महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-12  

पंचपंचाशत्तम (55) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि के विश्वरूप का दर्शन कराना और मरुदेश में जल प्राप्त होने का वरदान देना

जनार्दन! मैं यह जानता हूँ कि आप सम्पूर्ण जगत् के कर्ता हैं। निश्चय ही यह आपकी कृपा है (जो आपने मुझ अध्यात्मतत्त्व का उपदेश दिया) इसमें संशय नहीं है। शत्रुओं को संताप देने वाले अच्युत! अब मेरा चित्त अत्यन्त प्रसन्न और आपके प्रति भक्ति भाव से परिपूर्ण हो गया है, अत: इसे शाप देने के विचार से निवृत्त हुआ समझें। जनार्दन! यदि मैं आपसे कुछ भी कृपा प्राप्त करने का अधिकारी होऊँ तो आप मुझे अपना ईश्वरीय रूप दिखा दीजिये। आपके उस रूप को देखने की बड़ी इच्छा है। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तब परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नचित्त होकर उन्हें अपने उसी सनातन वैष्णव स्वरूप का दर्शन कराया, जिसे युद्ध के प्रारम्भ में अर्जुन ने देखा था। उत्तंक मुनि ने उस विश्वरूप का दर्शन किया, जिसका स्वरूप महान् था। जो सहस्त्रों सूर्यों के समान प्रकाशमान तथा बड़ी-बड़ी भुजाओं से सुशोभित था। उससे प्रज्वलित अग्नि के समान पलटें निकल रही थी। उसके सब और मुख था और वह सम्पूर्ण आकाश को घेरकर खड़ा था। भगवान विष्णु के उस अद्भुत एवं उत्कृष्ट वैष्णव रूप को देखकर उन परमेश्वर की ओर दृष्टिपात करके ब्रह्मर्षि उत्तंक को बड़ा विस्मय हुआ। उत्तंक बोले- सर्वात्मन्! परात्पर नारायण आपको बारंबार नमस्कार है। परत्मात्मन्! पद्मनाभ! पुण्डरीकाक्ष! माधव! आपको नमस्कार है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा आपके ही स्वरूप हैं। आप संसार सागर से पार उतारने वाले हैं। आप ही अन्तर्यामी पुराण पुरुष हैं। आपको नमस्कार है। आप अविद्यारूपी अन्धकार को मिटाने वाले सूर्य, संसार रूपी रोग के महान् औषध तथा भवसागर से पार करने वाले हैं। आपको प्रणाम करता हूँ। आप मेरे आश्रय दाता हों। आप सम्पूर्ण वेदों के एक मात्र वेद्यतत्त्व हैं। सम्पूर्ण देवता आपके ही स्वरूप हैं तथा आप भक्तजनों को अत्यन्त प्रिय हैं। आप नित्यस्वरूप भगवान वासुदेव को नमस्कार है। जनार्दन! आप स्वयं ही दया करके दु:खजनित मोह से मेरा उद्धार करें। मैं बहुत से पाप कर्मों द्वारा बँधा हुआ हूँ। आप मेरी रक्षा करें। विश्वकर्मन्! आपको नमसकार है। सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति के स्थान भूत विश्वात्मन! आपके दोनों पैरों से पृथ्वी और सिरसे आकाश व्याप्त है। आकाश और पृथ्वी के बीच का जो भाग है, वह आपके उदर से व्याप्त हो रहा है। आपकी भुजओं ने सम्पूर्ण दिशाओं को घेर लिया है। अच्युत! यह सारा दृश्य प्रपंच आप ही हैं। दवे! अब अपने इस उत्तम एवं अविनाशी स्वरूप को फिर समेट लीजिये। मैं आप सनातन पुरुष को पुन: अपने पूर्वरूप में ही देखना चाहता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! मुनि की बात सुनकर सदा प्रसन्नचित रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘महर्षे! आप मुझ से कोई वर माँगिये।’ तब उत्तंक ने कहा- ‘महातेजस्वी पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! आपके इस स्वरूप का जो मैं दर्शन कर रहा हूँ, यही मेरे लिये आज आपकी ओर से बहुत बड़ा वरदान प्राप्त हो गया’। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने फिर कहा-‘मुने! आप इसमें कोई अन्यथा विचार न करें। आपको अवश्य ही मुझ से वर माँगना चाहिये, क्योंकि मेरा दर्शन अमोघ है’।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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