६]
          इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुसलमानों के भारत में आने से पूर्व तक भारत में संस्कृत ही समूचे ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, संस्कृति और प्रशासन की अखिल भारतीय भाषा थी। इस समय सीमा में भारत में और भी जिन भाषाओं का संस्कार हुआ और जिनमें साहित्य-सृजन की परंपरा का सूत्रपात हुआ, उनमें केवल तमिल को छोड़कर और सभी भाषाएं अखिल भारतीय भाषाएं ही थीं। उन्हें या उनमें लिखित साहित्य को क्षेत्रीय नहीं कहा जा सकता। साथ ही इस समय सीमा में भारत में जो भी अनेकानेक आर्य-अनार्य भाषाएं थीं, वे यद्यपि बोलचाल की ही भाषाएं थीं, परंतु समाज में संस्कृत शिक्षा का प्रचार प्रसार इतना था कि ये भाषाएं संस्कृत से क्रमशः अधिकारिक प्रभावित होती गई और आगे चलकर इन्हीं में से कुछ और अधिक सुसंस्कृत होकर साहित्यिक अभिव्यक्ति की माध्यम बन सकीं।
          इस प्रकार 10वीं और 11वीं शती तक समूचे भारत में संस्कृत, पालि, अर्धमागधी, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रूप में अखिल भारतीय भाषाओं की ही परंपरा मिलती है। हां, अपवाद रूप में ईसवी पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी से क्षेत्रीय साहित्यिक भाषा तमिल की परंपरा भी मिलती है। परंतु यह उल्लेखनीय है कि इस कालावधि में तमिन क्षेत्र में भी संस्कृत ही प्रधान भाषा थी, क्योंकि वही उच्च शिक्षा की माध्यम थी, प्रशासन की भाषा थी थी तथा धर्मिक एवं अन्य सांस्कृतिक उपक्रमों की भी सामान्य भाषा थी। चूंकि इस समय सीमा में तमिल प्रदेश में ही हमें संस्कृत में लिखित जो अनेकानेक शिलालेख साहित्यिक और शास्त्रीय ग्रंथ मिलते हैं, वे सभी इसी ओर इंगित करते हैं।
          यद्यपि आर्यों के पश्चात् और मुसलमानों के पूर्व भारत में अनेक जातियों आईं, किंतु वे सभी भारतीय समाज और संस्कृति में धीरे-धीरे घुल मिल गईं। परंतु 10वीं से 15वीं शताब्दी के बीच पश्चिमी एशिया से अनेक देशों से जो लोग भारत में आए थे उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति में अभूतपूर्व परिवर्तन घटित किये। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस कालावधि मे केवल मुसलमान शासक और उनकी सेनाएं ही भारत में नहीं आईं वरन् उनके साथ साथ या आगे पीछे अनेक प्रकार के लोग जैसे- व्यापारी, कलाकार, विद्वान, कवि, साधु आदि अनेक प्रकार के उद्यमी और कर्मीजन भी थे। वस्तुतः भारतीय समाज और संस्कृत के रूपांतरण में ये उद्यमी और कर्मीजन ही मुख्य थे, न कि मुसलमान शासक। हां, उन्हें मुसलमान शासकों ने अपने विकास के लिए आधार अवश्य प्रदान किया था तथा उन मूल भारतीय जनों ने जिन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था, भारतीय मुस्लिम संस्कृति को एक प्रकार का स्थायित्व प्रदान किया।
          मुसलमानों के भारत में आने के बाद जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना घटित इुई, यह थी अरबी और फारसी के रूप में दो विदेशी शासकीय भाषाओं का भारत में प्रचार ओर प्रसार। प्रारंभ में तो मुसलमान शासकों ने भारत में पूर्व प्रचलित भारतीय भाषा का ही प्रशासन में प्रयोग किया और तद्नासुसार उन्होंनें अपनी मद्राओं तक पर ‘अव्यक्त मोहम्मद अवतार अंकित कर प्रचारित किया[३७]। परंतु बाद में राजभाषा के रूप में पहले अरबी फिर फारसी का ही सभी मुसलमान शासकों ने प्रयोग किया। तथा मुग़ल साम्राज्य के बाद उर्दू को भी कहीं कहीं राजकाज के लिए स्वीकार किया गया[३८]। अंग्रेजों के भारत में आने के समय भारत में मुसलमानों द्वारा शासित प्रदेशों में उर्दू तथा हिन्दू शासित प्रदेशों में हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भाषाओं का प्रयोग राजकाज में होता था। परंतु अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ सर्वत्र अंग्रेजी का प्रयोग होने लगा जो अभी चल रहा है। इस प्रकार मध्य काल में आई दो विदेशी किंतु अखिल भारतीय भाषाओं की शृंखला में अंग्रेजी जुड़ जाती है। अरबी और फारसी के भारत में आ जाने के बाद संस्कृत के एकछत्र राज्य को ऐसा धक्का लगा कि वह फिर अपने पहले जैसे महत्व को हमेशा के लिए खो बैठी और विशेषकर मुसलमान शासित प्रदेशों में आंशिक रूप से उसके स्थान पर अरबी फारसी का प्रयोग होने लगा। इस कालावधि में अनेक भारतीय साहित्यिक भाषाएं अपने अपने क्षेत्रों में विकसित होने लगीं थी[३९]। किंतु आधुनिक युग के प्रारंभ अंग्रेजी के राजभाषा के रूप में भारत आ जाने के बाद, आधुनिक भारतीय भाषाओं का राजभाषा के रूप में विकास न हो सका, वे साहित्यिक भाषाओं के रूप में ही विकसित हो सकीं। परंतु इस संदर्भ में हिन्दी, उर्दू, मराठी आदि कुछ आधुनिक भारतीय भाषाओं का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका अंग्रेजों के आने से पहले ही राजभाषाओं के रूप में प्रयोग होने लगा था।
          मुसलमानी काल में इस प्रकार एक ओर जहाँ मुसलमान शासित प्रदेशों में संस्कृत की परंपरा को एक आघात लगता है, तथा मुस्लिम शिक्षा, धर्म तथा राजकाज में संस्कृत के स्थान को अरबी-फारसी ले लेती हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिक भारतीय भाषाओं में से कुछ का क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में साहित्यिक संस्कार किया जाता है, तथा अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन तहत इसी प्रकार के अन्य सामाजिक और राजनीतिक कारणों के परिणामस्वरूप इन भाषाओं में न केवल साहित्य सृजन की परंपरा का सूत्रपात होता है, वरन् इन्हें प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भी स्वीकार किया जाने लगता है। निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है कि इसी कालावधि में भारत के विविध प्रांतों में विभिन्न भाषाओं का साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयोग होने लगता है।

क्रमांक भाषा का नाम भाषा परिवार का नाम साहित्यिक भाषा के रूप में

प्रयोग प्रारंभ का काल (लगभग)

1. असमिया भारतीय आर्य भाषा 1400 ई.
2. बंगाली भारतीय आर्य भाषा 1000 ई.
3. गुजराती भारतीय आर्य भाषा 400-1500 ई.
4. हिन्दी भारतीय आर्य भाषा 1000 ई.
5. कन्नड़ द्रविड़ परिवार 500 ई.
6. कश्मीरी भारतीय आर्य भाषा (दरदी) 1400 ई.
7. मलयालम द्रविड़ परिवार 1500 ई.
8. मराठी भारतीय आर्य भाषा 1300 ई.
9. उडि़या भारतीय आर्य भाषा 1300-1400 ई.
10. पंजाबी भारतीय आर्य भाषा 1700 ई.
11. सिंधी भारतीय आर्य भाषा 1700 ई.
12. तमिल द्रविड़ परिवार 200 ई.
13. तेलुगु द्रविड़ परिवार 1100 ई.
14. उर्दू भारतीय आर्य भाषा 1800 ई.

          इस तालिका के आधार पर कहा जा सकता है कि 10वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के बीच भारत में पहली बार अनेकरूपी क्षेत्रीय साहित्यिक भाषाओं को समानरूपी अनेकानेक सामाजिक और स्थानीय बोलियों की मातृभाषा के रूप में बोलने वाले लोगों ने व्यापक किंतु क्षेत्रीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकृत किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इसी कालावधि में आधुनिक भारतीय संघ के भाषावार प्रांतों के रूप में विभाजन का शिलान्यास हुआ[४०]
          वस्तुतः आधुनिक भारतीय भाषाओं को साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्थापित और विकसित होने के मूल में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण रहे होंगेे। किंतु यह प्रक्रिया भी भक्ति आंदोलन के समान पहले दक्षिण भारत में प्रारंभ होती है बाद में भारत के इतर क्षेत्रों में उसी आदर्श पर स्थानीय साहित्यिक भाषाओं का उद्भव और विकास होता है, जिन्होंने समान रूप से संस्कृत को अपना मुख्य उपजीव्य बनाया तथा प्राकृत, अपभ्रंश आदि अखिल भारतीय भाषाओं से प्रेरणा ली। इसीलिए हमें सभी आधुनिक भारतीय साहित्यिक भाषाओं में चाहे वे आर्य परिवार की भाषाएं हों या द्रविड़ परिवार की, शब्दावली, रचना शैली, अलंकार योजना और अप्रस्तुत विधान के साथ साथ साहित्य रूप कथानक, कथानक रूढि़याँ और भाव, विचार आदि की समानता मिलती है[४१]। भारतीय साहित्य की एकान्मता के मूल में भारत की मूल अखिल भारतीय संस्कार भाषा संस्कृत का योग तो अद्वितीय है ही, परंतु उसके साथ अन्य अखिल भारतीय भाषाओं प्राकृत, अपभ्रंश और अरबी फारसी का कम योगदान नहीं है[४२]। इसीलिए सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत शब्दावली के साथ अरबी-फारसी की जो अखिल भारतीय शब्दावली है, थोड़े बहुत रूप और भेद के साथ सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में आज भी प्रयुक्त होती है।
          यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इसी कालावधि में (10वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक) भारत की भाषिक संरचना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आता है, और वह मध्य भारतीय आर्य भाषा के अंतिम रूप अपभ्रंश से आधुनिक हिन्दी का उद्भव और अखिल भारतीय भााषाओं की परंपरा में उसकी प्रतिनिधि के रूप में हिन्दी की स्थापना और उसका विकास। उक्त कालावधि में अपभ्रंश से अवहट्ठ और अवहट्ठ से पिंगल और पिंगल से भाखा (साहित्यिक ब्रजभाषा) का विकास द्रुत गति से होता है और 15वीं शताब्दी में वह अपने चरम विकास को प्राप्त करती है तथा लगभग तभी से वह अखिल भारतीय भाषा के रूप में प्रचलित है।[४३]
          जिस प्रकार हिन्दी भाषा ऐतिहासिक दृष्टि तथा वर्तमान स्थिति से भारत की वास्तविक राष्ट्रभाषा है उसी प्रकार हिन्दी साहित्य अपने सच्चे अर्थों में भारत का राष्ट्रीय साहित्य है[४४]। चूंकि भारत के प्रायः सभी धार्मिक और सामाजिक वर्गों के ही नहीं, वरन् सभी प्रांतों के व्यक्तियों द्वारा इसकी श्रीवृद्धि हुई है। हिन्दी में लिखित साहित्य को किसी प्रकार भी किसी प्रांत विशेष सीमित सिद्ध नहीं किया जा सकता। हिन्दी का प्रभूत साहित्य भारत के प्रचीन विद्या केंद्रों, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरों तथा राजधानियों में आज भी हस्तलिखित रूप में प्राप्त होता है, जिससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में उन स्थानों पर हिन्दी का साहित्य पढ़ा लिखा जाता था। भारत सरकार या किसी अन्य संस्था ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दी साहित्य की अखिल भारतीय परंपरा के उद्घाटन का प्रयास नहीं किया है। फिर भी विद्वानों के सतत् शोध प्रयासों के परिणाम स्वरूप जो सामग्री प्रकाश में आयी है उससे सिद्ध होता है कि हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि भारत के सभी प्रांतों के कवियों और लेखकों द्वारा हुई है।[४५]
          हिन्दी के आदिकाल का परिचय देने वाली प्रायः सभी कृतियां तथाकथित हिन्दी प्रदेश से बाहर ही लिखी गईं मिलती हैं[४६]आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘नाथ-सिद्धों की बानियां’ से जिन चौबीस नाथ सिद्धों की रचनाएं संग्रहीत की हैं उनमें अधिकांश अहिन्दीभाषी क्षेत्रों के निवासी हैं तथा इनका समय 14वीं शताब्दी के पूर्व ही माना गया है[४७]। इससे सिद्ध होता है कि 14वीं शताब्दी के पूर्व ही अहिन्दी भाषी प्रांतों में हिन्दी साहित्य सृजन की परंपरा प्रारंभ हो गई थी। 13वीं शताब्दी से पूर्व भारत में ‘ब्रजबुल’ साहित्य का परिचय मिलने लगता है[४८]। नेपाल मोरंग से उपलब्ध नाटकों में हिन्दी गीतों के दर्शन 14वीं शताब्दी से होने लगते हैं, जबकि असम, उड़ीसा और बंगाल में 15 शताब्दी से यही परंपरा प्रारंभ होती है[४९]। एक गुर्जर विद्वान् ने लिखा है कि जैसे पहले शौरसेनी पैशाची के कुछ प्रभाव के साथ कविता केवल महाराष्ट्री प्राकृत में होती थी उसी प्रकार परवर्ती काल मे कवि-संत लोक-विनोद के के लिए एकाध पद गुजराती, पंजाबी आदि में लिखते थे। परंतु मुख्य रूप से कविता भाषा (हिन्दी) में ही करते थे[५०]। कविता की भाषा सर्वत्र एक ही थी। महाराष्ट्र में हिन्दी काव्य की परंपरा के विषय में लिखते हुए आचार्य विनयमोहन शर्मा ने लिखा है कि जो मराठी संत कवि प्रतिभा संपन्न रहे हैं, उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी पदों की स्वयं रचना की है और जो केवल कीर्तनकार रहे हैं।, उनकी मराठी अभंगों के साथ किसी प्रसिद्ध हिन्दी संत के पद गाने की परिपाटी रही है[५१]। 13वीं शताब्दी से महाराष्ट्र में खड़ी बोली में कविता होने लगती है तथा 16वीं शताब्दी से ब्रजभाषा में भी प्रारंभ हो जाती है[५२]। पं. गणपति जानकीराव दुबे का कथन है कि हिन्दी साहित्य प्रेमी समाज को यह सुनकर सचमुच केवल हर्ष ही नहीं किंतु गर्व भी होगा कि हिन्दी के साहित्य पर महाराष्ट्र के कवियों का सर्वदा प्रेम रहा है। उन्होंने यदि अपनी मातृभाषा में बड़े बड़े ग्रंथ लिखे तो हिन्दी में कम से कम कुछ पद तो अवश्य लिखे होंगे। पंजाब में अनेक हिन्दी कवियों का पता चलता है तथा प्रारंभ से सिख संप्रदाय ने हिन्दी को अपनी धर्मभाषा के रूप में स्वीकार कर हिन्दी के प्रसार में विशेष योगदान दिया है[५३]। भारत के भक्त कवियों के विषय में लिखते हुए डाॅ. पीतांबरदत्त बडथ्वाल ने कहा है कि ‘सहृदय भक्तमात्र’ बिना किसी प्रांत भेद के तब तक अपनी वाणी की सार्थकता नहीं मानते, जब तक कृष्ण की जन्म भूमि की भाषा में ही भगवान के सम्मुख आत्म निवेदन न कर लेते थे। नामदेव, एकनाथ, बंगाली वैष्ण्व संतों ने ब्रज भाषा में अपने उद्गारों को व्यक्त किया है[५४]। इन प्रांतों के अतिरिक्त विद्वानों ने सिंध, असम, उड़ीसा, कश्मीर आदि प्रांतों में भी हिन्दी साहित्य सृजन की परंपरा को स्वीकृत किया है।[५५]
          इस प्रकार कहा जा सकता है कि 13वीं शताब्दी से भारत के तथाकथित अहिन्दी भाषी प्रांतों में हिन्दी साहित्य का लिखा जाना प्रारंभ हो गया था, साथ ही इस समय से पूर्व का भी जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह भी जैन एवं बौद्ध संतों द्वारा अहिन्दी भाषी प्रांतों में ही मुख्य रूप से लिखा गया है। इतना ही नहीं वरन् सुदूर दक्षिण भारत में भी हिन्दी बहुत पहले पहुंच गई थी। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि मुसलमान फ़कीरों, सैनिकों तथा राज्य संस्थापकों द्वारा हिन्दी दक्षिण भारत में पहुंची थी[५६]। परंतु ‘दक्खिनी का पद्य और गद्य’ के संपादक श्रीराम शर्मा तथा ‘दक्खिनी के सूफी लेखक’ की लेखिका विमला बधे इससे सहमत नहीं हैं कि दक्खिनी विशुद्ध रूप से मुसलमानों द्वारा पैदा की हुई भाषा है, जो सेना तथा शासन के कार्य के लिए दक्षिण भारत में आए थे। उनका विचार है कि राष्ट्रकूटों (7वीं शताब्दी) तथा यादवों (9वीं शताब्दी) के साथ सहस्त्रों उत्तर भारतीय दक्षिण भारत में आए थे, हिन्दी के साथ जो उत्तर भारतीय भाषा उस समय दक्षिण भारत में लाई गई थी उसी से आगे चल कर दक्खिनी का विकास हुआ[५७]। कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिण भारत में लिखी गई हिन्दी कविता के सर्वप्रथम उदाहरण 11वीं शताब्दी में राजा मुंज के दोहे माने जा सकते हैं जो कल्याण के राजा तेजप के यहां कैद थे तथा तैलप की बहन मृणालवती से उनका प्रेम हो गया था[५८]। मुसलमानों के दक्षिण भारत प्रवेश से पूर्व हिन्दी यहां स्थापित हो चुकी थी, परंतु उसका रूप परिष्कृत नहीं था। मुसलमानों के आगमन के पश्चात् उसने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक रूप ग्रहण किया[५९]। विद्वानों ने 14वीं शताब्दी से दक्षिण भारत में हिन्दी की साहित्यिक परंपरा का प्रारंभ माना है[६०]। यद्यपि गोलकुंडा, बीजापुर, हैदराबाद, बहमनी राज्य को दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य के विशेष केंद्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है परंतु त्रावण कोर, गुलबर्गा, वैलूर, अरकाट आदि स्थानों पर भी हिन्दी लेखकों का पता चला है[६१]। भारत के अन्य अहिन्दी भाषी प्रांतों के समान ही दक्षिण भारत में भी योजनाबद्ध रूप से शोध करने पर हिन्दी के अनेकानेक कवियों का पता लग सकता है।
          इस प्रकार सिद्ध होता है कि जिस समय हिन्दी उत्तर भारतीय अहिन्दी भाषी प्रांतों में साहित्य की भाषा के रूप में स्थापित हुई थी, लगभग उसी समय दक्षिण भारत में भी वह साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी। हां, तथाकथित हिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दी के साहित्य की परंपरा कुछ समय पूर्व अवश्य शुरू हो जाती। आशय यह है कि समूचे भारत में हिन्दी लगभग एक ही समय में साहित्यिक और सामान्य व्यवहार में राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत हो गई थी और आज तक उसकी यह राष्ट्रीय साहित्यिक परंपरा जीवित है। भारत की अखिल भारतीय भाषाओं की सुदीर्घ परंपरा में आज हिन्दी उसकी स्वाभाविक प्रतिनिधि है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे


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